तुलसीदास भारतीय समाज में दो संस्कृतियों और दो भाषाओं के मेल से बन रहे नए समाज की भाषा के असल प्रतिनिधि कवि हैं। बावजूद इसके कि भक्तियुगीन अनेक संत कवियों ने ईश्वर के सभी उपलब्ध नामों का आदर किया और उनमें समान रूप से परम तत्त्व के दर्शन किए।
अपनी आस्था और धर्म के प्रति अटल होने के बावजूद भक्तिकालीन संत कवियों की भाषा की वे परतें भी खुलने लगती हैं, जिसे प्राय: सधुक्कड़ी कहा जाता है। प्राय: कबीर, सूर, तुलसी और मलूकदास जैसे संत कवियों की भाषा पर इस दृष्टिकोण से बहस नहीं होती कि उनकी भाषा किस तरह अपने आप में तथ्य का पूरा इतिहास प्रस्तुत करती है।
भारतीय समाज में मुसलमानों की संस्कृति, भाषा और शब्दावली आमजन के बोलचाल और जीवनचर्या का हिस्सा बन चुकी थी। कोई भी भाषा धर्म, आस्था और संस्कारों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम होती है। भाषा संस्कृति का एक अंग है।
कबीर और तुलसीदास की भाषा इस बात का प्रमाण है कि अरबी-फारसी के शब्द तत्कालीन ब्रज और अवधी में पूरी तरह मिश्रित हो चुके थे और उन कथित ‘विधर्मी’ शब्दों को आमजन की भाषा से पृथक करना लगभग असंभव था।
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बदलते हुए सांस्कृतिक मूल्य
तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में अवधी, ब्रज और संस्कृत ही नहीं, तुर्की और अरबी-फारसी तक के शब्दों का नि:संकोच प्रयोग किया है। संस्कृत में पांडित्य के बावजूद तुलसी ने काव्य-रचना के लिए संस्कृत के आचार्यों की राह न चुन कर मलिक मुहंमद जायसी की काव्य-परंपरा की अवधी और सूर की काव्य-परंपरा की ब्रजभाषा का चयन किया। यह मुगल काल में बदलते हुए सांस्कृतिक मूल्यों की स्पष्ट स्वीकृति थी।
तुलसी के राम जहां एक ओर ‘रघुपति’ (रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई) हैं, ‘रघुराज’ (तुलसी जाने सुनि समुझि कृपासिंधु रघुराज) और ‘कृपानिधान’ (करि-करि सुरति कृपानिधान की), ‘करुणानिधान’ (अतिसय प्रिय करुणानिधान की) ‘रघुवीर’ (तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक करे रघुवीर) हैं, वहीं वह तुलसीदास के लिए ‘साहेब’ (तुलसी सराहै रीति साहेब सुजान की) हैं, ‘सिरताजु’ (सूर सिरताज, महाराजनि के महाराज) हैं, ‘साहि’ (राम बोला नाम हौं गुलाम राम साहि को) और ‘गरीब नवाज’ (कायर कूर कपूतन की हद तेउ गरीब नवाज नवाजे) हैं।
तुलसी अपने को राम का ‘चाकर’ (हम चाकर रघुवीर के पठ्यौ लिखौ दरबार) और ‘गुलाम’ (लोक कहै राम को गुलाम ही कहावौं) भी कहते हैं। तुलसी अपने राम का स्मरण सिर्फ तत्सम शब्दों में नहीं, अरबी-फारसी के शब्दों में भी करते हैं। क्योंकि उन्हें अपने काव्य में शब्दों की शुद्धता से अधिक उद्देश्य के प्रति समर्पण अधिक प्रिय है।
यह कहना गैर-मुनासिब नहीं होगा कि तुलसी अपनी भाषा, तेवर और भक्ति के तौर-तरीके के कारण रामायण या अध्यात्म रामायण की परंपरा के नहीं, फक्कड़ और मस्तमौला कवि कबीर की परंपरा के कवि हैं, जो भाषा, बिंब-प्रतीक आदि को किसी धर्म की परंपरा में न देख कर, भारतीय संस्कृति की विशाल सांस्कृतिक भावभूमि में प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते हैं।
