कैसे हुआ औरंगाबाद क्षेत्र में सूफ़ीयों का आगमन ?

प्राचीन काल में भारत और अरब देशो का व्यापारिक सबंध रहा है। छठी शताब्दी पर दकन के समंदरी किनारो पर मलबार, नाला सोपारा, चोल, दाभोल आदी क्षेत्र में अरबों की बस्तीयां बस चूकी थी। पैगम्बर मुहंमद रसूल अल्लाह के बाद अरबों में नई उमंगचेतना आयी।

उन्होंने मध्य और पश्चिम एशिया पर अपना अधिकार जमा लिया। जिसके बाद अरबी समुंदरी जहाजे हिन्द महासागर में बिना रोकटोक संचार करने लगे। वह नार्थ ईस्ट एशिया में आते समय मलबार रूका करते थे। मलबार में उनकी संख्या बढ़ती गयी। उन्हें ही मोपला जमात कहते है।

मुहंमद पैगंबर (स) ने अरबों में दिन ए इस्लाम के प्रसार का जोश भरा। जिसके बाद वह घरदार छोडकर इस्लाम के लिए  निकल पडे। कहते है की, पैगम्बर के जमाने में उनके एक अनुयायी दकन में आये थे, जिनका नाम हजरत तमीम अन्सारी है। इनकी मजार कोंकण स्थित रत्नागिरी के करीब है।

इतिहासकार डॉ. टी एन. देवरे कहते है, भारत की पश्चिम सीमा अरबों के ज्ञानी, उलेमा, सूफ़ी, फुरखराओं के लिए खुली थी। वह सुरत, भडोच, दाभोल, ठाणे आदि बंदरों से आते गये। तारिख ए फेरिस्ता में लिखा है कि, अरबों की एक जमात श्रीलका में हजरत आदम अलैसलाम के पदचिन्ह की जियारत के लिए आये थे। इस जमात का अमीर हजरत रऊफ बीन मलिक थे, उन्होंने मलबार के राजा को इस्लाम की दिक्षा दी थी।

दकन में मुसलमानों की खुतननाम की जमात है। वह सब सूफ़ी सईदशहा के मुरीद है। उन्हीं के हात बैत ली थी। इनकी मजार शरीफ त्रिचिन्नापल्ली में है। ऐसे ही दुदुकूल जमात ने सूफ़ी हजरत बाबा फखरुद्दीन के हात पर दीक्षा ली थी। इस सूफ़ी साहब की मजार पेनुकोंडा में है।

यहां स्पष्ट होता है की दकन में इस्लामी हुकूमत से कई साल पहले इस्लाम के प्रसार के लिए फुखरा और सूफ़ी दकन मे फैल चुके थे। सूफ़ी सय्यद नुरूद्दीन तो नौवीं सदी में जालना तालुके में डोणगाव में आकर इस्लाम की दावत देने का काम शुरू किया। यह मिस्र देश के रहनेवाले थे।

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हजरत मोमीन आरिफ बिल्ला

सुहरावर्दी सिलसिले के सूफ़ी हजरत मोमीन आरिफ बिल्ला का आगमन ईसवीं सन 1200 में हुआ है। उस समय देवगिरी पर रामदेवराय यादव राजा था। यह दकन की रियासतो में सबसे बड़ी और ताकदवर सत्ता थी। सूफ़ी साहब ने राजधानी देवगिरी किले के करीब अपनी खानकाह कायम की और दिन ए इस्लाम की दावत देना शुरू किया।

सूफ़ी साहब ने स्थानीय, भाषा, धर्म, संस्कृति को समझा और स्थानीय लोगों से अच्छा बर्ताव किया। फिर उन्हें एक अल्लाह के इबादत की ओर बुलाया। लोग उनके पास जमा होते गये। उनके काम में कोई रूकावट नहीं डाली। यादव राजा ने सूफ़ी के नाम से देवगिरी में मोमीनपूरा बसाया।

सय्यद शहा जलालोहीन गंजे रवा

देवगिरी के करीब सुलीभंजन इलाके मे इन सूफ़ी का आगमन ईसवीं सन 1250 में हुआ है। इन्होंने परियों के तलाब के निकट अपनी खानकाह स्थापन की। इस क्षेत्र में इस्लाम का चिराग रोशन किया। सुहरावर्दी सिलसिले के यह दुसरे सूफ़ी है, जिन्होंने हिन्दू राजाओ के काल में सूफ़ी संप्रदाय को आम लोगों तक पहुंचाया। इसके उपरांत पच्चीस साल बाद अलाउद्दीन खिलजी ने सन 1294 मे देवगिरी पर अचानक आक्रमण किया।

