तहज़ीब और सक़ाफ़त में अमीर ख़ुसरो की खिदमात

मीर ख़ुसरो बहुत सारी खूबियों के मालिक थे और उनकी शख़्सियत बहुत वअसी थी। वो शायर थे, तारीख़दां थे, फ़ौजी जनरल, अदीब, सियासतदां, मौसीक़ीकार, गुलूकार, फलसफ़ी, सूफ़ी और न जाने कितनी शख़्सियात के मालिक थे।

मेरी राय में गुजिश्ता 800 बरस की हिन्दोस्ताँ की तारीख़ में अगर किसी एक शख्स ने ज़ाती तौर पर मुल्क की तहज़ीब, तमद्दुन और सक़ाफ़त को सबसे ज़्यादा मालामाल किया और ज़ीनत बख़्शी, तो बिला शुबहा, उस शख़्सियत का नाम हज़रत अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो है जिन्हें लोग प्यार से अमीर ख़ुसरो देहलवी और तूती-ए-हिंद के नाम से पुकारते हैं।

वो ख़ुद अपने बारे में लिखते हैं: तुर्क़ हिन्दुस्तानियममन हिन्दवी गोयम जबाबयानि मैं तुर्क हिन्दोस्ताँनी हूं और हिन्दी बोलता और जानता हूं।” (दीबाचा गुर्रतुल कमाल) अमीर ख़ुसरो ने इस बर्रेसग़ीर को एक नया और बहुत ही ख़ूबसूरत नाम दिया- हिन्दोस्ताँ, शहरियत दी- हिन्दी और एक बहुत ही ख़ूबसूरत ज़ुबान दी- हिन्दवी जो आगे चल कर हिन्दी और उर्दू ज़ुबान के नाम से मशहूर हुई।

उर्दू के अज़ीम शायर जां निसार अख्तर ने 1970 मैं उर्दू शायरी का एक ज़खीम मजमुआ हिन्दोस्ताँ हमारामुरत्तब किया था। इस किताब की तम्हीद मैं वो लिखते हैं, खड़ी बोली मैं अरबी, फ़ारसी और तुर्की के लफ़्ज़ों की मिलावट का जो सिलसिला शुरू हुआ था और जो अमीर ख़ुसरो के ज़माने मैं रेख़्ता कहलाया, एक नयी हिन्दोस्ताँनी ज़बान को जनम देने मैं कामयाब हुआ जिसे शुरू मैं हिन्दी या हिन्दवी कहा गया और जो बाद मैं उर्दू कहलायी।” (हिन्दोस्ताँ हमारा)

अमीर ख़ुसरो ने इस ज़बान को नया रंग-रूप दिया।एक तरफ़ जहाँ उन्होंने अपनी शायरी मैं फ़ारसी का इस्तेमाल करते हुए लिखा ज़ेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराये नैना बनाये बतियां, सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूं अँधेरी रतियाँ।वहीँ दूसरी जानिब उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा का इस्तेमाल करते हुए लिखा छाप तिलक सब ले ली री मोसे नैना मिलाई केऔर बहुत कठिन है डगर पनघट कीजैसी शायरी क़ी।    

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मौसीक़ी को नया अंदाज़

अमीर ख़ुसरो ने मौसीक़ी को दो ऐसे नायाब तोहफ़े दिए जिन्हें सितार और तबला के नाम से जाना जाता है। उन्होंने फ़ारसी और हिन्दी में शायरी की, ख़याल को तरतीब किया ग़ज़ल, मसनवी, क़ता, रूबाई, दोबैती,और तरक़्क़ीबंद में अपनी शायरी की।

इसके अलावा उन्होंने अनगिनत दोहे, गीत, कहमुकरियां, दो-सुख़ने, पहेलियां, तराना और न जाने क्या क्या लिखा। हज़रत अमीर ख़ुसरो – ‘बाबा-ए-कव्वालीभी कहे जाते हैं जिन्होंने मौसीक़ी के इस सूफ़ी फन को नया अंदाज़ दिया और बर्रेसग़ीर की शायद ही कोई ऐसी दरगाह हो जहां सालाना उर्स के दौरान अमीर ख़ुसरो का कलाम न पढ़ा जाता हो। उर्स के आख़िरी दिन यानि कुल के दिन अमीर ख़ुसरो का रंग तो लाज़िमी तौर पर गाया जाता है।

आज रंग है ऐ मां रंग है री,

मेरे महबूब के घर रंग है री.

