टिपू सुलतान रोज नाश्ते पहले मंदिर क्यों जाता था?

मैं कुछ ऐसे उदाहरण पेश करता हू, जिनसे यह स्पष्ट हो जाएगा कि ऐतिहासिक तथ्यों को कैसे विकृत किया जाता हैं। जब मैं इलाहाबाद में 1928 ईसवीं में टिपू सुलतान के संबंध मे रिसर्च कर रहा था, तो अग्लों-बंगाली कॉलेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने ‘हिस्ट्री-एसोसिएशन’ का उद्घाटन करने के लिए मुझकों आमंत्रित किया।

ये लोग कालेज से सीधे मेरे पास आए थे। उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं, संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पड़ी। मैंने टिपू सुलतान से संबंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज्यादा आश्चर्य में डाल दिया वह यह था- ‘‘तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टिपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।’’

इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डॉ. हरप्रसाद शास्त्री थे जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष थें। मैने तुरंत डॉ. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टिपू सुलतान के संबंध में उपरोक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा हैं।

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झुठा आधार

कई पत्र लिखने के बाद उनका यह जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना ‘गजेटियर’ (Mysore Gazetter) से उद्धृत की हैं। मैसूर गजेटियर न तो इलाहाबाद में और न तो इम्पीरियल लाइब्ररी, कलकत्ता में प्राप्त हो सका। तब मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर बृजेन्द्र नाथ सील को लिखा कि डॉ. शास्त्री ने जो बात कही हैं, उसके बारे में जानकारी दें।

उन्होने मेरा पत्र प्रोफेसर श्री कन्टइया के पास भेज दिया जो उस समय मैसूर गजेटियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे। प्रोफेसर श्री कन्टइया ने मुझे लिखा कि तीन हजार ब्राह्मणों की आत्महत्या की घटना ‘मैसूर गजेटियर’ में कहीं नही हैं।

और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरा यकिन हैं कि इस प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं हैं। उन्होंने मुझे सूचित किया कि टिपू सुलतान के प्रधानमंत्री पुर्नैय्या नामक एक ब्राह्मण थे और उनके सेनापति भी एक ब्राह्मण कृष्णराव थे। उन्होंने मुझकों ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टिपू सुलतान वार्षिक अनुदान दिया करते थें।

उन्होंने (श्री कन्टइया) टिपू सुलतान के तीस पत्रों की फोटो कापियॉ भी भेजी जो उन्होंने श्रृंगरी मठ के जगदगुरू शंकरचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुलतान के अति घनिष्ठ मैत्री संबंध थें। मैसूर के राजाओं की परंपरा के अनुसार टिपू सुलतान प्रतिदिन नाश्ता करने से पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे, जो श्रीरंगापट्टनम के किले में था।

प्रोफेसर श्री कन्टइया के विचार में डॉ. शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ मैसूर’ (मैसूर का इतिहास) से ली होगी। इसके लेखक का दावा था कि उसने अपनी किताब ‘टिपू सुलतान का इतिहास’ एक प्राचीन फारसी पाण्डुलिपि से अनुदित किया हैं, जो महारानी विक्टोरिया के निजी लाइब्ररी में थी।

खोज-बीन से मालूम हुआ कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पाण्डुलिपि थी ही नहीं और कर्नल माइल्स की किताब की बहुत-सी बाते बिल्कुल गलत एवं मनगढंत हैं।

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पाठयक्रम से निकला अध्याय

डॉ. शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में पाठयक्रम के लिए स्वीकृत थी। मैने कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन सर आशुतोष चौधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र-व्यवहारों की नकले भेजी और उनसे निवेदन किया कि इतिहास की इस पाठय-पुस्तक में टिपू सुलतान से संबंधित जो गलत और भ्रामक वाक्य आए हैं उनके विरूद्ध समुचित कार्यवाही की जाए।

सर आशुतोष चौधरी का शीध्र ही यह जवाब आ गया कि डॉ. शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठयक्रम से निकाल दिया गया हैं। परंतु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 र्इसवीं में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठयक्रम की किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी।

इस सिलसिलें में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय हैं जो उन्होने अपने अख़बार ‘यंग इंडिया’ में 23 जनवरी, 1930 ईसवीं अंक में पृष्ठ 31 पर की थी।

उन्होंने लिखा था कि – “fatehali tipu sultan of mysore is represented by foreign media as a fanatic who oppressed his hindu subjects and converted them to islam by force. but he was nothing of the kind. on the other hand, his relation with his hindu subjects was of a perfectly cordial nature.”

जिसका सार हैं, ‘‘मैसूर के फतह अली (टिपू सुलतान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया हैं कि मानों वह धर्मांधता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा हैं कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे संबंध थें।”

मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीस पत्र हैं, जो टिपू सुलतान ने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरू शंकराचार्य को 1793 ईसवीं में लिखे थे। इनमें से एक पत्र में टिपू सुलतान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया हैं कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई कल्याण और खुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें।

अन्त में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया हैं कि वे मैसूर लौट आए, क्योंकि “किसी देश में अच्छे लोगो के रहने से वर्षा होती हैं, फसल अच्छी होती हैं और खुशहाली आती हैं।’’

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आज़ादी का नायक

यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरो में लिखे जाने के योग्य हैं। ‘यंग इंडिया’ में आगे कहा गया हैं- ‘‘टिपू सुलतान ने हिन्दू मंदिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्री निवास और श्री रंगनाथ मंदिरों को जमीने एवं अन्य वस्तुओं के रूप् में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मंदिर उसके महलों के अहाते मे थे यह उसके खुले जेहऩ, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता-जागता प्रमाण हैं।’’

इससे यह वास्तविकता उजागर होती हैं कि टिपू एक महान शहीद था। जो किसी भी दृष्टि से आज़ादी की राह का हकीकी शहीद माना जाएगा, उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज से कोई परेशानी महसूस नही होती थी।

टिपू ने आज़ादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी और दुश्मन के सामने हथियार डालने के प्रस्ताव को सिरे से ठुकरा दिया। जब टिपू की लाश उन अज्ञात फौजियों की लाशों मे पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी- वह तलवार जो आज़ादी हासिल करने का जरिया थी।

उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने के योग्य हैं: “शेर की एक दिन की जिन्दगी लोमड़ी के सौ सालों की जिन्दगी से बेहतर है।” उसकी शान में कही गई एक कविता की वह पंक्तियां भी याद रखे जाने योग्य हैं, जिनमें कहा गया हैं कि ‘‘खुदाया, जंग के खून बरसाते बादलों के नीचे मर जाना, लज्जा और बदनामी की जिन्दगी जीने से बेहतर हैं।’’

(उनकी किताब ‘इतिहास के साथ अन्याय’ से यह अध्याय लिया गया हैं।

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