मुगल हरम हमेशा साहित्य, संस्कृति और राजनीति का केंद्र रहा है। मगर सांप्रदायिक इतिहास लेखन ने मुगल हरम को एक वासना केंद्र के रुप में पेश कर उसकी पवित्रता से खिलवाड किया है।
हरम की कई बेगमात ने मध्यकालीन इतिहास में अपनी अलग पहचान बनाई है। नूरजहाँ से लेकर गुलबदन बेगम तक कई कवियत्रीयाँ, इतिहासकार, सुफी विचारक मुगल परिवार का हिस्सा रही हैं।
मध्यकाल के मुस्लिम शासक और उनके हरम कि अनेक कहानियाँ, इतिहास के ग्रंथो में पाई जाती हैं। हरम को आम तौर पर शासकों की वासनापुर्ती का केंद्र माना जाता है। सामान्य धारणाओं में एक तत्व स्थायी रुप से निहीत है कि, वहां बादशाहों की पत्नीयों के साथ, उनकी रखेलों और प्रेमिकाएं रहती थी। जिनका कर्तव्य था, बादशाह की जब भी इच्छा हो उसकी वासना को पुरा करें।
जैसे भगवतीप्रसाद कहते हैं, “मध्यकाल के शासकों का हरम विभिन्न वंश, देश–विदेश कि स्त्रियों से भरा रहता था। जिनको बादशाह अपनी वासना का शिकार बनाते थे।”
इसी तरह बादशाहों के हरम में स्त्रियों के आंकडे बताए जाते हैं। कई इतिहासकार मध्यकाल में बादशाहों के हरम में हजारों महिलाएं मौजूद होने के मिथक को जन्म देते दिखाई पडते हैं।
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एक पवित्र जगह
प्रख्यात इतिहासकार प्रो. हरबंस मुखिया इन लोकप्रिय तथ्यों को खारिज करते हैं। वे कहते हैं, “मुगल परिवार के बारे में लोगों में प्रमुख रुप से यह धारणा है कि एक हरम में बहुत सी महिलाएं होती थीं। इनका काम केवल एक व्यक्ती यानी शहंशाह को खुश रखना होता था। जिसकी काम वासना अतोषणीय थी।
हरम शब्द ही एक विशाल क्रीडा–स्थल की छवि देता है जहां शहंशाह अपनी वासनात्मक कल्पनाओं को हर आकार, रंग, अलग–अलग सांप्रदायिक समूह की सैंकडो महिलाओ के साथ मूर्त रुप देता था।
लेकिन वास्तव में इस धारणा के विपरित ‘हरम’ एक पवित्र शब्द है। यह पूजा–स्थल, परमपावन गर्भ–गृह को इंगित करता है, जहां कोई भी पाप करना हराम था। अतः कम से कम अवधारणा की दृष्टी से यह अन्य संबंधो के साथ–साथ यौन संबंधो में भी संयंम का स्थान था, न कि अतिशयता का।”
मुगल हरम एक पवित्र जगह थी, जहां उपासनाएं, धार्मिक चर्चाएं और विद्वत्तापुर्ण बहस भी होती थी। मुगल हरम कि कई महिलाओं ने तत्कालीन शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक जगत में महत्त्वपूर्ण योगदान भी दिया था।
बाबर के समय से ही मुगल हरम साहित्य की चर्चाओं का केंद्र रहा। न सिर्फ महत्त्वपूर्ण साहित्यिक चर्चाएं मुगल हरम में होती रहीं, बल्की मुगलों कि कई बेगमों ने साहित्य का निर्माण कर अपना नाम इतिहास में दर्ज कराया है।
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बौद्धिक महफिल
बाबर की बेटी गुलबदन बेगम ने प्रख्यात ग्रंथ ‘हुमायूँनामा’ रचा है, जिसके जरिए इतिहासकार आज भी हुमायून के इतिहास का अध्ययन करते हैं। इसी ग्रंथ में गुलबदन बेगम ने दुनिया के इतिहास पर अपनी टिप्पणीयां भी कि हैं।
गुलबदन बेगम ने जिस तरह फारसी और तुर्की भाषा की कहावतें, मुहावरों को अपने ग्रंथ में शामील किया हैं, उससे इसका अंदाजा हो जाता है की, वह काफी सुसंस्कृत और उच्च शिक्षित महिला थी।
जहांगीर के काल में नूरजहाँ अपनी विद्वत्ता और कविताओं के लिए काफी मशहूर थी। मैनेजर पाण्डेय मुगल साहित्य के विख्यात अभ्यासक हैं। उन्होने अपनी पुस्तक में नूरजहाँ का एक शेर जो उसकी लाहोर कि कब्र पर लिखा हुआ है, उधृत किया है। जिसमें नूरजहाँ अपने आखरी दिनों कि विपन्नावस्था का दुख जाहीर करती है। वह शेर में कहती है,
बर मजारे मा गरीबां ने चरागे न गुले,
ने परे परवाना सोजद, ने सदा ए बुलबुले।
(हम गरीबों कि मजार पर न कोई चराग जलता है न गुलाब खिलता है
न कोई परवाना आकर अपने पर जलाता है न बुलबुल सदा देती है।)
शहाजहाँ के सत्ता में आते ही नुरजहाँ का महत्त्व कम होता गया। अपने आखरी दिन उसे काफी दुख, दर्द में बिताने पडे। शाहजहाँ के वक्त ‘मुगल हरम’ का उत्कर्ष चरम पर था। मुगल हरम में खुद मुमताज जैसी कवियत्री मौजूद थी। डॉ. शहंशाह खान ‘मुगल हरम’ के इतिहास के अभ्यासक माने जाते हैं। उनका कथन है, शहाजहां ने एक बार मुमताज महल कि तरफ देखकर यह शेर कहा –
आब अज बराये दीदन्त मी आयद अज फरसंगह
