खुसरौ उच्च कोटी के विद्वान और कवि थे। वह सुफ़ी रहस्यवादी थे और दिल्ली वाले निजामुदीन औलिया उन के आध्यात्मिक गुरू थे। उन्होंने तुर्की, पर्शियन और हिन्दवी में काव्य रचना की। उनको कव्वाली के जनक के रुप में जाना जाता है।
अमीर खुसरो की जीवनी का अध्ययन करने वाले कई विषेशज्ञों का मानना है कि, खुसरौ ने अपनी शायरी और संगीत के लिए औपचारिक रुप से, किसी उस्ताद से प्रशिक्षण नही लिया था। प्रारंभिक शिक्षा के लिए उस्ताद तो थे, लेकिन शायरी के लिए उन्होंने किसी उस्ताद का सहारा नही लिया।
इसलिए, उनकी ग़ज़लो और अन्य कलाम पर किसी की छाप नज़र नही आती हैं।हालांकि उनके काल में, दिल्ली में शायरी और संगीत के एक से बढ़कर एक उस्ताद मौजूद थे।
फारसी और तुर्की भाषा में ज़बर्दस्त शायरी हो रही थी। अरबी भाषा का भी अपना विषेश वातावरण था। ऐसी परिस्थितियों में ‘हिन्दवी’ भाषा का भी विकास हो रहा था और खुसरो जैसे विद्वानों का देसी और विदेसी दोनो भाषाओं, याने फारसी, तुर्की और हिन्दवी में भी अपना ग़ज़ब का कमाल दिखाया।
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खुसरौ का एक और कमाल था। वह ग़ज़ल लिखने के साथ साथ उसे गाकर सुनाते भी थे। वह गायक भी थे। अपनी शायरी को गाकर सुनाने के बारे में वह लिखते हैं, ’’एक सुबह शहर (दिल्ली) के कोतवाल ने मेरे उस्ताद को एक ख़त लिख़ने के लिए बुला भेजा। वह दवात और कलमदान लेकर चले, तो मैं भी साथ हो लिया। जब वहां पहुंचा, तो एक गायक वहां कुछ पढ़ रहे थे।
मेरे उस्ताद ने भी मुझे गाने को कहां। उन्होंने वहां मौजूद लोगों से कहा, ‘मेरा यह नन्हा चेला, शायरी के आसमान से तारे तोड़ कर लाता है, इसे भी पढ़ने दीजिए। मैंने एक एक शेर को ऐसे दर्द भरे लहजे में पढ़ा कि सुनने वालों की आंखो में आंसू आ गए।’
खुसरो के वे नौजवानी के दिन थे। उम्र आगे खिसकने लगी, तो शायरी के साथ गायकी भी शबाब पर आने लगी। इतना ही नही, उनके कलाम को दिल्ली के गवैये भी अपनी तानों और राग-रागनियों में ढालने लगे। नतीजा यह हुआ कि खुसरौ की लोकप्रियता बढ़ने लगी और शाही दरबार से लेकर, छोटे बड़े अमीरों और सरदारों की विषेश, निजी महफ़िलों में भी उनकी मांग बढ़ने लगी.
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खुसरौ दिल्ली की संस्कृति औऱ संगीत में अपना विषेश योगदान दे रहे थे। लेकिन यह योगदान क्या था? कैसा था वह संगीत? संपूर्ण भारतीय? संपूर्ण मध्य आशियाई? ईरानी? तुर्की? अरबी? अफ़गानी? जी नही वह संगीत था, वही जिसे आज भी हम आप गंगा जमुनी, मिश्रित संगीत के नाम से जानते हैं।
इस संगीत में अरबी रेगिस्तानों में उठे रेत के बवंडर की आवाज़ थी, तो उज़बकिस्तान, तुर्की और ईरान के बाग बगीचों में चहचहाती हुई बुलबुल की सदा भी थी, उसमें भारतीय नदियों का ’कलकल’ भी था और सुबह सवेरे चहचहाने वाले पक्षियों की आवाज़ भी थी, माताओं की लोरियां थी, तो बिरह की आग में जलती हुई सुहागिनों का दर्द भी था।
वही सब कुछ सदियों से भारतीय संगीत और गायन में गहराई से रच बस गया था और आज भी उसकी तान चारों दिशाओं में गुंजती है। अमीर खुसरौ जैसे महान माटी पुत्रों ने इस गायन-संगीत की ज़बर्दस्त रहनुमाई की थी। संगीत क्षेत्र में, इसी लिए आज भी खुसरों का नाम सम्मान से लिया जाता है।
खुसरौ नें चुंगो-रबाब जैसे वाद्य यंत्रों से प्रभावित हो कर तीन तारों वाला सितार ईजाद किया. उन्होंने सितार के सुरों को भी भारतीय रंग में रंगा. उंगलियों में लगी और सितार को छेड़ने वाली साज़ ‘मिज़राब’ में उन्होंने परिवर्तन लाया. सितार के अलावे ढोल, ढोलकी और ढोलक कहलाने वाला मशहूर भारतीय साज़ भी अमीर खुसरो का एहसानमंद है.