सजन मिलावरा, सजन मिलावरा, मोरे आंगन को,

जग उजियारो, जगत उजियारो..

मैं तो ऐसे रंग और नहीं देखी रे,

मोहे पीर पायो निज़ामुद्दीन औलिया

निज़ामुद्दीन औलिया, निज़ामुद्दीन औलिया..

देस बदेस मैं ढूंढ़ फिरी हूं..

तोरा मन भायो निज़ामुद्दीन

ऐसी रंग दे रंग नाही छूटे

धोबिया धोवे, सारी उमरिया..

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी किताब- डिस्कव्हरी ऑफ इंडियामें अमीर ख़ुसरो को बहुत ही खूबसूरतअंदाज़ में ख़िराज़े-तहसीन पेश की है। वो लिखते हैं:

अमीर ख़ुसरो फ़ारसी के अव्वल दर्जे के शायर थे और संस्कृत भी बख़ूबी जानते थे। वो अज़ीम मौसीक़ीकार थे जिन्होंने हिन्दोस्ताँनी मौसीक़ी में कई तज़ुर्बे किए और सितार ईजाद किया। अमीर ख़ुसरो ने मुख़्तलिफ़ मौज़ुआत पर लिखा, ख़ासकर हिन्दोस्ताँ की तारीफ़ में क़सीदे पढ़े।

उन्होंने यहां के मज़ाहिब के बारे में फलसफे और मन्तिक़ के बारे में, अलजबरा के बारे में, साइंस के बारेमें, और फलों के बादशाह आम और ख़रबूज़े के बारे में खूब लिखा।

नेहरू लिखते हैं, हिन्दोस्ताँ मैं उनकी मक़बूलियत का राज आम फहम ज़ुबान में की जानेवाली उनकी शायरी थी। जानबूझकर उन्होंने बड़ी अक़्लमंदी से उस अदबी ज़ुबान का सहारा नहीं लिया जिसको चंद लोग ही जानते थे। वो गांव और देहात में जाकर रहे, वहां के लोगों के तौर तरीक़े और रस्मो रिवाज सीखे। वो हर मौसम में नए तरीके के गीत लिखते, और कदीम हिन्दोस्ताँनी क्लासिकी रिवायतों के तहत हर मौसम की अपनी एक नई धुन नए अल्फ़ाज़ के साथ तैयार करते।

उन्होंने ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ दौर और पहलुओं पर शायरी की जिनमें बेटी का बाप के घर से विदा होना, बहू का घर आना, आशिक़ का माशूक़ से बिछड़ना, और विरह के गीत गाना, बरसात का होना, बहार का मौसम आना, ठंड पड़ना और फिर गर्मी में ज़मीन का सूख जाना।

सैकड़ों बरस पहले लिखे गए अमीर खुसरो के गीत आज भी शुमाली हिन्दोस्ताँ के बहुत से गांवों में गाए जाते हैं। ख़ासकर बरसात के मौसम में बाग़ों में या दरख़्तों पर बड़े बड़े हिंडोले/झूले जाले जाते हैं और गांव की लड़कियां और लड़के एक साथ इकठ्ठा हो कर बरखा ऋतु का जश्न मनाते हैं।

अमीर ख़ुसरो ने बेइंतहा पहेलियां और कहमुकरियां लिखीं जो आज तक लोगों में बेहद मक़बूल हैं और ख़ुसरो को अमर बनाए हुए हैं। पंडित नेहरू लिखते हैं, “मुझे नहीं मालूम ऐसी कोई दूसरी मिसाल जहां 700 बरस पहले लिखे गए गीत आज भी लोगों की याद में महफ़ूज़ हैं और बिना अल्फ़ाज़ बदले अपनी मास अपील बनाए हुए हैं।” (पेज-245.)

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औलिया के मुरीद

अमीर ख़ुसरो की पैदाइश उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के पटियाली गांव में गंगा किनारे सन् 652 हिजरी यानि 1253 ईसवीं को हुई थी। उन के वालिद सैफुद्दीन ख़ुरासान के तुर्क़ क़बीले के सरदार थे। खुसरो 4 बरस की उम्र में देहली आ गए और 8 बरस की उम्र में मशहूर सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीद बन गए।

कहा जाता है 16-17 बरस की उम्र में अमीर खुसरो मशहूर शायर हो चुके थे और देहली के मुशायरों में अपनी धाक जमाने लगे थे।

