एक दिन कवि मलिक मुहंमद जायसी ने ‘पोस्तीनामा’ शीर्षक पद्य की रचना की और उसे सुनाने के लिए अपने गुरु मुहिउद्दीन के पास पहुंचे। उनके गुरुदेव वैद्यों के आदेश एवं अनुरोध पर रोज पोस्त (अफीम) का पानी पीते थे। जायसी की व्यंग्यपूर्ण रचना सुनकर गुरु क्रोधित होकर बोले –
‘अरे निपूते, तुझे ज्ञान नहीं कि तेरा गुरुनिपोस्ती है?’ कहा जाता कि इधर गुरु के मुंह से यह वाक्य निकला और उधर एक व्यक्ति ने जायसी को सूचना दी कि उनके सातों लड़के छत गिर जाने के कारण उसके नीचे दबकर मर गए। वे निपूते हो गए और गुरु’निपोस्ती’ (बिना पुत्र वाले) बन गए। इसके बाद जायसी पूर्ण वैरागी हो गए और फकीर का जीवन जीने लगे।
यदि जीवन विसंगतियों का भंडार है तो कविता जीवन-व्यवस्था का मुधर मंत्र है। पीड़ित मानवता के दग्ध मरूस्थल को अपनी शीतल काव्य-धार से अभिसिंचित करने वाले संतों और भक्त कवियों की वाणी से भारत के इतिहास का कोना-कोना महक रहा है।
निर्गुण भक्ति की प्रेमाश्रयी शाखा के प्रसिद्ध सूफी कवि मलिक मुहंमद जायसी इसी परंपरा के जावल्यमान नक्षत्र हैं। जायसी का जन्म सन् 1492 के आसपास माना जाता है। वे ‘जायस’ (अब का अमेठी जिला) शहर के रहने वाले थे, इसीलिए उनके नाम के साथ मलिक मुहंमद के साथ ‘जायसी’ शब्द जुड़ गया।
उनके पिता का नाम मुमरेज था। बचपन में एक बार जायसी पर शीतला का असाधारण प्रकोप हुआ। बचने की कोई उम्मीद नहीं रही। बालक की यह दशा देखकर मां बड़ी फिक्रमंद हुई। उसने प्रसिद्ध सूफी फकीर शाह मदार की मन्नत मांगी। माता की दुआ सफल हुई। बच्चा बच गया, पर उसकी एक आंख जाती रही।
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भीतरी सौंदर्य से महरूम
विधाता को इतने से ही संतोष नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद उनके एक कान की सुनने की शक्ति भी खत्म हो गई। इसमें शक नहीं कि जायसी का व्यक्तित्व बाहरी रूप से खुबसुरत नहीं था, पर ईश्वर ने उन्हें जो भीतरी सौंदर्य दिया था, वही काव्य के रूप में बाहर प्रकट हुआ।
उनकी बदसुरती के संबंध में एक किंवदंती है कि एक बार वे शेरशाह के दरबार में गए। शेरशाह उनके भद्दे चेहरे को देखकर हंस पड़ा। जायसी ने बेहद शांत आवाज में बादशाह से पूछा, ‘मोहि का हंसेसि कि कोहरहिं?’ अर्थात तू मुझ पर हंस रहा है या उस कुम्हार पर, जिसने मुझे गढ़ा है?
कहा जाता है कि विद्वान जायसी के इन वचनों को सुनकर बादशाह बहुत लज्जित हुआ और उसने क्षमा मांगी। जायसी के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था।
अनाथ बच्चा कुछ दिनों तक अपने नाना शेख अलहदाद के पास मानिकपुर रहा, पर जल्द ही निर्मम विधाता ने उसका यह सहारा भी छीन लिया। बालक एकदम निराश्रित हो गया।
ऐसी हालात में जीवन के प्रति उनके मन में एक गहरा खालीपन भर गया। वह साधुओं के संग रहने लगा और आत्मा-परमात्मा के संबंध में गहरा चिंतन करने लगा। जवान होने पर जायसी की शादी भी हुयी। वे पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह करते रहे, पर ईश्वर भक्ति में कोई कमी नहीं आई।
जायसी का यह नियम था कि जब वे खेत पर होते तो अपना खाना वहीं मंगवा लिया करते थे, पर अकेले खाना नहीं खाते थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक बार उन्होंने कोढ़ी के साथ भी भोजन किया। उनकी भक्ति इतनी गहरी हो गई थी कि जाति-वर्ण, ऊंच-नीच के सारे भेद मिट गए थे।
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रची ऐतिहासिक रचनाएं
