सूफी-संत मानते थे राम-कृष्ण को ईश्वर का ‘पैगम्बर’

भारत के सांझी विरासत को सहजने में सूफी-संतो का बड़ा योगदान रहा हैं। वे हिन्दू और मुस्लिम जनता दोनो के करीब थे। हजारो कि संख्या में लोग उनके पास आते थे। सूफी ‘वहादत अल वजूद’ (जीव कि एकता) के सिद्धान्त मे यकिन करते थे। इस सिद्धान्त का काफी दूर तक धार्मिक असर देखने को मिला। जिसने हिन्दुओ और मुसलमानों के बीच कि एक अदृष्य दीवार को गिरा दिया।

वहादत अल वजूद के सिद्धान्त के संस्थापक मुहिरुद्दीन इब्न अरबी ने कहा कि दिल एक मंदिर है, एक चर्च है, एक मस्जिद है, और एक हवन कुण्ड है। इस तरह इस सिद्धान्त ने अलग-अलग धार्मिक पहचानों के तीखेपन को कुंद कर दिया।

सूफी धार्मिक कर्मकांड की अपेक्षा सेवा में और आध्यात्मिक कार्यों में अधिक यकिन करते थे न कि शरीयत की औपचारिकताओं में (इन्होंने शरीयत को खारिज नहीं किया था)। इस तरह सूफियों ने इस्लाम का भारतीय धर्मों से, मुख्यतः हिन्दू धर्म से समन्वय स्थापित किया।

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भारतीयता थी पहचान

सूफियों ने सिर्फ अरबी और फारसी में नहीं बल्कि उन्होंने आमतौर पर भारतीय बोलियों में लिखा। इस तरह पंजाब के बाबा फरीद ने पंजाबी में लिखा और उनकी गिनती पंजाबी के शुरुआती कवियों में होती है। गुरु नानक ने उनको ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संकलित किया।

शेख निजामुद्दीन औलिया महान् सूफी संत थे जो सल्तनत काल में दिल्ली में बस गए थे। निजामुद्दीन के रहस्यवादी दर्शन का आधार ईश्वर-चेतस व्यक्तित्व का निर्माण था। उनकी मान्यता थी कि जो अपने दिल में ईश्वर के प्रति प्यार रखता है उसके हृदय से पाप मिट जाएंगे। उनके लिए नैतिकता, बौद्धिकता और खुबसुरती के अनुभव में ईश्वर मौजूद है।

जिस तरह दैवीय प्रकृति इन्सान इन्सान में फरक नहीं करती उसी तरह रहस्यवादी भी संस्कृति, नस्ल, भाषा और क्षेत्र आदि की सीमाओं को लांघ जाएगा। इस जमीं  पर सभी इन्सान ईश्वर कि औलाद हैं और ये हमारा फर्ज है कि हम उनसे प्यार, सहानुभूति का व्यवहार करें। शेख निजामुद्दीन औलिया इस अवधारणा को सामाजिक संबंधो में लागू किया था।

निजामुद्दीन का मानना था कि किसी इन्सान के दिल को दर्द देने वाला व्यक्ति आध्यात्मिकता में पारगंत नहीं हो सकता। उन्होंने शेख अबू शैद अबुल खैर के विचारों को बताया कि ईश्वर तक पहुंचने के अनेकों तरीके हैं, लेकिन मनुष्य के दिल के लिए खुशियां प्रदान करना उससे मिलन का भरोसेमंद तरीका है।

इसी तरह काफी सूफी मानते हैं कि अल्लाह ने अपने पैगम्बर को हिन्दुस्तान में भी भेजा जैसा कि वे पवित्र कुरआन में वादा करते हैं कि प्रत्येक इन्सान के लिए मार्गदर्शक भेजा है। मजहर जान-ए-जाना जैसे सूफी मानते हैं कि वेद ईश्वर की पुस्तकें हैं और राम और कृष्ण दो महान हस्तियां हैं जो ईश्वर के पैगम्बर हैं।

उनका यह भी मानना है कि हिन्दू उस तरह के मूर्ति पूजक नहीं हैं जैसे कि इस्लाम-पूर्व अरब थे और इसलिए दोनों के बीच फरक करना जरुरी है। इस तरह भारत के हिन्दुओं की तुलना अरब के ‘काफिरों’ से नहीं की जा सकती।

इस तरह वे कहते हैं कि, “वेदों में अच्छे और बुरे कामों के बारे में दैवीय शिक्षाएं हैं याने विधि और निषेध, क्या करना चाहिए और क्या नहीं, और भूत व भविष्य के बारे में हैं।”

उन्होंने हिन्दुओं की मूर्ति-पूजा की सूफियों के व्यवहार से तुलना करते हुए कहा, “हिन्दुओं ने अपनी मूर्तियां और चित्र इन्सान के रूप में बनाई हैं इनके माध्यम से ध्यान एकाग्रचित करने के दौरान उनका इनसे आध्यात्मिक रिश्ता जुड़ जाता है जिससे वे इस जीवन और उसके बाद की जरूरतों को पूरा करने की आशा करते हैं।

उनका यह व्यवहार सूफियों की ध्यान-योग तरीके के जैसा ही है जो ‘पीर’ के रूप में ध्यान में रहता है और जिसे आध्यात्मिक गुरु के रूप में माना जाता है और इससे लाभ लिए जा सकते हैं। इनमें केवल इतना अंतर है कि सूफी अपने आध्यात्मिक गुरु का भौतिक रूप नहीं बनाते।”