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राम को कहा सिरताज
कबीर ने अपने ईश्वर को जिन प्रिय शब्दों के साथ सर्वाधिक स्मरण किया है, वह शब्द है ‘साहिब’। उसके बाद उनकी कविता में ‘गरीब नवाज’ शब्द भी मिलता है। ‘सिरताज’ शब्द का प्रयोग तो अनेक संत कवियों ने किया है।
मसलन, मलूकदास ने कहा है- ‘कहै मलूक मेरो प्रान रमइया, तीन लोक ऊपर सिरताज’, वहीं सूरदास ने सूरसागर में इस शब्द का प्रयोग करते हुए लिखा है, ‘सूर स्याम तहां स्याम सबनि कौ दिखियत है सिरताज’।
केशवदास ने भी इस शब्द से परहेज नहीं किया, ‘कोटि रतिराज ब्रजराज सिरताज की सौं’। तुलसी जहां अपने राम को सिरताज कहते हैं, वहीं सूर और केशवदास कृष्ण को सिरताज मानते हैं। शब्द एक, लेकिन प्रयोक्ता और आराध्य अलग-अलग!
भागवत संप्रदाय से संबद्ध काव्य में लगभग सभी स्थानों पर ‘सिरताज’ शब्द का प्रयोग शिरोमणि के अर्थ में हुआ है। सूरदास के काव्य में ‘पतितन सिरताज’ और ‘सबनि कौ सिरताज’ शब्द का प्रयोग तो मिलता ही है, तुलसी की ‘कवितावली’ में ‘सूर-सिरताज’ के रूप में इसका प्रयोग मिलता है।
मध्यकाल से लेकर आज तक इस शब्द का अर्थ क्षरित नहीं हुआ है और आज भी उसी रूप में इस्तेमाल किया जाता है। कृष्ण को पति के रूप में मानने वाली मीरां तक ने इस शब्द का उसी रूप में इस्तेमाल किया है, ‘मैं अबला बल नाहिं गुसार्इं तुमहि मेरे सिरताज’। इसी तरह ‘साहब’ और ‘गरीब नवाज’ शब्द का प्रयोग सिर्फ तुलसीदास ने अपने आराध्य के लिए किया हो, ऐसा नहीं है।
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अरबी-फारसी की शब्दावली
सूरदास ने भी ‘सूरसागर’ में इन दोनों शब्दों का बार-बार प्रयोग किया है। मसलन, ‘पोषन भरन बिसंभर साहब’ और ‘नई न करत कहत प्रभु तुम हौ सदा गरीब नवाज’। सूर की तरह तुलसीदास ने ‘कवितावली’ में ‘गुलाम’ और ‘सरनाम गुलाम’ का प्रयोग किया है, ‘लोक कहै राम को गुलाम ही कहावौं’ और ‘सुभाउ समुझत मन मुदित गुलाम को’।
गुलाम से भी कहीं आगे बढ़ कर तुलसी कहते हैं, ‘तुलसी सरनाम गुलाम है राम को।’ यह बहुत तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता कि तुलसीदास ने सत्ता से प्रभावित होकर अपने राम के लिए तत्कालीन बादशाहों के लिए प्रयुक्त अरबी-फारसी की शब्दावली का इस्तेमाल किया होगा।
मसलन फारसी का एक शब्द है ‘शाह’, जो फकीर और बादशाह दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। ‘गरीबनवाज’ शब्द तो अजमेर के सूफी संत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के लिए-जैसे रूढ़ हो चुका है। तुलसी के काव्य में इस्लामिक आस्था और प्रशासनिक कार्यों से संबद्ध अरबी-फारसी के शब्द भी विपुल संख्या में मौजूद हैं।
‘कवितावली’ और ‘विनयपत्रिका’ में ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। मसलन, ‘राजी’ (कृष्ण कृपालु भगति पथ राजी), ‘रजाइ’ (राम की रजाइ तें रसाइनी समीर सून), ‘दीन’ (जो करता, भरता, हरता, सूर साहेबु दीन-दुनी को), ‘गनिहि’ (गनिहिं गुनिहिं, साहब लहै सेवा समीचीन को)।