जायसी एक भावुक, सहृदय और संवेदनशील भक्त कवि थे। उनके लिखे ग्रंथों में ‘पद्मावत’, ‘अखरावट’ और ‘आखिरी कलाम’ मुख्य हैं। ‘पद्मावत’ एक आध्यात्मिक प्रेमगाथा है। ‘पद्मावत’ की कथा के लिए जायसी ने प्रेममार्गी सूफी कवियों की तरह कोरी कल्पना से काम न लेकर रत्नसेन और पद्मावती (पद्मिनी) की प्रसिद्ध ऐतिहासिक कथा को अपने महाकाव्य का आधार बनाया।
इस प्रेमगाथा में सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती एवं चित्तौड़ के राजा रत्नसेन के प्रणय का वर्णन है। नागमती के विरह-वर्णन में तो जैसे जायसी ने अपना पूरा दर्द स्याही में घोलकर रख दिया है। कथा का दुसरा हिस्सा ऐतिहासिक है, जिसमें चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण एवं पद्मावती के जौहर का जिक्र है।
जायसी ने इस महाकाव्य की रचना दोहा-चौपाइयों में की है। जायसी संस्कृत, अरबी एवं फारसी के जानकार थे, फिर भी उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना ठेठ अवधी भाषा में की। इसी भाषा एवं शैली का प्रयोग बाद में गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने ग्रंथरत्न ‘रामचरित मानस’ में किया।
मलिक मुहंमद जायसी निजामुद्दीन औलिया की शिष्य परंपरा से संबंधित थे। जायसी सभी धर्मों के प्रति बड़े उदार थे। उन्हें अहंकार छू भी नहीं पाया था। जायसी पहुंचे हुए सिद्धपुरुष और चमत्कारी फकीर थे। कई लोग उनके शिष्य थे। उनमें से कई जायसी के अमरग्रंथ ‘पद्मावत’ के कुछ हिस्से गा गाकर फकिरी मांगा करते थे।
एक दिन ऐसा ही एक चेला अमेठी में नागमती का बारहमासा गाता हुआ फिर रहा था। अमेठी नरेश उसको सुनकर मुग्ध हो गए। उन्होंने पूछा, “शाहजी, ये किसके दोहे हैं?” शिष्य ने अपने गुरु जायसी का नाम बताया। राजा जायसी के पास गए और उन्हें आदरपूर्वक अमेठी ले आए। जायसी अपनी मौत तक वहीं रहे।
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शिकारी से हुई हत्या
उनकी मृत्यु के संबंध में एक घटना उल्लेखनीय है। अमेठी नरेश जब जायसी की सेवा में उपस्थित होते थे तो एक शिकारी भी उनके साथ जाता था। जायसी उसका विशेष सत्कार करते थे। जब लोगों ने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि यह मेरा कातिल है।
इस पर सब आश्चर्यचकित हो गए। शिकारी ने कहा कि इस पाप-कर्म को करने से पहले ही मुझे कत्ल कर दिया जाए। राजा ने भी इसे उचित समझा, किंतु जायसी ने शिकारी को बचा लिया। राजा ने सुरक्षा की दृष्टि से घोषणा की कि शिकारी को कोई बंदूक तलवार आदि न दी जाए। परंतु किस्मत का लिखा टाले नहीं टलता।
एक अंधेरी रात में, जब शिकारी राजभवन से अपने गांव जाने लगा तो दारोगा से बोला, “मेरी राह जंगल से होकर जाती है, इसलिए कृपा करके रात भर के लिए मुझे एक बंदूक दे दो। सुबह लौटा दूंगा।”
दारोगा ने इसमें कोई अनबन नहीं की और एक बंदूक शिकारी को दे दी। शिकारी जंगल में होकर जा रहा था कि शेर की आवाज सुनाई दी। उसने आवाज की दिशा में गोली छोड़ दी। आवाज बंद हो गया। शायद शेर मर गया है, यह सोचकर वह बिना रूके आगे बढ़ गया।
उसी समय राजा ने स्वप्न देखा कि कोई उसे कह रहा है, “आप सो रहे हैं और आपके शिकारी ने मलिक साहब को मार डाला।” राजा चौंककर उठे और नंगे पांव जायसी की कुटिया पर पहुंचे।
जायसी का शरीर धरती पर निर्जीव पड़ा था। उनके माथे पर गोली का निशान था। इस दुर्घटना से राजमहल और नगर में शोक छा गया। जायसी की लाश किले से नजदीक दफना दी गई। इस प्रकार सन् 1542 ईसवीं में इस सूफी संत की जीवन योति परम योति में समा गई।
‘पद्मावत’ जैसे महाकाव्य के प्रणेता के रूप में जायसी सदा अमर रहेंगे। उनका भावुक, सुकोमल और प्रेम की पीर से भरा हृदय प्रेम-पंथ के पथिकों को सदा रास्ता दिखाता रहेगा।
(ये आलेख 2009 में देशबंधु में प्रकाशित हुआ था।)
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