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शेख मुहंमद

इसी तरह महाराष्ट्र के सूफी कवि शेख मुहंमद ने मराठी में लिखा और उस क्षेत्र में अत्यधिक लोकप्रिय हुए। डॉ. पी. वी. रानडे के अनुसार, “उनकी रचनाओं को महाराष्ट्र के ‘वारकरी सिलसिला’ में पवित्र माना जाता है। प्रसिद्ध कवि संत रामदास ने छत्रपति शिवाजी को उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु बनाने के लिए कहा (इसपर विवाद हैं, संपादक इसका समर्थन नही करते) और शेख मुहंमद को नमन किया –

“शेख मुहंमद की शान है। आपने संसार के गूढ़ रहस्यों को इस गहराई और इतने सरल ढंग से परिभाषित किया कि कारण और सामान्य नैतिकता का तर्क दिया है। आपने समस्त संसार की पहचान और मूलभूत एकता को प्राप्त किया है।

आपने हम पर अहसान किया है और हम पर इतना कर्ज है जिसे हम कभी उतार नहीं सकते, यहां तक कि यदि हम अपना शरीर और आत्मा को आपके चरणों में रख दें तो भी। मैं आपके चरणों की पवित्र धूल को उठाकर अपने माथे पर लगा लूं” (वा. सी बेंद्रे उद्धृत रामदास के पद का अनुवाद)।

शेख मुहंमद ने मराठी में कई काव्य-ग्रंथ लिखे जैसे ‘योग संग्राम’, ‘पवनविजय’, ‘आचार-बोध’, ‘विचार-बोध’ आदि। डॉ. रानडे के अनुसार, “शेख मुहंमद का काव्य ‘ताहिद’ के सिद्धान्त के इर्द-गिर्द घूमता है जो मराठी और संस्कृत ‘अद्वैत’ के बराबर है।

‘ताहिद’ या ‘अद्वैत’ दर्शन की दो जुड़वां विशेषताएं हैं – मनुष्य का संसार से अलगाव और दोनों में रिश्ता स्थापित करना। यह काजियों, मौलानाओं, संन्यासियों, जोगियों, जंगमों, बैरागियों, मुल्लों और पंडो के मिथ्या और पाखंडी कर्मकांडी विविधता को खत्म करती थी।

शेख मुहंमद ने ऐसे ढोंगी ईश पुरुषों को भी नहीं बख्शा, जिन्होंने उनकी आलोचना की और लगभग प्रत्येक रचना में इनका मजाक उड़ाया था। महाराष्ट्र में खुलताबाद सूफी-संतों का केंद्र था और छत्रपति शिवाजी की दादी मौलोजी ने शाह शरीफ जी से आशीर्वाद लिया और यहां रहीं।

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अवतारों से कि तुलना

इसी तरह कुछ गुजराती सूफियों ने इस्लाम के पैगम्बर मुहंमद (स) को कृष्ण के अवतार के रूप में और उनके दामाद और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी हजरत अली को विष्णु के अवतार के रूप में वर्णन किया। इस्माइली खोजाओं ने अली को विष्णु का दशम अवतार माना।

गुजरात के इन सूफियों ने गुजराती भाषा में इस दृष्टि से कविताओं की रचना की। आम जनता के भी कोई निहित स्वार्थ नहीं थे और वे एक-दूसरे से खुले रूप में मिले व एक-दूसरे के विश्वासों का आदर किया।

उन्होंने विभिन्न विश्वासों व धार्मिक तत्त्वों को लेकर एक नयी संस्कृति पैदा की। काफी संख्या में नए मानवतावादी विचार जैसे सिख पंथ, कबीर पंथ, प्रणामी पंथ और कुछ अन्य पंथ भी अस्तित्व में आए।

पूरे मध्यकालीन इतिहास हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनाव से दूर था। ऐसा निष्कर्ष निकालना कि दोनों संप्रदायों में तनाव था, अवैज्ञानिक और गलत होगा।

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धार्मिक मेल-जोल

ठोस रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दुओं और मुसलमानों में तनाव के बजाय सहयोग ज्यादा था। यह सहयोग केवल धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित नहीं था। बल्कि संगीत, चित्रकला, स्थापत्य और अन्य ललित कलाओं के क्षेत्र में भी था, इससे हिन्दू और मुसलमानों के बीच एक रचनात्मक संवाद स्थापित हुआ।

काफी मुसलमानों ने रामायण और महाभारत जैसे हिन्दू क्लासिक ग्रंथो का फारसी में अनुवाद किया और इन क्लासिक ग्रंथो की प्रशंसा में अरबी में पद लिखे। रसखान, अब्दुर रहीम खान-ए-खाना इत्यादि हिन्दी के कवि थे। मुसलमानों के आने के बाद भारत में सांंझी कला और संस्कृति की कई मिली-जुली धाराएं बह निकली थी।

यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि भारत में इस्लाम का आगमन केवल मुहंमद-बिन-कासिम के आक्रमण से ही नहीं हुआ बल्कि इस्लाम काफी पहले केरल में व्यापारियों के माध्यम से भारत आया। परंतु लेखको चुनिंंदा नजरिए वाले इतिहास ने कुछ और पेश किया।

इतिहास एक अत्यधिक जटिल प्रक्रिया है और इसमें बहुत-सी धाराएं होती हैं। इसलिए इतिहास के प्रति समग्र दृष्टि अपनानी चाहिए न कि चुनिंदा और एकतरफा दृष्टिकोण!

जो अपनी राजनीतिक जरूरतें पूरी करने के लिए चुनिंदा दृष्टिकोण अपनाते है वह इतिहास से अन्याय करते है। वह उनसे बदला ले रहा है जो किसी भी तरह से इसके प्रति जवाबदेह नहीं है कि उन शासकों ने क्या किया और क्या नहीं किया, जिनका धर्म इस्लाम हैं याने आज के मुसलमान!

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