“दुहाई सरकार, दुहाई…!!”
दिल दहलाने वाली आवाजों के साथ मीर हैदर बेग अमीर-उल-उमरा सैय्यद हुसैन अली (Syyed Brothers) की पालकी की ओर रोता-बिलखता चला आ रहा था।
यह वह समय था, जब अमीर-उल-उमरा फतेहपुर सीकरी के पास पड़ाव में रुके मुग़ल बादशाह मुहंमद शाह (Muhammad Shah) को सवेरे की दुआ-सलाम का सम्मान देकर वापस अपने खेमे की ओर लौट रहा था। इससे पहले सैय्यद हुसैन अली (Syyed Husain Ali) बमुश्किल अपनी पालकी में बैठ कर निकलने ही वाला रहा होगा कि मुहंमद अमीन को खून की उल्टियाँ आने लगीं।
वह चक्कर आने की शिकायत करते हुए सिर पकड़कर वहीं बैठ गया। सैय्यद हुसैन ने पालकी रुकवा ली और शाही हकीम को बुलवा भेजा। दवा-दारु के बाद जब उसकी हालात में सुधार होता दिखा तो उसने खुद को हैदर कुली के खेमे में ले जाने का अनुरोध किया।
उसे वहीं ले जाया गया। उसे रवाना करने के बाद अमीर-उल-उमरा के पास पालकीवालों के अतिरिक्त सिर्फ एक-दो लोग और बचे थे। यह तारीख थी आठ अक्टूबर, 1780।
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अचानक एक छुरा चमका
दुहाई की दरकार लगाकर अपना ध्यान आकृष्ट करने की यह अनोखी घटना न थी। वह बीच-बीच में मुहंमद अमीन का नाम भी ले रहा था, जिसे वह नापसंद करता था, इसलिए सैय्यद हुसैन रुक गया। मीर हैदर बेग कश्घरी अपने हाथ में कागज का एक टुकडा लिए था, वह जोर-जोर से कह रहा था,
“हुजूर, मुहंमद अमीन हम सैनिकों की तन्ख्वाएँ रोके बैठा है… हम भूखों मर रहे हैं। क्या हम लोगों की भी कोई सुनवाई होगी या नहीं?”
वह इतने आत्मविश्वास और आक्रोश से चिल्ला रहा था कि उसकी आवाज में कहीं से कोई झुठ का गुमान नहीं था। उसकी बात सही होने की संभावनाएं इसलिए भी थीं कि ऐतमादउल्ला इस तरह से तन्ख्वाएँ रोकने के लिए कुख्यात था।
सैय्यद हुसैन अली के एक सहायक ने उसके आवेदन को लेने की कोशिश की, पर बेग ने उसे झटक दिया। जाहिर तौर पर वह अपना आवेदन खुद ही देना चाहता था। तब मुस्कुराते हुए अमीर-उल-उमरा सैय्यद हुसैन अली ने उसे आगे आने का निर्देश दिया। पालकी के निकट आकर हैदर बेग ने अपने इस शिकायती पत्र को उसे सौंप दिया।
सैय्यद हुसैन अली ने उसे पढ़ना शुरू ही किया था कि अचानक एक छुरा चमका और उसके पेट में घुसेड़ दिया गया।
दरअसल हुआ यह था कि पालकी के दुसरे किनारे पर अमीर के एक सहायक ने उसे उसी समय सैय्यद को हुक्का पकडाने की कोशिश की थी। वह जैसे ही हुक्के की नै पकड़ने दूसरी ओर घूमा, हैदर बेग को मौका मिल गया। जब तक वह या कोई और कुछ समझ पाता, उसने तेजी से अपने चोगे में छिपा बड़ा छुरा निकालकर सैय्यद हुसैन की अंतड़ियों में घुसेड़ दिया था।
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और लुढक गयी गर्दन