(पानी तुम्हें देखने के लिए पत्थरों से उठ रहा हैं।)
तो मुमताज ने भी उसे शायरी में जवाब देते हुए यह शेर कहा –
अज हैबते शाहजहाँ सर मी जान्द बर संगह
(बादशाह के जलाल से पानी की लहरें पत्थरों से टकरा रही हैं।)
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औरंगजेब भी कलासक्त
मुमताज कि विरासत उसके बाद उसकी बेटी जहाँआरा ने उत्कर्ष पर पहुंचाई। वह अपने भाई दारा कि तरह सुफी संप्रदाय से काफी लगाव रखती थी और चिश्ती सिलसिले की मुरीदा थी। उसने प्रख्यात सुफी ख्वाजा मैनुद्दीन चिश्ती की जीवनी ‘मुनीस उल अरवाह’ के नाम से लिखी थी। यह सुफी विचारधारा पर एक महत्त्वपूर्ण रचना मानी जाती है।
जिसमें ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी, बाबा शेख फरीद, हजरत निजामुद्दीन औलिया के अध्यात्मिक दर्शन पर चर्चा कि हुई है। दिल्ली के लाल किलें में एक बार जहाँआरा आग कि चपेट में आ गई थी।
काफी गंभीर तौर पर जखमी होने के बावजूद जहाँआरा कि जान बच गई। मगर उसे जिंदगी भर अविवाहीत रहना पडा। चिश्ती विचारधारा के चलते, उसकी मौत के बाद ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया कि दरगाह के करीब उसे दफनाया गया। जहाँआरा ने अपनी पुस्तक ‘मुनिस उल अरवाह’ में कई फारसी शेर लिखे हैं। जिसमें से एक शेर है –
रिश्ता–ए–दर गरदनम अफगंदाम दोस्त
मी बुरद हरजा–के–खातिर खुआ है ओस्त
(दोस्त ने अपने प्यार कि बाहें मेरी गर्दन में डाल दी हैं।
उसकी मर्जी वह जहाँ चाहे मुझे ले जाए।)
औरंगजेब अपनी बहन कि काफी कद्र करता था। उसपर इल्जाम लगाया जाता है की, उसने इस्लामी साम्राज्य के पुनर्जीवन का नारा दे दिया था। धार्मिक कट्टरता कि वजह से उसके साम्राज्य में कवि, साहित्यिक और अन्य तत्ववेत्ताओं को आश्रय नहीं दिया जाता था। यह लोकप्रिय आरोप के चलते एक हकिकत यह भी है की, उसके दौर में हरम की साहित्यिक उंचाई कम न हो सकी।
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गलत प्रचार
औरंगजेब की बेटी जैबुन्निसा कुरआन, हदिस और फिकह (इस्लामी न्यायशास्त्र) में काफी माहीर थी। वह अपने दौर कि लोकप्रिय कवियत्री भी थी। सरोजिनी नायडू ने जैबुन्निसा कि शायरी का हिन्दी में अनुवाद किया है। अकिल खां उस दौर का एक शायर था, जिसने जैबुन्निसा को देखकर एक शेर पढा –
सुर्ख पोशे बल्लबे बाम नजर मी आयद
(सुन्दर लाल वस्त्र पहने सुन्दरी छत पर मुझे दिखाई देती है।)
उसका जवाब देते हुए जैबुन्निसा ने यह शेर कहा
न बाजू न बाजारे न बजारे मी आयद।
(न जोर जबरदस्ती और न रोने से सुन्दरी आती है।)
इसी शेर की वजह से कई इतिहासकारों ने जैबुन्निसा के साथ अकिल खाँ के प्रेम संबंध होने कि बात कही है। जिसके संदर्भ में कोई तथ्य प्रस्तुत कर पाना काफी मुश्किल है। मुगल हरम को वासना केंद्र ठहराने के लिए किए गए प्रयासों के बावजूद इतिहास इसकी महानता को बयान करता आया है।
डॉ. शहंशाह खान कहते हैं, “बाबर से लेकर औरंगजेब (1516-1707) तक के शासनकाल में मुगल हरम की बेगमात की मुगल राजनीति, प्रशासन और स्थापत्य कला में सक्रिय भूमिका रही।
हरम की बेगमात का यह योगदान उन्हे इतिहास में एक उच्चकोटी का स्थान प्रदान करता है। हरम की बेगमात तैमूरी शासकों, उनकी स्त्रियों, उस युग के अन्य शासकों एवं स्त्रियों से उच्च स्थान रखती थी। इन बेगमात ने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्त्व से मुगलकाल के गौरवपूर्ण इतिहास में एक उच्च स्थान प्राप्त किया।”
हकिकत यह है की, वासना केंद्र कि सदस्या कहकर मुगल हरम कि बेगमों को इतिहासलेखन में उपेक्षित रखा गया। मध्यकालीन इतिहास कि सही व्याख्या करने के लिए प्रस्थापित अवधारणाओं से हटकर इन महिलाओं के सांस्कृतिक योगदान का अध्ययन करना जरुरी है।
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लेखक युवा इतिहासकार तथा अभ्यासक हैं। मराठी, हिंदी तथा उर्दू में वे लिखते हैं। मध्यकाल के इतिहास में उनकी काफी रुची हैं। दक्षिण के इतिहास के अधिकारिक अभ्यासक माने जाते हैं। वे गाजियोद्दीन रिसर्स सेंटर से जुडे हैं। उनकी मध्ययुगीन मुस्लिम विद्वान, सल्तनत ए खुदादाद, असा होता टिपू सुलतान, आसिफजाही इत्यादी कुल 8 किताबे प्रकाशित हैं।