उसी दौरान दिल्ली के सुल्तान बलबन के भतीजे सुल्तान मुहंमद को एक मुशायरे में अमीर खुसरो की शायरी बहुत पंसद आई और वो उन्हें अपने साथ मुल्तान ले गया और उनसे एक मसनवी लिखवाई जिसमें बीस हजार अशार थे। हज़रत अमीर खुसरो ने शायरी के अलावा नस्र भी लिखी और उनकी किताबों की तादाद 99 से लेकर 199 तक बताई जाती है। (जामी सियरुल औलिया, पेज 301-305 और अमीर राजी नफ़हातुल उन्स, पेज-710 )

ख़िलजी और तुर्क दौर का मशहूर मौअर्रिख़ जियाउद्दीन बरनी लिखता है कि अमीर खुसरो को अलाई दौर काशाही मौअर्रिख भी कहा जा सकता है। जिसने मिफ़ताहुल-फुतूह, ख़जाइनुल फुतूह, किस्सा देवलरानी-खिज़्र खां, नुह सिपेहर और तुग़लकनामा जैसी किताबे लिखी।

अमीर खुसरो के लिखे हुए 5 दीवान बताए जाते है।

1- तोहफ़तुसिगार- इसके दीबाचे में अमीर खुसरो लिखते है कि ये उनका पहला दीवान है जिसे उन्होंने 15 से 19 साल  की उम्र में लिखा।

2- वस्तुल हयात- ये 19 साल से लेकर 34 बरस की उम्र की शायरी है जिसमें सुल्तान मुहंमद और बलबन वगैरह की तारीफ में कसीदें लिखे गए है।

3- गुर्रतुल कमाल- ये दीवान अमीर खुसरो ने अपने भाई अलीउद्दीन ख़ित्तात की ख्वाहिश के मुताबिक लिखा। इसमें सुल्तान जलालुद्दीन की फतेह से मुताल्लिक शायरी की है जिसे मिफ्ताहुल फतूह के नाम से भी जाना जाता है।

4- चौथा दीवान वकी़अ-ए-नकीय़- ये शायरी 715 हिज़री यानि 1315-16 ईस्वी की दौर की है।

5- पांचवा दीवान निहायतुल कमाल है। ये खुसरो के आखिरी दौर की शायरी है जिसमें उन्होंने गजलों के अलावा कुतबुद्दीन मुबारक खिलजी का मार्सिया और कुछ कसीदें भी शामिल किए है।

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वतनी शायरों से मुतासिर 

खुसरो ने कई मनसवियां लिखी। 26 साल की उम्र में उन्होंने पहली मनसवी लिखी। किरानुस्सादैन इसमें देहली की बेहद तारीफ की गई है। इसलिए इसको मसनवी-दर-सिफते-देहलीभी कहते है।

खिज्र खां- देवलरानी – इसको खिज्रनामा और इश्किया भी कहते है। दर असल देवलरानी गुजरात के एक राजा की बेहद खूबसूरत बेटी थी और खिज्र खां जो सुल्तान अलाउद्दीन का बेटा था, वो देवलरानी का आशिक हो गया और उससे शादी कर ली।

खुसरो ने खिज्र खां की जिन्दगी में ही ये मसनवी पूरी कर ली थी। लेकिन बाद में उन्होंने उसकी मौत का हाल और देवलरानी के साथ जो वाकयात पेश आए उन्हें भी इस मसनवी में शामिल किया है।

नूह सिपहर : कुतबुद्दीन मुबारकशाह की ख्वाहिश के मुताबिक खुसरो ने ये मसनवी लिखी। इसमें 9 बाब है औरहर बाब की एक अलग बहर है। इसलिए इसका नाम नुह-सिपहर यानि नौ आसमान रखा गया है।

इस मसनवीकी खास बात ये है कि इसमें तारीख, लिसानियात, हुब्बुल वतनी, भारत और भारतीयों का दूसरे मुमालिक और वहां के शहरियों से मवाज़ना और उनकी फौक़ियत का जिक्र किया गया है। खुसरो ने ये मसनवी 65 साल की उम्र में लिखी।

अमीर खुसरो ने हिन्दोस्ताँनी शायरों खास कर उस वक़्त के फ़ारसी शायरों की बहुत तारीफ़ की है और उनकी शायरी को दुसरे मुल्क़ो की फ़ारसी शायरी से शफ़्फ़ाफ़ और अफज़ल बताया है। ग़ुर्रत्तुल कमाल के दीबाचे मैं अमीर ख़ुसरो लिखते हैं,