इस हमले से रामचंद्र देवराय को संभलने का मौका नहीं मिला। एस तरह यादव साम्राज्य का अंत हुआ। कुछ ही सालों में दकन की अन्य राज्यों जैसे – होयसळ, पांड्य, चोल, काकतीय, बल्लाळ आदि का भी अंत हुआ। जिसके बाद पूरा दक्षिण भारत दिल्ली सलनत के वर्चस्व में आ गया।

चिश्ती परंपरा का दकन में आगमन

सूफ़ी हजरत निज़ामोद्दीन औलिया देहलवी इन्होंने अपने मजलिस मे दकन में सूफ़ीमत का प्रसार करने का निर्णय लिया। सात सौ सूफ़ीयों की एक पालखी सन – 1300 में सूफ़ी मौलाना शेख मुन्तजीबोहोन जरजरी बक्ष के साथ रवाना किया।

सूफ़ी जरजरी बक्ष देवगिरी दकन की ओर रवाना हुए और आज जहां सूफ़ी को खानकाह है, वहाँ पडाव डाला। सात सौ साल पहले इस इलाके एलोरा में बौद्ध, हिन्दू और जैन धर्म के केंद्र थे। इसके उपर कोहशामक पहाड के दामन में खानकाह बनाई।

यहीं से अपने साथीयों को दकन में इस्लाम और सूफ़ीमत के प्रसार हेतू सूफ़ीयों को रवाना किया। मसलन, पैठण में मौलाना मोईजोद्दीन सूफ़ी, उदगीर में सय्यद सदरोद्दीन, गुलबर्गा में मौलाना मसूद; इसी तरह परभणी, पुना, खानदेश, विदर्भ आदी क्षेत्र में खानकाह के जरिए इस्लाम और सूफ़ी को रोशन किया है।

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बुऱ्हानोद्दीन गरीब असदुल औलिया

सुलतानुल मशायख निज़ामोद्दीन औलिया ने शेख मुन्तजीबोद्दीन इनके मृत्यू के बाद सन 1309 मे उनके बड़े भाई अपने खास खलिफा बुऱ्हानोद्दीन को 1400 सौ सूफ़ीयों के पालखी के साथ रौजा दकन भेजा। सूफ़ीमत के काम में कोई रूकावट नहीं हुई। इन सूफ़ी साहब ने अपने भाई के काम को आगे बढाया।

महाराष्ट्र के कोनेकोने मे पीर और शिष्य को रवाना किया। अब रौजा खुलदाबाद, दकन का इस्लामी और सूफ़ीमत का केंद्र बन चुका था। शेख ने अपनी हयाती में खानकाह में इस्लाम सिखने और सिखाने का काम करते रहे। यही से दकन में सूफ़ीमत का संचान किया है।

शेख ने अपने भाई का उर्स भी मनाया। सेतुमाधव पगडी अपनी किताब सूफ़ी संप्रदायमें लिखते हैं, उर्स के मौके पर दकन के सूफ़ी एक जगह आते हैं और तसव्वूफ में आनेवाली दिक्कते अपने पीर से हल कराते। इस जगह को मोती चौक कहते है। रोज़ा खुलदाबाद में ऐसे चार मोती चौक है।

देवगिरी को राजधानी का स्थान

सुलतान मुहंमद तुगलक ने सल्तनत की राजधानी दिल्ली के बदले दौलताबाद को चुना। शाही फर्मान से दिल्ली के आम और खास को दौलताबाद स्थलांतर होने का आदेश जारी किया। इस दरमियान दिल्ली के आलेम, (विद्वान) उलेमा, पंडित, ज्ञानी, सूफ़ी, फुखरा, कारागीर, मजदूर दौलताबाद आये।

दौलताबाद अब लाहोर के मुकाबले का शहर हो गया था। इसके बाद दकन मे इस्लाम और तसव्वुफ़ तेजी से फैलता गया। इस्लामिक और मुकामी तहजीब में एक नया समाज बना। वा. सी. बेंद्रे अपनी किताब मालोजी राजे आणि शहाजी राजे यांची चिकित्सक चरित्रेमे लिखते हैं, जैसे उत्तर में गंगाजमुनी संस्कृति बनी उसी तरह दक्षिण मे दकनी संस्कृति का निर्माण हुआ। सूफ़ीयों के शिक्षा से दकन का क्षेत्र रोशन हुआ।

दकन में अब इस्लामिक और तस्सवूफ के केंद्र खुलदाबाद, बीजापूर, गुलबर्गा, बिदर, हैदराबाद का नाम आगे आया। चौदहवीं और पंधराहवीं शताब्दी मे चिश्ती सिलसिले की उन्नती हुई। पंधराहवींसोलहवीं शताब्दी में कादरियाऔर नक्षबंदीसिलसिले का आगमन हुआ।

