इब्ने बतूता हा पुरा नाम ‘अबू अब्दुल्लाह मुहंमद इब्न मुहंमद इब्न अब्दुल्लाह इब्न बतूता’ था। जो इतिहास में इब्न बतूता के नाम से जाना जाता है। वह उत्तरी आफ्रिका के मोरोक्को प्रदेश ‘तानजीर’ का निवासी था।
बतूता चौदहवी शताब्दी का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण यात्री था। 14 रजब, 703 हिजरी याने 24 फ़रवरी 1304 में उसका जन्म हुआ। उसने 2 रजब 25 हिजरी अर्थात 14 जून, 1325 को मक्के के लिये प्रस्थान किया। पहले प्रवास के समय उसकी उम्र केवल 21 साल थी। बतूता अरबी मुसलमान यात्रियों में सबसे महान था जिसने पुरी दुनिया कि सैर की थी। एक अनुमान के इस जाँबाज यात्री ने अपने जीवन में लगभग 75 हजार मील की यात्रा की।
माना जाता हैं कि पहले यात्रा के दौरान वह सिर्फ हज यात्रा का इरादा रखता था। पर सफर के रोमांच ने उसे दुनिया भ्रमण करने का हौंसला दिया। इस यात्रा के दौरान वह सिकन्दरिया, काहेरा, दमिश्क तथा मदीने होता हुआ मक्का पहुचा। वहाँ से वह बसरे, इस्फहान, शिराज, गाजरून, कूफा, हिल्ला, करबला, बगदाद, तबरेज, सामरी, तिकरित, मूमल तथा मारिदीन की यात्रा करने बगदाद तथा कूफे होता हुआ मक्का हुँचा।
वह दिन था 10 जिलहिज्जा 727 हिजरी याने 27 अक्तूबर, 1327। इस दौरान उसने हज का तवाफ और परिभ्रमण किया। वह 26 सितंबर 1330 तक मक्का में ही रहा। इस दरमियान उसने पूर्वी अफरीका के कुछ भागो तथा फारस की खाड़ी के कुछ बन्दरगाहों की यात्रा की और हज के समय 15 अगस्त 1331 में फिर को मक्के पहुँच गया।
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हज यात्रा से मिला हौंसला
वहाँ मे चल कर वह जद्द, मिस्र, शाम, त्रिपोली, एशिया माइनर, अनातोलिया, केनिया, माइनोप, किरीमिया, बुलगार, बालगा कुस्तुनतुनिया, समरकंद, त्रिमिज, खुरासान, बलब, हेरात, जाम, मशहद, नौशापूर, विस्ताम होता हुआ 1 मुहर्रम 734 हिजरी (12 सितंबर, 1333) को सिन्ध पहुंचा। वहां से चलकर वह 13 रजब 764 हिजरी (20 मार्च, 1334 को दिल्ली पहुंचा।
दिल्ली में सुल्तान मुहंमद बिन तुघलक ने उसे बहुत सम्मान प्रदान किया और उसने भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग से भेंट की और जहाँ तक संभव हो सका, उमने यहां के सामाजिक ढांचे, रीति रिवाज तथा दरबार को समझने का प्रयत्न किया। पिछले सुल्तानों के विषय में भी उसने विश्वस्त सूत्रों में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न किया। कही कही उसने कुछ भूल भी की है किन्तु फिर भी जो पुछ उसने लिखा है वह बडा ही महत्वपूर्ण है।
सफरनामा लिखने कि प्रेरणा
17 सफर 743 हिजरी अर्थात 22 जुलाई, 1340 को सुल्तान मुहंमद बिन तुघलक ने उसे अपनी ओर से सफीर (दूत) नियुक्त करके चीन भेजा। इस मार्ग में उसे बडे कष्ट भोगने पडे। उसका जहाज नष्ट हो गया। अपनी जान बचाकर अनेक आपत्तियाँ सहता वह कालीकट पहुँचा। ऐसी परिस्थिति समुद्र मार्ग से चीन जाना व्यर्थ समझकर वह भूभाग से यात्रा करने निकल पड़ा और लंका, बंगाल आदि प्रदेशों में घूमता चीन जा पहुँचा। 23 शाबान 750 हिजरी 6 नवंबर, 1348 को वह चीन पहुंचा।
इसके बाद उसने पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका तथा फिर स्पेन की यात्रा की। स्पेन के मुस्लिम स्थानों का भ्रमण किया और अंत में टिंबकट् होता वह 1354 के आरंभ में मोरक्को की राजधानी ‘फेज’ पहुँचा और वहा से तानजिर लौट आया।
वहां के सुल्तान अबू इनमान मरीनी ने उसे विशेष प्रोत्साहन प्रदान किया और जिन-जिन देशों को उसने देखा था, उसका हाल लिखवाने का उसे आदेश दिया। मूल पुस्तिका कि प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए सुंदर रूप से संकलित करने का आदेश दिया।
सुल्तान के आदेशानुसार उसके सचिव मुहंमद इब्न जुज़ैय ने उसे लेखबद्ध किया। उसने अपनी विचित्र तथा आश्चर्यजनक यात्रा का हाल लिखवाया। मुहंमद जुजैय ने बतूता के विचारों को साफ तथा प्रभावशाली भाषा में लिखा।
जुजैय ने बतूता के शब्दो तथा वाक्यो को बिना किसी परिवर्तन के उसी प्रकार रहने दिया। इसका संकलन 756 हिजरी मतलब 1355-1356 में समाप्त हुआ।