हिन्दोस्ताँ के आलिम ख़ुसूसन वो जो देहली मैं मुक़ीम हैं, उन तमाम अहले ज़ौक़ से जो दुनिया मैं कहीं भी पाये जाते हैं फ़न्ने शेर मैं बरतर हैं। अरब, ख़ुरासान, तुर्क वग़ैरा जो हिंदोस्ताँ के इन शहरों मैं आते हैं जो इस्लामी हुकूमत मैं हैं मसलन देहली मुल्तान या लखनौती (बंगाल) अगर सारी उम्र भी यहाँ गुज़ार दें तो भी अपनी ज़बान नहीं बदल सकते और जब शेर कहेंगें तो अपने मुल्क़ के मुहावरे मैं ही कहेंगे।

लेकिन जो अदीब भारत के शहरों मैं पला बढ़ा है ख़ुसूसन देहली मैं,बग़ैर किसी मुल्क़ को देखे या वहां के लोगों से मिले जुले उस मुल्क़ की तर्ज़ मैं लिख सकता है बल्कि उनकी नज़्म व नस्र मैं तसर्रुफ़ कर सकता है और जहाँ भी चला जाये वहां के असलूब के मुताबिक़ बख़ूबी लिख सकता है।

शिकायतनामा मोमिनपुर पटियाली : इस मसनवी में पटियाली की शिकायत और अफ़ग़ानो ने वहां जो ज़ुल्म ढाए उनका तफ़सील से ज़िक्र है।

तुग़लकनामा : इस मसनवी में पहले कुतबुद्दीन का हाल है फिर गयासुद्दीन तुगलक का चढ़ाई करने का हाल और जंग जीत कर गद्दीनशीन होने का हाल बयान किया गया है। खुसरो ने ये मसनवी अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिनों में लिखी थी।

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किताबों की लंबी फेहरिश्त

ख़मसए ख़ुसरो : खुसरो ने ये ख़मसा फ़ारसी शायर निज़ामी के ख़मसे के जवाब में लिखा है। इस ख़मसे में 5 मसनवियां हैं।

1- मतअल-उल-अनवार : ये तसव्वुफ़ के बारे में हैं और इसमें 331 शेर हैं।

2-शींरीं खुसरो : ये सिकंदरनामा का जवाब है। इसमें 4124 शेर हैं।

3- मजनूं- लैला : इस मसनवी में खुसरो ने बेहद दिलचस्प अंदाज़ में लैला मजनूं का किस्सा बयान किया है। इसमें 2660 शेर हैं।

4- आइन-ए-इसकंदरीः

5- खमसए खुसरो की पांचवी और आखिरी मसनवी है हश्त- बहिश्त। इसमें 3382 शेर हैं।

अभी तक अमीर खुसरो की शायरी का ज़िक्र किया गया है अब कुछ बात उनकी नस्र की।

1- रसायले-एजाज़ या एजाज़े-खुसवरी- ये किताब पांच बाब पर मुश्तमिल है जो हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की मनकबत से शुरू होती है और इसमें फारसी असलूब के 9 हिस्सों को लिया गया है। इसमें खास ओ आम से लेकर आलिम फाज़िल सूफीयाए एकराम, मज़दूर, किसान और करखंदारों का ज़िक्र किया गया है। अमीर ख़ुसरो ने इस किताब को अपना बेहतरीन असलूब बताया है।

2- ख़जाएनुल-फतूहः इस किताब में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के दौरे हुकूमत यानि 695 हिजरी से लेकर 711 हिजरी तक के वाकयात का ज़िक्र है और कई जगह इसमें शेर भी कहे गए हैं।

3- अफ़ज़लुलफवायद : इसमें अमीर खुसरो ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की हिकायत और उनके कौल यकजा किए गए हैं।

इसके अलावा अमीर खुसरो कि किताबों की एक लंबी फेहरिश्त है जनमें ख़ालिक बारी, जवाहरुल बहर, मकतूबात-ए-अमीर खुसरो, हालाते कन्हैय्या व कृष्ण, मनाक़िबे हिंद, तारीख़ देहली शहर आशोब, मनाजाते खुसरो, मकाला तारीखुल खुलफा, राहतुल मुहिब्बीन, तराना हिन्दी, मिरातुस्सफा, बहरुल अबर, अस्पनामा या फरसनामा, अहबाले अमीर खुसरो,मजमुआ रूबाइयात, मजमुआ मसनवियात और कुल्लियात शामिल हैं।

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