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ढोल, ढोलकी और ढोलकी से पहले हमारे देश में यह पखावज था। खुसरो ने लंबे पखावज को तबला का रुप दिया। तबला, तबल के रुप में मध्य आशियाई देशों में उपयोग किया जाता था. खुसरौ ने न केवल उसे भारतीय रुप दिया, बल्कि उसके कई बोल भी बनाए जो तबलिए, तबला बजाते समय उपयोग में लाते हैं.
अमीर खुसरो को ध्रुपद का अविष्कारक भी कहा जाता है. अब्दुल हलीम जाफ़र खां साहब जैसे मशहूर संगीतज्ज्ञ और दूसरे कई संगीतकारों ने अमीर खुसरो के संगीत, गायन और कई तरह के वादकों (साज़ों) में तो खुसरो के योगदान को खुलकर सराहा है। खेद की बात यह है कि हमारे यहां, देश के अंदर बाहर, छोटी बड़ी संगीत महफ़िलों में अमीर खुसरो जैसे महान संगीत शास्त्री का भूले से भी नाम नही लिया जाता है।
कभी कभार क़व्वालों के मुंह से उनका नाम सुनाई पड़ता है। कहना न होगा, अरबी-फ़ारसी ‘कौल’ को भी अमीर खुसरो ने ऐसा ‘हिन्दियाया’ (हिन्दीकरण) कि आज क़व्वाल तो क़व्वाल, हिंदू भजन-कीर्तन की टोलियां भी क़व्वाली के अंदाज़ में भक्ति गीत गाते हैं।
शायद उन्हें तनिक भी ख़बर नही कि वे जिस गीत को गा रहे हैं, साडे-सात सौ वर्षो पहले अमीर खुसरो नाम के एक महान व्यक्ति ने उसका अविष्कार किया और आज वह अपने महान, गुरू हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मज़ार के क़दमों के पीछे, दिल्ली के ‘निज़ामुद्दीन’ में आराम कर रहे है।
अमीर का मज़ार, उनके गुरु और पीर हज़रत निज़ामुद्दीन के मज़ार के पीछे ही है। दोनों चेले गुरू के मज़ार पर हाज़िरी देते समय स्वाभाविक रुप से दिल भर आता हैं। आंखो के सामने दोनो महान हस्तियों की तस्वीरें और उस काल की दिल्ली का मंजर सामने आ जाता हैं। ऐसा लगता है जैसे अमीर खुसरो सजे धजे घोड़े पर सवार, अपनी पहेलियां भुजवा रहे हैं।
अफ़सोस! भारत के इस महान सपूत के मज़ार पर कोई आम जानकारी भी नही मिलती, जिससे उस महान वतन परस्त हिंदुस्थानी के जीवन की हल्की सी झांकी भी मिले। हम अपने पुरखों को याद करने का और उनकी निशानियों को संभाल कर रखने के दावेदार हैं।
फिर अमीर खुसरो की अवहेलना क्यों? दिल्ली में, जहां एक से बढ़कर एक हस्तियों के नाम पर सड़कें और चौराहें हैं, खुसरो के नाम पर क्यों नही? उनके नाम पर अलग से अकादमी क्यों नही? अलग से कोई इमारत क्यों नही? कोई म्यूज़ियम क्यों नही? उमीद की जानी चाहिए कि अमीर खुसरो पर एक बार फिर राश्ट्रीय अस्त्र पर खोज बीन होगी और उनकी एक राष्ट्रीय यादगार कायम की जाएगी।
जाते जाते :
*दकनी को बड़ा ओहदा दिलाने वाले तीन कुतुबशाही कवि
* दकन के महाकवि सिराज औरंगाबादी
लेखक मुंबई स्थित वरीष्ठ पत्रकार थें। उन्होने भारतीय तथा विदेश की अनेक पत्र पत्रिकाओं के लिए लेखन किया हैं। वे सुधारवादी संघटक के रुप में जाने जाते थे। उन्होने पाकिस्तान और भारत के बीच संवाद सेतू के तह काम किया हैं। मुसलमानों कि समाजरचना और मानसिकता पर उनके काम को काफी सराहा गया था। रेडियो तथा टेलीविजन के विषेश शो का लेखन भी उन्होने किया हैं। जून 2019 में रास्ता दुर्घटना में उनका निधन हुआ।