मुहंमद शाह को बादशाहत देकर सैय्यद भाइयों नें क्या खोया?

मुल्क का मुग़ल बादशाह रफीउद्दौला यानी शाहजहाँ द्वितीय गंभीर रूप से बीमार था। उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं थी तो सैय्यद बंधुओं (Sayyid brothers) को सत्ता अपने हाथ से निकल जाने की आशंका सताने लगी। बहुत सोच-विचार कर सैय्यद अब्दुल्ला ख़ान ने फतेहपुर सीकरी में फटे हाल रह रहे और बुरे हाल में दिन काट रहे औरंगजेब के पोते तथा शहज़ादे जहाँ शाह के पुत्र शहज़ादे मुहंमद रोशन अख्तर को दिल्ली बुलवाया।

तब उसकी उम्र मात्र अठारह साल रही होगी। शहज़ादे के दिल्ली पहुँचने से एक हफ्ते पहले ही बादशाह रफीउद्दौला की मौत हो गयी थी परंतु तब तक इस समाचार को छिपाकर रखा गया था।

चौदह सितम्बर सन 1719 ईसवीं को मुहंमद अख्तर के दिल्ली पहुँचने पर मृत बादशाह रफीउद्दौला के शव को दफनाया गया। 15 सितम्बर 1719 ईसवीं को नए बादशाह के सिंहासनारोहण की घोषणा कर उसे तोपों की सलामी दी गयी।

उसके नाम का खुतबा पढ़ा गया और सिक्के ढ़ाले गए जिसमें उसका पूरा नाम मय उपाधि अबुल मुजफ्फर नासिरुद्दीन मुहंमद शाह बादशाह गाजीउत्कीर्ण किया गया। मुहंमद शाह (1719-1748) की माँ मुग़ल गवर्नर रहे जहाँ शाह की पत्नी होने के कारण राजकाज और कूटनीति को खूब समझती थी। अब राजमाता के निजी खर्च के लिये 15 हजार रूपया प्रति माह मुकर्रर कर दिए गए।

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सैय्यद भाइयों के विरूद्ध षडयंत्र

मुहंमद शाह के गद्दी पर बैठने के बाद सैय्यद बंधुओंने अपनी आदत के मुताबिक़ उस पर कड़ा नियंत्रण रखा। बादशाह को जब कहीं बाहर जाना होता था तो वह सैय्यद बंधुओं के आदमियों से घिरा रहता था। साथ रहने वाले देखने में बादशाह के अंगरक्षक लगते थे लेकिन उनका वास्तविक कार्य उस बादशाह की पल-पल की जासूसी करना था। यहाँ तक कि शिकार पर जाते वक्त भी उस पर पूरी नजर रखी जाती थी।

बादशाह मुहंमद शाह से मीर जुमला को सल्तनत का प्रधान न्यायाधीश नियुक्त करवाया गया था। दीवान रतन चंद्र अपने पद पर कार्य करता रहा। उसका भूमि कर और कानूनी मामलों पर पूरा नियंत्रण था। सल्तनत में तमाम न्यायिक अधिकारियों व काज़ियों की नियुक्ति के अधिकार भी उसी के पास थे।

समय और परिस्थितियाँ कभी एक सी नहीं रहतीं। न ही यह पता चलता है कि कब कौन आपके साथ कैसा व्यवहार कर बैठे। भले ही आपने उसे कूड़ेदान से झाड़-पोंछ कर शिखर पर स्थापित किया हो।

बादशाह के तख्त पर बैठने के बाद इस युवा बादशाह ने अपना असली चरित्र दिखाना शुरू किया। वह धीरे-धीरे उन्हीं सैय्यद भाइयों के विरूद्ध षडयंत्र रचने लगा जो उसे सत्ता के शिखर तक ले आए थे। षडयंत्रकारियों में प्रमुख उसकी माँ सदरुलनिसा महल थी।

दरबार के बहुत से अमीर सैय्यद बंधुओं से उनके प्रभाव के कारण जलन किया करते थे तो कुछ लोगों की चिढ़न उनके शिया होने के कारण भी थी। दरबार के अनेक प्रमुख दरबारी सैय्यद बंधुओं को हिन्दुओं का पक्षपाती समझकर भी उनसे नफरत करते थे।

बहरहाल, ये सैय्यद विदेशी नस्ल के जरूर थे, परंतु वह कई पीढ़ियों से भारत में रहने के कारण उसे अपना वतन मान चुके थे। इस कारण उनका बादशाह और दरबार के अधिकांश उमरावों में, जो बड़ी मात्रा में सुन्नी थे, तालमेल नहीं बैठ पा रहा था।