इतने तेज प्रहार के बावजूद सैय्यद हुसैन को समझ आ गया था कि आज काम बिगड़ गया। उसने भरपूर ताकत से चिंघाड़ कर हैदर बेग को पूरी शक्ति से लात जमाई, पर पालकी वाले तब तक अपना बोझ नीचे छोड़ भाग खड़े हुए थे।
हैदर इस घायल सैय्यद भाई के जोरदार प्रहार से गिरा जरूर था, पर उसने खुद को इस हालत में संभाल लिया कि वह फिर से उठ कर उसके सीने पर चढ़ बैठा। अब उसने दूसरा वार सैय्यद हुसैन अली की गर्दन पर किया। गर्दन लुढक कर दूर जा गिरी।
सैय्यद हुसैन अली खान का भतीजा नुरुल्ला खान, जो बमुश्किल 15 साल का रहा होगा, थोड़ी दूर पर ही था। घटनाक्रम देख कर वह भागा आया। उसने अपनी पिस्तौल से हत्यारे पर गोलियाँ दागी। फिर तलवार से भी हैदर बेग पर वार किए। बेग निष्प्राण हो गया था। पर मुग़ल सैनिकों ने नुरुल्ला पर जोरदार हमला किया और उसको भी वहीं ढेर कर दिया।
एकछत्र बादशाहत
सैय्यद हुसैन अली पर हमले के मुख्य घटनाक्रम को बमुश्किल एक मिनट का समय लगा होगा। तब तक मुहंमद अमीन अपनी बीमारी से ‘स्वस्थ’ हो गया था। उसने सैय्यद हुसैन अली के उस कटे हुए सिर को उठाया और शाही खेमे के गेट पर ले जाकर फेंक दिया। फिर उसने आवाज लगाई,
“बादशाह सलामत, जरा बाहर तो आइये!”
बादशाह मुहंमद शाह बाहर निकल आया। उसने जो दृश्य देखा, उसे देखकर एकबारगी उसकी रूह काँप गई। पर आत्मविश्वास से भरे इस दरबारी ने सैय्यद हुसैन के नरमुंड की ओर संकेत कर कहा,
“अब आपका काम हो गया है हुजूर। आप ही मुल्क के एकछत्र बादशाह हैं… आपको कोई चुनौती नहीं है। संभालिए…”
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सैय्यद सेनानी और मुग़ल भिडे
सैय्यद हुसैन अली ख़ान की हत्या के वक्त उसका एक और भतीजा इज्जत ख़ान अपने खेमे में पहुँचकर खाना खाने के लिए बैठा ही था कि उसे इस अप्रिय घटना की सूचना मिली। वह इधर-उधर बिखरे अपने सैनिकों का इंतजार किए बगैर छह-सात सौ सवारों सहित शाही खेमे की ओर चल दिया, जिससे एक बार फिर वातावरण में गर्मी आ गयी।
एक ओर बारहा के सैय्यद सेनानी साहस दिखा रहे थे दूसरी ओर मुग़ल भी पीछे नहीं थे। उधर लुटेरों ने दुकानें लूटना शुरू कर दीं। सैय्यद हुसैन अली ख़ान के खेमों में आग लगा दी गयी। तभी शम्सुदौल्ला ख़ान-ए-दौरां भी सैय्यदों की ओर से लड़ाई में शामिल हो गया।
इस बीच इज्जत ख़ान एक तीर लगने से घायल हो चुका था। अब एक गोली उसके सीने में लगी और वह मर गया। उसकी मौत के साथ ही बारहा के सैय्यदों का मनोबल टूट गया और वे इधर-उधर भागने लगे। चारों तरफ मुहंमद शाह के नाम के जीत की आवाजें गूँजने लगी।
यह तो कोई नहीं जानता कि बादशाह मुहंमद शाह की इस हत्या के लिए सहमति और संलिप्तता थी, या नहीं। पर इतना निश्चित था कि इस कदम से वह सन्न रह गया था। उसने इसका प्रतिवाद भी किया, पर उसकी माँ अब अपने बेटे और मुल्क के बादशाह की सुरक्षा के लिए फिक्रमंद हो उठी। वह मुहंमद शाह को खींच कर खेमे के अंदर ले गई।
