तुघ़लक काल में कैसे मनायी जाती थी रमज़ान ईद?

मुहंमद तुघ़लक काफी उत्सवप्रिय व्यक्ती था। होली, दिवाली जैसे त्योहार वह काफी उत्साह से मनाता था। उसके दरबार में रमज़ान और बकर ईद मनाने कि एक विशेष पद्धती थी।

रमज़ान ईद के दिन ईदगाह जाकर नमाज पढ़ने, बकर ईद में कुर्बानी करने से लेकर दान-धर्म की एक विशेष शैली थी। इब्ने बतुता तुघ़लक के काल में भारत आया था। उसने तुघ़लक दौर की ईद और उस वक्त के विशेष दरबार का वर्णन किया है। उसके सफरनामे का कुछ अंश..

ईद कि पहली रात को सम्राट अमीरों मुसाहिबों (दरबारीयों), यात्रियों, मुत्सद्दीयों, हाजिबों नकीबों अफसरों, दासों और अखबार-नवीसों के लिए मर्यादानुसार एक एक खिलअत भेजता है। प्रातःकाल होते ही हाथियों को रेशमी, सुनहरी तथा जडाऊ झूलों से विभूषित करते हैं। सौ हाथी सम्राट कि सवारी के लिए होते हैं।

इनमें प्रत्येक पर रत्नजटीत रेशम का बना छत्र लगा होता है जिसका डंडा विशुद्ध सोने के धातू से बना होता हैं। सम्राट के बैठने के लिए हर एक हाथी पर रत्नजटीत रेशमी गद्दी बिछी होती है। सम्राट एक हाथी पर आरुढ हो जाता है और उसके आगे-आगे रत्नजटित जीनपोश पर एक झंडा फरहरे की भांति चलता है।

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नौबत के साथ सवारी

हाथी के आगे दास और ममलूक नामदारी भृत्य पांव पांव चलते हैं। इनमें से प्रत्येक के सिर पर चाची टोपी होती है। (अर्धचंद्राकार टोपी) और कमर में सुनहरी पेटी होती है। इनमें से किसी-किसी की पेटी में रत्नादी भी जडे होते हैं। इनके अतिरिक्त, सम्राट के आगे तीन सौ नकिब भी चलते हैं।

इनमें से प्रत्येक सिर में पोस्तीन कि कुलाह टोपी (जानवर के चमडे से बनायी टोपी), कमर में सुनहरी पेटी और हाथ में सोने की मुठ्ठी वाला ताजियाना (कोडा) होता है।

सदरे-जहां काझी-उल-कज्जात कमालुद्दीन गजनवी, सदरे जहां काझी उल कुज्जात नासिरुद्दीन ख्वारजमी, समस्त काझी और विद्वान परदेशी, इराक खुरासान, शाम (सिरिया) और पश्चिम देश-निवासी, हाथियों पर सवार होते हैं। (यहां एक बात लिखना जरुरी है कि इस देश के निवासी सब विदेशियों को खुसारासानी ही कहते हैं।)

इनके अलावा मोअज्जिन (अजान देनेवाला) भी हाथियों पर सवार होकर चलते हैं और तक़बीर (अल्लाह का नाम जप) कहते जाते हैं। इस तरह सम्राट जब राजप्रसाद से निकलता है तो बाहर समस्त सेना उसकी इंतजार में खडी रहती है।

हर अमीर भी अपनी सेना के लिए अलग से खडा रहता है और प्रत्येक के साथ नौबत और नगाडे वाले भी रहते हैं। सबसे पहले सम्राट की सवारी चलती है। उसके आगे आगे उपर निर्देशित किए गए व्यक्तियों के अतिरिक्त काजी और मोअज्जिन भी तक़बीर पढते चलते हैं। सम्राट के पिछे बाजे वाले चलते हैं और उनके पिछे उसके सेवक चलते हैं।

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अमीरों को कवच

इसके बाद सम्राट के भतीजे बहरम खाँ और उसके पिछे सम्राट के चचा के पुत्र मलिक फ़ीरोज की सवारी होती है।  फिर वजीरों कि और मलिक मजीरजिर्रजा और फिर सम्राट के अत्यन्त मुंहचढे अमीर कबूला की सवारी होती है।

यह अमीर अत्यंत धनाढ्य है। इसका दिवान अल्लाउद्दीन मिश्री, जो मलिक इब्न सरशी के नाम से अत्यंत प्रसिद्ध है, मुझसे कहता था कि सैन्य तथा भृत्यों सहित इस अमीर का साल का खर्चा (वार्षिक व्यय) छत्तीस लाख के लगभग है।

इसके बाद मलिक नकवह और फिर मलिक बुगरा, उसके बाद मलिक मुखलिस और फिर कुतुब उल मुल्क की सवारी होती है। प्रत्येक अमीर के साथ उसकी सेना तथा बाजे वाले भी चलते हैं। सारे अमीर सदा सम्राट की सेवा में हाजीर रहते हैं और ईद के दिन नौबत तथा नगाडे सहित सम्राट के पिछे उपर लिखे क्रम से चलते हैं।

इनके पिछे अमीर चलते हैं जिसको अपने साथ नगाडे तथा नौबत रखने कि इजाजत नहीं है। जैसा कि उपर जिक्र किया गया है, अमीरों की अपेक्षा इनकी श्रेणी भी कुछ नीची ही होती हैं। परंतु इस ईद के जुलुस में प्रत्येक अमीर को कवच धारण कर घोडे पर सवार होकर चलना पडता है।