सूफ़ी हजरत गौस ग्वालेरी इनके शिष्यों का खानकाहे महाराष्ट्र में कई जगह है। जिस तरह वर्तमान में बीड जिले में स्थित धारूर के सूफ़ी राज मुहंमद, कादर औलिया, औरंगाबाद में लंगोट बंद अन्सारी सुत्तारी आदि।

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कादरिया सूफ़ी और हिन्दू संत

धारूर के किल्लेदार सूफ़ी राज मुहंमद हजरत गौस ग्वाल्लेरी से बैत है। इनके खलिफा, सूफ़ी शेख चाँद बोधले, इन्होंने अपनी खिलाफत शेख मुहंमद बाबा और संत जर्नादन स्वामी को दी। यहीं बैत इन्होंने औरंगाबाद के समीप पैठण के संत एकनाथ को दी।

एकनाथ वारकरी संप्रदाय के महान संत है। इनके साहित्य में तसव्वूफ की खुशबों आती है। उनकी एकनाथी भागवत और भारूड मे एक अल्लाहईश्वर की इबादत और विश्व की खिदमत की बात कही है। इनके आध्यात्मिक परंपरा के गुरु कादरिया परंपरा के सूफ़ी है।

शेख मुहंमद बाबा

शेख मुहंमद बाबा के पिता राजे मुहंमद सूफ़ी गौस ग्वालेरी के खलिफा थे। गुरु चाँद बोधले कादरिया परंपरा के सूफ़ी थे। इनकी रचनाएं उपलब्ध नहीं है। लेकिन संत शेख मुहंमद बाबा की योगसंग्राम पवनविजय इसमें गहराई से तसव्वूफ की सोच है। एकेश्वर पर जोर दिया है। इनकी मजार श्रीगोंदा में है।

इनका गुमद और खानकाहे को निज़ामशहा के सरदार शहाजी भोसले ने बनवाया है। सूफ़ी को इनामी जमीन दी है। जमीन की सनद चकनामा आज भी मौजूद है। शहाजी भोसले हमेशा सूफ़ी से आशीर्वाद लेते थे और दुआ को तमन्ना रखते थे।

शहा शरीफ और मालोजी भोसले

सुलतान बुऱ्हान निज़ाम शहा के जमाने में सूफ़ी शहा शरीफ का आगमन अहमदनगर में हुआ था। एलोरा का पाटील निज़ामशहा का सरदार मालोजीराजे निःसंतान था। सूफ़ी की शोहरत सून कर उनके पास औलाद की तमन्ना जाहीर की।

अल्लाह ने सूफ़ी की दुआ कबूल की और मालोजी के घर दो बेटो का जन्म हुआ। उनके नाम सूफ़ी के नाम पर रखे गए। यह नाम शहाजी और शरीफजी थे। आगे मालोजी भोसले सूफ़ी के बड़े अनुयायी बन गए।

वा.सी. बेंद्रे लिखते हैं, शहा शरीफ की मृत्यू के बाद, मालोजी ने जाती खर्च से सूफ़ी का गुमद, मस्जिद और खानकाह बनवाई थी। दर्गा के खर्च के लिए निज़ामशहा से दो गांव की इनामी भी दिलवाई। छत्रपति शिवाजी को भी सूफीयों से प्रेम था। वे मोळसी के सूफ़ी शहा याखूब के पास हर दम मशवरे के लिए जाते थे और दुआ की बिनती करते थे।

सूफ़ी संप्रदाय का संतो पर प्रभाव स्पष्ट रूप से महाराष्ट्र में दिखाई देता है। दौलताबाद के संत मानपूरी प्रसाद सूफ़ी शहानुर हमवी के साथ साधना किया करते थे। वह अपना गुरू सूफ़ी शहानूर हमवी को मानते है। इस संबंध में ऐसे कई दोहे उपलब्ध है।

आज भी महाराष्ट्र में कई दर्गाह और खानकाह का प्रबंध हिन्दुओं के पास है। जैसे परभणी के तुराबुल हक दर्गा के मुजावर रेगे पाटील है। उस्मानाबाद के सूफ़ी शमसुद्दीन गाझी हुसैनी इनके उर्स का मानसम्मान देशमुख-पाटील को है। इसी तरह विदर्भखान्देश के कई दर्गाह पर देखा जा सकता है।

सूफ़ीयों ने महाराष्ट्र में पिछड़ी जातिजनजातियों को समाज मे सम्मान से जिने का हक दिया। उन्हें इस्लाम में दाखिल करके बराबरी का अधिकार दिया। सूफ़ीयों ने समाज के सभी स्तर को भाईचारा सिखाने का प्रयास किया है।

महाराष्ट्र मे सूफ़ी और संतो ने एक साथ अपने धर्म के द्वारा सिधा रास्ता दिखाया। लेकिन कहीं कोई तनाज़ा या संघर्ष नही हुआ और इससे गंगाजमुनी संस्कृति को बढ़ावा मिला है।

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