कई मुस्लिम संत कवियों ने मध्यकाल के मराठी साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण सहय़ोग दिया है। इस बारे में मैंने अपने ‘मुसलमान (सूफी) संतों का मराठी साहित्य’ इस ग्रंथ में विस्तार से चर्चा की है। इस ग्रंथ के संशोधन प्रकल्प के लिए साहित्य अकादमी ने मुझे वरीष्ठ गौरव वृत्ति प्रदान की थी।
मध्यकाल के मराठी साहित्य संत साहित्य में मुंतोजी नामक दो संत कवियों का उल्लेख मिलता है। जिसमें पहले वजीर उल मुल्क मुंतोजी खलजी एक है और दूसरे मुंतोजी ब्राह्मणी उर्फ मृत्युंजय है। मुंतोजी ब्राह्मणी उर्फ मृत्युंजय नें विपुल लेखन किया है।
पर मुंतोजी खलजी का लेखन बहुत ही अल्प है, फिर भी वह महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इनके पहले के मुसलमान (सूफी) मराठी संत कविओं के बारे में अधिक जानकारी मिलती नही। उपलब्ध जानकारी के अनुसार वजीर उल मुल्क मुंतोजी खलजी एक मुसलमान मराठी संत कवि थें ऐसा माना जा सकता हैं। खलजी खुद को वजीर उल मुल्क अर्थात उस प्रदेश के मुख्य प्रधान कहते थे।
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(मराठी के) सुविख्यात इतिहासकार आबासाहेब मुजूमदार ने मुंतोजी खलजी का कार्यकाल ईसवीं सन 1435 से 1450 उल्लिखित किया है। अर्थात सरसरी तौर पर इसे 15वी शताब्दी मान लेने में कोई दिक्कत नहीं। अगर 1435 से 1450 यह कार्यकाल मान लेते हैं तो मुंतोजी खलजी की आयु केवल 15 साल थी और इतने कम कालमर्यादा में वजीर उल मुल्क होना मुमकिन नहीं था।
उसी तरह उन्होंने जिस दो गहन विषय संबंधी अर्थात ज्योतिषशास्त्र और संगीतकला के बारे में अध्ययन किया हैं और इस तरह के ग्रंथो पर गंभीरतापूर्वक भाष्य किया हैं, इससे उपरोक्त तर्क मानने में परस्परविरोध पैदा होता है।
प्रौढ और विद्वान व्यक्तिही इस तरह के ग्रंथ लिख सकते हैं। उम्र के 14 या 15 साल में यह कैसे मुमकिन हो सकता है? मुंतोजी खलजी का जन्मकाल 1435 मान भी लेते हैं। परंतु उनका मृत्युकाल 1450 नहीं हो सकता, ऐसे निष्कर्ष तक हम आते हैं।
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मुकुंदराज का ‘विवेक सिंधु’ यह आद्य मराठी ग्रंथ माना जाता है। उसका लेखन समाप्ति काल ‘शके 11 शते दाहोत्तरु अर्थात 1110 या (सरसरी तौर तर) 12वीं शताब्दी है।
मध्य काल के मराठी संत साहित्य में एक संयोग इस तरह से दिखता है कि मराठी का आद्य ग्रंथ भाषात्मक/आलोचनात्मक/तत्त्वविर्णनात्मक है, परंतु आद्य मुसलमान मराठी संत कवि मुंतोजी खलजी ने भी भाषात्मक/आलोचनात्मक रचना की है। उनके ग्रंथों की पाण्डुलिपिया तंजावर के ‘सरस्वती महल लाइब्रेरी’ इस प्राचीन हस्तलिखित संग्रहालय में उपलब्ध है। (उदाहरण- ज्योतिष विभाग, 2542)।
मुंतोजी खलजी बहामनी राजवंश के संतकवि थे। उनके पिताजी का नाम ‘जीया दौलत खान’ था। इसका उल्लेख उनके ‘संगीत मकरंद’ ग्रंथ के समाप्ति पर आता हैं।
श्रीमन्महाराजाधिराज श्रीसंगीतसहितसिरोमणि
श्रीखलचिवंशवर्णनजीया दौलतखानाचा नंदन।
वजिरुल्मुल्क तेनकृता संगित मकरंदश्चा टीका
मुंतोजी खलजी के गुरु का नाम महेंद्राचार्य था। इसका उल्लेख भी ‘संगीत मकरंद’ इस ग्रंथ के समाप्ती पर आता है।
श्रीसकळविद्याविशारद श्रीमन्महेन्द्रा चार्यचरणंबुजशिष्य।
वजीर उल मुल्क मुंतोजी खलजी इनके चरित्रविषयक जानकारी के आधार पर कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
1) वजीर उल मुल्क जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर असीन रहने वाले ‘इस्लाम धर्मीय’ मुंतोजी खलजी हिंदू धर्म के सकल विद्याविशारद महेंद्राचार्य को गुरु मानते हैं और वह भी वह भी बहामनी कार्यकाल में।
इसी तरह महेंद्राचार्य एक हिंदू अचार्य होते हुए भी इस्लाम धर्मीय मुंतोजी खलजी को अपना शिष्य स्वीकारते हैं और भारतीय विद्या के संदर्भ में उन्हें मार्गदर्शन करते हैं। 15वी शताब्दी के यह घटना सर्वधर्म सदभावना तथा राष्ट्रीय एकात्मता का उदाहरण नहीं है क्या?
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2) भारतीय ज्योतिषशास्त्र और संगीतकला इस तरह कि विद्या मुंतोजी खलजी के काल तक महाराष्ट्र में इतना विकास हुआ था कि उसपर केवल अध्ययन ही नही बल्की मुंतोजी खलजी जैसे इस्लामी सत्ताधारी को उसपर भाष्य लिखने तक कि आत्मीयता लगी।
इतना वह मराठी मिट्टी से एकरूप हुए थे। इस बहुअयामिता को अपनाने में मुंतोजी खलजी जैसे मुसलमान संत कवि के मार्ग में कोई रुकावटें पैदा नहीं हुई, यह घटना भी तत्कालीन महाराष्ट्र के सामाजिक अभिसरण की बेहतर उदाहरण हैं।
मुंतोजी खलजी के ज्योतिषशास्त्रविषयक भाषा ग्रंथों का नाम ‘विजय भैरव’ है और उनके संगीतकलाविषयक आलोचना का नाम ‘संगीत मकरंद’ हैं।
उनके ‘विजय भैरव’ इस ग्रंथ के आधार पर मुंतोजी के समय में शुभ-अशुभ, मुहरत, प्रदोष, शकुन-अपशकुन, ग्रहों के मानवी जीवन पर प्रभाव आदि पर जनमानस कि जो श्रद्धा थी, उसका भी दर्शन होता है। उनके ‘संगीत मकरंद’ ग्रंथ से यह ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में और भक्तिसाहित्य में संगीत के बारे में विशेष अभिरुचि थीं।
अपने इस पहले ग्रंथ निर्मिती कि प्रेरणा का उल्लेख मुंतोजी खलजी ने ‘ज्ञानबोध’ और ‘अज्ञान-निरसन’ इन शब्दों में किया हैं। इस बात से यह स्पष्ट होता हैं कि ज्ञान प्राप्ति करने में धर्म कि कोई मर्यादा नहीं होती और इस बात को प्राचीन मुस्लिम मराठी संत कवि सूचित करते हैं।
जाते जाते :
* ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी – दकन के चिश्ती सूफी संत