‘गरीबी-मिसकीनता’ (लाभ भोग छेम की गरीबी मिसकीनता), ‘करामाति’ (कासी करामाति जोगी जागी मरद की), ‘मनसहि’ (प्रभु मनसहि लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव), ‘जमात’ (बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै), ‘खलक’ (पैअत न छत्री-खोज खोजत खलक मैं), ‘हराम’ (गिरो हिए हहरि-हराम हो हराम हन्यो), ‘रहम’ (राम के बिरोधे बुरो बिधि हरिहरहू को सबको भलो है राजा राम के रहम हीं)।
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इस्लामिक आस्था
‘मसीत’ (मांगि के खइबो मसीत को सोइबो), ‘कहरू’ (डरत हौं देखि कलि काल को कहरू), ‘मुकाम’ (तुलसी जग जानियत नाम ते सोच न कूच मुकाम को), ‘इताति’ (निसि बासर ताकहं भलो मानै राम इताति) और ‘कसम’ (भुजा उठाइ साख संकर करि कसम खाइ तुलसी भनी) जैसे शब्दों का मूल अरबी भाषा में है, लेकिन तुलसी ने अपने काव्य में जिस तरह इन शब्दों का प्रयोग किया है, उसे देख कर भला कौन कह सकता है कि ये विदेशज शब्द (अरबी) हैं?
इस्लाम में ‘दीन-ओ-दुनिया’ जैसे शब्द-युग्म का प्रयोग लोक-परलोक या कहें ‘दुनिया व आखिरत’ के लिए होता है, जबकि जिस सनातन धर्म से तुलसीदास का संबंध है, उस धर्म में ‘यौम-ए-आखिरत’ की कोई अवधारणा नहीं है। तब तुलसी ने अपने काव्य में ‘साहेबु दीन-दूनी को’ कह कर जिस राम को दुनिया व आखिरत का मालिक बताया है, वह क्या इस्लामिक आस्थाओं को बहुत गहराई से जाने बिना संभव है?
इसी प्रकार तुलसी ने जिस ‘हराम’ शब्द का प्रयोग किया है, उस ‘हराम’ और ‘हलाल’ शब्द का सीधा संबंध इस्लामी शरीअत से है। हिंदू धर्म में हराम और हलाल की कोई अवधारणा नहीं है।
अरबी का एक शब्द है ‘जमात’, जिसका प्रयोग तुलसी ने किया है। इस शब्द का एक सामान्य अर्थ होता है झुंड या समूह। आधुनिक काल में आमतौर पर धार्मिक मुसलमानों के लिए ‘जमाअती’ शब्द का प्रयोग होता है। कई बार समय के अनुसार शब्दों के अर्थ बनते-बिगड़ते हैं, क्षरित होते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि तुलसीदास के समय में भी ‘जमाअती’ शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में किया जाता था, जिस अर्थ में आज किया जाता है।
शायद इसीलिए तुलसी ने ‘जमात’ शब्द का प्रयोग योगियों, पिशाचों और प्रेतों के साथ किया है। केशवदास ने भी अपनी काव्य-कृति ‘कविप्रिया’ में इस शब्द का प्रयोग किया है- ‘जम की जमाति सी कि जामवंत को सो दल।’
तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक लोकवृत्त में प्रचलित अरबी-फारसी के शब्द भक्तिकालीन संत कवियों के युग का सामाजिक अध्याय बन कर उनके काव्य में प्रयुक्त हुए हैं और इन शब्दों के सहारे सूर-तुलसी-केशवदासकालीन सामासिक संस्कृति को देखने का एक नया गवाक्ष खुलता है!
*ये आलेख जनसत्ता में प्रकाशित हुआ हैं।
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