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गुटबंदी का अभियान

अगर कहा जाए कि दरबार में जबरदस्त गुटबंदी थी, तो कुछ गलत न होगा। वास्तव में अफगान तथा पठानों की प्रकृति में यह फरक था कि उन्होंने भारत को अपना वतन मान लिया था जबकि ईरानी व तमाम मुग़ल लम्बे समय तक भारत में रहने के बाद भी ऐसा न कर सके।

सैय्यद भाइयों ने निज़ाम-उल-मुल्क (Nizam-ul-Mulk) मीर कमरुद्दीन खान के प्रति अपने तेवर ढ़ीले नहीं किये। एक दिन इन लोगों ने अपने अनुयायियों की एक गुप्त बैठक की जिसमें मुहंमद अमीन ख़ान ने कहा कि अब समय आ गया है कि हमें अपनी जान की परवाह नहीं करनी चाहिए।

यह वह समय है जब सबको स्वेच्छा से अपने जीवन का मोह छोड़ कर इस अभियान में आगे आना होगा। अगर ऐसे में किसी की जान जाती है तो यह एक अच्छे काम में दिया गया बलिदान होगा, और उनके परिजनों का पूरा ख्याल रखा जाएगा। पर कोई नहीं बोला। सन्नाटे को भंग किया मीर हैदर बेग कश्घरी ने। उलने कहा,

मैं एक सैय्यद हूँ, और वे भी। अगर भाई-भाई को मारता है तो इसमें अचरज कैसा?”

बेग एक पुराने और सम्मानित परिवार का सदस्य था। उसके पूर्वज मिर्जा हैदर हुमायूँ के समय में काश्मीर के गवर्नर रह चुके थे, जिन्होंने तारीख-ए-रशीदी’, यानी चुगताई और तैमूर वंश का इतिहास भी लिखा था।

सैय्यद हुसैन अली ख़ान दक्षिण का सूबेदार अवश्य था, पर वह आम तौर पर दिल्ली दरबार में ही रहा करता था। दक्षिण में सूबेदारी का कार्य उसका दत्तक पुत्र व भतीजा आलम अली ख़ान सँभालता था। इस समय मालवा की सूबेदारी निज़ाम-उल-मुल्क के पास थी।

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निज़ाम मीर कमरुद्दीन की बगावत

बादशाह की माँ सदरुलनिसा महल और मुहंमद अमीन ख़ान निज़ाम-उल-मुल्क को पत्र लिखवाते थे कि बादशाह को सैय्यद भाइयों ने अपने चंगुल में फँसा रखा है। वह किसी को कोई आदेश देने की स्थिति में नहीं है और किले से केवल जुमा को नमाज़ पढ़ने हेतु निकल पाता है। इस स्थिति में निज़ाम-उल-मुल्क को उनकी सहायता करनी चाहिए।

उधर सैय्यदों को पता था कि उनको चुनौती कहाँ से मिल सकती है। निज़ाम-उल-मुल्क को अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में पाकर हुसैन अली ख़ान ने उसे मालवा के स्थान पर बुरहानपुर, आगरा, मुल्तान या इलाहाबाद की सूबेदारी लेने को कहा तो निज़ाम-उल-मुल्क को बड़ा गुस्सा आया।

वह फौज सहित उज्जैन से आगरा की ओर रवाना हुआ परंतु कुछ सोचकर फिर दक्षिण की ओर मुड़कर उसने असीरगढ़ के किले पर कब्जा कर लिया तथा मुहंमद गियास को बुरहानपुर पर अधिकार करने भेज दिया।

बुरहानपुर पर निज़ाम द्वारा अधिकार करने के बाद जब दक्षिण से आगरा आते हुऐ सैय्यद हुसैन अली ख़ान के भाई सैफुद्दीन अली ख़ान के बच्चे तथा परिजन बुरहानपुर के निकट पहुँचे तो निज़ाम-उल-मुल्क को उसके लोगों ने सलाह दी कि वह उन्हें लूट ले। परंतु उसने ऐसा न करते हुऐ सैफुद्दीन अली ख़ान के सभी लोगों को अपने आदमियों की सुरक्षा में नर्मदा नदी पार करवा दी।

स्थिति बहुत नाजुक थी और नया बादशाह अपनी रणनीति बना चुका था। पर उसका परिणाम इतना भयावह होगा यह शायद बादशाह मुहंमद शाह रंगीलाभी नहीं जानता था।

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