एक हस्तलिखित पोथी के अनुसार इस यात्रा का नाम उसका प्रवास वृत्तांत को ‘तुहफ़तअल नज्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार व अजायब अल अफ़सार’ का नाम दिया गया। कहा जाता है कि इसकी एक प्रति पॅरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। इब्न बतूता का बाकी शेष जीवन अपने देश में ही बीता। उसकी मृत्यु 1377 याने 779 हिजरी में हुई।
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भारत का असल चित्रण
भारत यात्रा के दौरान बतूता ने बहुत कुछ लिखा हैं, इब्न बतूता सन् 1333 ईसवी से 1346 ईसवी तक भारतवर्ष में रहा। उसने भारतवर्ष के जो शब्दचित्र रेखांकित हैं वह बहुत विस्तृत और मनोहर हैं। हिंदुस्तान के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन का कमाल का रेखाचित्र बतूता ले लिखा हैं. जिसको आज भी संदर्भ के रूप मे इस्तेमाल किया जाता हैं।
उसने सुल्तान इल्तुतमिश के न्याय व्यवस्था के संबंध में जो कुछ उसने लिखा है वह कही नहीं मिलता। सुल्तान गयासुद्दीन बल्बन द्वारा सुल्तान नसिरुद्दीन की हत्या की पुष्टि एसामी की फुतहुस्सलातीन से भी होती है।
सुल्तान गयासुद्दीन बल्बन के निधन के उपरान्त खुसरौ के विरुद्ध मलेकुल-उमरा के षडयंत्र का हाल बडा ही स्पष्ट है। इस प्रकार इब्ने बतूता ने प्रारंभिक तुर्क सुल्तानो के विषय में जो कुछ लिखा है, वह, यद्यपि दूसरों से सुनकर लिखा है किन्तु बडा ही महत्वपूर्ण है।
मध्यकाल में हिंदुस्तान का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार के बारे उसने जो लिखा उसे डॉ. अब्दुला यूसुफ ने रेखांकित किया हैं. वह कहते हैं, “बतूता के वक्तव्य से समझ में आता है कि भारत और कबचाक (अज़ाफ़ समुद्र के पास) के बीच घोड़ों का व्यापार जोरों पर था। और यह दोनों देशों में आर्थिक संबंध का एक साधन था।
कबचाक देश में एक अच्छा घोड़ा लगभग चार रुपये को मिल जाता था। परंतु भारत में उसका मूल्य एक 100 से 2 हज़ार रुपये तक पड़ जाता था। व्यापारियों के बड़े बड़े समूह जिनमें से हर एक 6-6 हज़ार घोड़े रखते थे गोमल के दर्रे की राह से भारतवर्ष में आते थे और सीमा के पास शहर मुल्तान उनके लिए सबसे बड़ी व्यापारी मंडी थी।”
वहां डाक का बंदोबस्त अच्छा था और अत्यंत दूर तक के स्थानों से राजधानी तक नित्य और शीघ्र समाचार पहुँच जाते थें। सिन्ध के प्रदेश में सिन्धु नदी पर नावों के एक खासे बेड़े का स्थिर प्रबंध था।
सुल्तान मुहंमद शाह तुघलक अपनी राजधानी दिल्ली में बड़ी धूम-धाम से शासन कर रहा था। वह पुरस्कार और पारितोषिक देने में बड़ी उदारता से काम लेता था। उसकी माता ने भी दान का बड़ा विस्तृत प्रबंध कर रखा था और दरिद्रों के लिये सदावत, क्षेत्र और दान की जायदादें नियुक्त कर दी थीं।
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आय की दृष्टि से इस सम्राट की नीति यह थी कि भरसक व्यापारी कर बंद कर दिये जाए और इस तरह व्यापार को प्रोत्साहन दिया जाए। सिन्धु नदी के मुहाने और काठियावाड़ के विस्तृत समुद्र तट के बंदरों के द्वारा और दक्षिण में मलाबार के समुद्र तट के बन्दरों से बहुत विस्तृत परिमाण में सामुद्रिक व्यापार होता था।
उसी समय में खंभायत एक सुंदर और समृद्ध नगर था और हब्शी लोग अपने सामुद्रिक लड़ाइयों की दृष्टि से इस समय भी वैसे ही प्रतिष्ठित थे जैसे उसके पीछे मुगलों के शासन में देख पड़ते थे।
मलाबार के समुद्र तट पर चीनी जहाजों की (जिनको जॅक कहते हैं) आवा-जाही पाई जाती थी। बंगाल में यद्यपि शासन की दशा संतोषजनक न थी, तो भी इस भूभाग में अन्न-धन की बहुतायत थी और सब कुछ सस्ता था। देश में महामारी ने भी डेरे डाल रखे थे।
दुर्भिक्ष के वर्षों में पीतों की सहायता के लिये ठीक ठीक प्रबंध था। सरकारी पदाधिकारी सूचियाँ बनाते थे और नगरों में नियमपूर्वक सहायता पहुँचाने के लिये उन्हें विविध भागों में विभक्त कर दिया जाता था। बूढ़ा हो या बच्चा, स्वतंत्र हो या पराधीन दास, प्रत्येक सहायता योग्य मनुष्य को सरकारी अन्न भण्डार से एक सेर अन्न नियमित दिया जाता था।
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