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कटे सिर का जुलूस
इस काण्ड के थोड़ी देर बाद जब बादशाह को ढूंढा गया था तो वह तेजी से बदलते इस घटनाक्रम और खून-खराबे के माहौल में डर कर शाही हरम के एक कोने में दुबका मिला। वह वाकई डरा-सहमा हुआ था और हरम के मुखीया सद्र-उन-निसा की आड़ में छिपा था।
सआदत खान ने बादशाह की बांह पकड़ी और उसे मुहंमद अमीन ऐतमादउल्ला के बेटे कमरुद्दीन खान के हाथी पर बिठाया। मुहंमद अमीन उनके पीछे चढ़ कर हाथी पर जा बैठा। वे दोनों काफी देर तक शाही शामियाने के आगे बने रहे। एक मस्तूल पर टंगे सैय्यद हुसैन अली के कटे हुए सिर को आसपास घुमाया गया।
जब मुग़ल सत्ता कि पुरी बागडोर अपने हाथ में रखने वाले शक्तिशाली सैय्यद हुसैन अली ख़ान की मौत हुई, उसकी उम्र 52 साल की थी। घटनाक्रम में मारे गए सैय्यद हुसैन अली, घेरात ख़ान और नुरुल्ला के मृत शरीरों को एक ताबूत में रख कर दफनाने के लिए अजमेर भेज दिया गया।
सैय्यदों का एक और खास आदमी राय सिरोमन दास कायस्थ अपनी दाढ़ी मूँछ मुंडवा, शरीर पर भभूत मलकर अपना जरूरी धन और जेवरात आदि लेकर फरार हो गया। उसका पीछे छूटा शेष सामान लुटेरों ने लूट लिया।
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लूटने की खुली छूट
तुर्रानी अमीरों की ओर से हर दिशाओं में हरकारे भेज कर यह महत्त्वपूर्ण संदेश भेजे गए, जिनमें सुनिश्चित किया गया कि सैय्यदों की ओर से ऐसी कोई कोशिश न होने पाए, और अगर हो तो पुरी ताकत से कुचल दिया जाए, जिसमें वे फिर से अपना जोर इकट्ठा करने की कोशिश करें।
मारे गये अमीर-उल-उमरा सैय्यद हुसैन अली की हत्या के बाद उसके खेमे को लूटने की खुली छूट दे दी गई थी। वहां मौजूद गोला-बारूद में इस प्रकार आग लगाई गई कि उनके खेमे के प्रति हमदर्दी रखने वाले लोग भी दहल जाएँ।
इस प्रकार उनके खेमे की एक-एक कीमती चीज तुर्रानी सैनिकों द्वारा लूट ली गई। ऐतमादउल्ला ने इस स्थिति में कोई हस्तक्षेप न करना ही वाजिब समझा।
यह लूट इस कदर हुई कि कुछ ही घंटों में सैय्यद हुसैन अली खान के डेरे का नामोनिशान ही मिट गया था था। वहां की एक-एक चीज महत्त्वपूर्ण या कीमती, अथवा साधारण, सब लूट ली गई। कहते हैं कि भिखारियों तक के हाथ औसत रूप से कम से कम तीन-तीन हजार अशर्फियाँ लगीं, और वे मालामाल हो गये।
कहा जाता है कि सैय्यद हुसैन अली खान बारहा की हत्या करने के लिए मीर हैदर कश्घरी को उस जमाने की एक बड़ी रकम यानी एक लाख रूपये दिए गये थे।
जाते जाते :
लेखक आगरा स्थित साहित्यिक हैं। भारत सरकार और उत्तर प्रदेश में उच्च पदों पर सेवारत। इतिहास लेखन में उन्हें विशेष रुचि है। कहानियाँ और फिक्शन लेखन तथा फोटोग्राफी में भी दखल।