ईदगाह के मेन दरवाजे पर पहुंचकर बादशाह खडा हो जाता है और काजी, मोअज्जिन बडे बडे अमीरों और प्रतिष्ठित  विदेशियों को पहले जाखिल होने की इजाजत देता है। इन सबके अंदर जाने पर सम्राट उतरता है और फिर इमाम (नमाज पढ़ानेवाला) नमाज प्रारंभ करता है और ख़ुतबा पढ़ता है।

बकर ईद रमज़ान ईद के दो माह दस दिन बाद होती है। इस मौके पर सम्राट अपने लिबास रुधिर छीटों से बचाने के लिए रेशमी लुंगी ओढकर भाले से ऊंट की नस विशेष काटता है और इस भांती कुर्बानी के बाद फिर से हाथी पर आरुढ हो राजप्रसाद को लौट आता है।

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ईद  का दरबार

ईद के दिन समस्त दीवानख़ाने में फर्श बिछाकर उसे विविध प्रकार से सुसज्जित करते हैं। दीवानखाने के चौक में वराक खडी की जाती है। यह एक विशेष प्रकार का बडा डेरा होता है जिको मोटे-मोटे खंभो पर खडा करते हैं। इसके चारों ओर अन्य डेरे रहते हैं और विविध रंगो के छोटे बडे रेशम के फुलों सहित बूटे लगाए जाते हैं। इन वृक्षों की तीन पंक्तियां दीवानखाने में भी सुसज्जित की जाती हैं।

वृक्षों के मध्य में एक सोने की चौकी रखी जाती है। चौकी पर एक गद्दी रखकर उस पर एक रुमाल डाल दिया जाता है। दीवानखाने के ठीक बीच में एक सोने की रत्नजटीत बडी चौकी रखी जाती है।

यह बत्तीस बलिश्त (आठ गज) लंबी और सोलह बालिश्त (चार गज) चौडी है। इस चौकी के बहुत से अलग-अलग खंड हैं, जिन्हे कई आदमी मिलकर उठाते हैं। दीवानख़ाने में लाने पर उन खंडो को जोडकर चौकी बना ली जाती है और उस पर एक कुर्सी बिछाई जाती है। सम्राट के सिर पर छत्र लगाया जाता है।

बादशाह के तख्त (चौकी) पर बैठते ही नकीब (घोषणा करने वाले) और हाजिब उच्च स्वर से ‘बिस्मिल्लाह’ उच्चारण करते हैं। इसके फौरी बाद एक एक शख्स सम्राट की वंदना के लिए आगे बढता है।

सबसे पहले काज़ी ख़तीब (खुतबा पढने वाला), विद्वान शैख तथा सय्यद और सम्राट के भ्राता तथा अन्य निजी करीब के रिश्तेदार और संबंधी आगे बढ़ते हैं। इनके बाद विदेशी वजीर (मंत्री) और सैन्य के उच्च पदाधिकारी, वृद्ध दास और सैन्य के सरदारों की बारी आती है। प्रत्येक व्यक्ति अत्यंत शांतिपूर्वक वंदना कर अपनी तयशुदा जगह पर बैठ जाता है।

ईद के अवसर पर जागीरदार तथा अन्य ग्रामाधिपति रुमालों में अशरफियां बांध सोने के थालों में, जो इसी मतलब से वहां रख दिए जाते हैं, आकर डालते हैं। रुमालों पर भेंट देने वालों का नाम लिया जाता है। इस रिति से बहुत सा धन इकठ्ठा हो जाता है। बादशाह इसमें इच्छानुसार दान भी देता है। वंदन हो जाने के बाद सबके लिए खाना आता है।

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सजती महफ़िल

ईद के दिन शुद्ध सोने की बनी हुई बुर्जाकार एक बडी अंगीठी भी निकाली जाती है। चौकी की तरह इस अंगीठी के भी बहुत से अलग-अलग खंड हैं। बाहर लाकर ये सब खंड जोड लिए जाते हैं। इस अंगीठी के तीन भाग हैं।

फर्राश (भृत्य विशेष) जब इस अंगीठी में ऊद, इलायची और अम्बर (खुशबू देनेवाला पदार्थ – अबीर) जलाते हैं तो समस्त दीवानख़ाना खुशबू से महक उठता है। दासगण सोने तथा चांदी के गुलाब पाशों के द्वारा उपस्थित जनता पर गुलाब तथा अन्य पुष्पों के अर्क छिडकते हैं।

बडी चौकी तथा अंगीठी केवल ईद के अवसर पर बाहर निकाली जाती है। ईद बीत जाने पर सम्राट दूसरी सोने के धातू से निर्मित चौकी पर बैठकर दरबार करता है जो बारगाह में होता है। बारगाह में तीन दरवाज़े होते हैं। सम्राट इनके भीतर बैठता है। पहले दरवाज़े पर यूसुफ बुगरा दाहिनी तथा बाईं ओर अन्य अमीर और समस्त दरबारी यथास्थान खडे  होते हैं।

इसके बाद नर्तकी तथा अन्य गाने-बजाने वाले आते हैं। सबसे पहले उस साल जीते हुए राजाओं कि युद्धगृहिता कन्याएं आकर राग आदि अलापती तथा नृत्य प्रदर्शन करती हैं। सम्राट अपने कुटुंबी, भ्राता, जामाता तथा राजपुत्रों में बांट देता है। यह सभा अस्र (शाम के चार बजे) के बाद होती है।

दूसरे दिन अस्र के बाद फिर इसी क्रम से सभा होती है। ईद के तीसरे दिन सम्राट के संबंधी तथा कुटुंबीयों की शादीयाँ होती हैं और उनको पुरस्कार में जागीरें दी जाती हैं। चौथे दिन दास स्वाधीन किए जाते हैं और पांचवे दिन दासियां। छठे दिन दास-दासियों के विवाह किए जाते हैं और सातवे तथा अंतिम दिनों को दान दिया जाता है।

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