दकन में इस्लामी समतावादी विचारधारा का प्रसार करने के लिए 11वी सदी के शुरुआत से ही कुछ सुफी संत यहां आ रहे थे। तेरहवीं सदी तक दकन के लगभग हर बडे शहर में सुफी अध्यत्मिक आंदोलन पहुंच चुका था। खुलताबाद के सुफी अध्यात्म केंद्र का विकास चरम पर पहुंचा।
जिन सुफियों ने खुलताबाद के इस केंद्र से इस्लामी समतावादी आंदोलन के प्रसार का कार्य शुरु किया था, उनमें हजरत आरिफ मोमीन बिल्लाह, राजू कत्ताल, मुंतजीबुद्दीन जरजरी बक्ष, शेख जलालुद्दीन गंजरवा सुहरावर्दी, शेख शरफुद्दीन सुहरावर्दी, शेख बुरहानुद्दीन गरीब और ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी का नाम काबील ए जिक्र है।
इनमें आरिफ मोमीन बिल्लाह, राजू कत्ताल और मुंतजीबुद्दीन जरजरी बक्ष कि मजार औरंगाबाद के निकट खुलताबाद में ही है। शेख शरफुद्दीन कि मजार हैदराबाद में है, जिसे पहाडी शरीफ के नाम से जाना जाता है। और ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी कि दरगाह महाराष्ट्र के उस्मानाबाद शहर में है।
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कुरैश कबिले से थे ख्वाजा शम्सुद्दीन
शहरे उस्मानाबाद के अफसर पाशा जो ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी के इतिहास के अभ्यासक हैं। उनका कहना हैं, ‘‘इस्लाम के आखरी पैगंबर मुहंमद (स) कुरैश कबिले से थें। ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी पैगंबर के पोते हजरत इमाम हसन के वंशज माने जाते हैं। इस्लामी सन 642 हिजरी (ईसवी सन 1244) में ख्वाजा शम्सुद्दीन का जन्म खुरासान (अब का मध्य एशिया) में हुआ।’’
उनके पिता का नाम सय्यद शाह अब्दुल रहमान हुसैनी था। ख्वाजा शम्सुद्दीन के वालिद नें उन्हे घर पर ही उस जमाने की प्राथमिक शिक्षा दी। ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी ने मात्र 11 साल की उम्र में पवित्र ग्रंथ कुरआन को कंठस्थ कर लिया था।
उन्होंने कुछ दिन तक युद्धनीति की भी शिक्षा हासील की। इसके बाद उनके पिता ने उन्हे इस्लामी धर्मशास्त्र, हदिस और कुरआन विश्लेषण की तालीम दी। ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी को घर से ही सुफी विचारधारा विरासत में मिली थी, उनके पिता सुफीपंथ के अनुयायी थें। जिनकी दरगाह खुरासान के शहर धमुन (संभावित इरान) में आज भी मौजूद है।
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तुघलक के दिवान भी रहे
ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी नें अपनी जिंदगी में काफी सफर किया। उन्होंने जॉर्डन, फिलीस्तीन, सिरिया, सौदी अरेबिया, इराक और इरान के दौरे किए। इन देशों कि यात्रा करने के बाद ख्वाजा शम्सुद्दीन ने ईसवी 1276 में हिंद आने का फैसला किया।
अफगानिस्तान, लाहौर, मुल्तान के रास्ते सुलतान गयासुद्दीन के दौर में वह भारत पहुंचे। ख्वाजा शम्सुद्दीन को गयासुद्दीन नें अपने दिवान का ओहदा देकर दरबार में नौकरी पर रख लिया। दस साल तक गयासुद्दीन के दरबार में नौकरी करने के बाद 1296 में उन्होंने निजामुद्दीन औलिया से खिलाफत ली।
उसके बाद दिवान का औहदा छोडकर सुफी विचारधारा को ही अपनी जिंदगी का मक्सद बना लिया। कुछ दिन तक ख्वाजा शम्सुद्दीन नें निजामुद्दीन औलिया के खानकाह में ही सहारा लिया। सय्यद अब्दुल करीम हुसैनी जो निजामुद्दीन औलिया के करीबी दोस्तों में से थे। उनकी बेटी सय्यद खदिजा से ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी का निकाह हुआ।
चिश्ती संप्रदाय का प्रचार
ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी ने शादी के बाद भारत में चिश्ती संप्रदाय कि विचारधारा के आधार पर इस्लाम का प्रचार व प्रसार का कार्य शुरु किया। उन्होंंने कई चिश्ती संतो से मुलाकात की। ख्वाजा करिमुद्दीन समरकंदी, मालवा में हजरत ताजुद्दीन और बुऱहानपुर में हजरत सालार कि मुलाकात का जिक्र उनके इतिहास में मिलता है।
दक्षिण भारत का दौरा करने के बाद ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी वापस दिल्ली लौटे। दिल्ली में वापसी के बाद उन्होने निजामुद्दीन औलिया के मलफुजात (ग्रंथ) पर एक किताब लिखी। दिल्ली में कुछ दिन रहने के बाद ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी दक्षिण भारत कि तरफ वापस आए। कुछ दिन दकन में गुजारने के बाद ख्वाजा शम्सुद्दीन हज यात्रा पर चले गए जहां से ईसवी 1310 में वापस दिल्ली आए।
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उस्मानाबाद में आश्रय
कुछ दिन दिल्ली में गुजारने के बाद निजामुद्दीन औलिया ने उन्हें उस्मानाबाद शहर (दकन) में इस्लाम के प्रचार करने हुक्म दिया। जिसके बाद ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी अपने कुछ शिष्य और मुरीदों के साथ ईसवी 1311 में दिल्ली से दकन कि ओर रवाना हुए।
दकन में आने के बाद कुछ दिन तक वह खुलताबाद के सुफी केंद्र में रहे। जहां कई दिनों तक वे कुरआन के तत्वज्ञान पर प्रवचन करते रहे। खुलताबाद से ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी नलदुर्ग आएं वहां कुछ दिन रुककर अपने जिंदगी का आखरी ठिकाना उस्मानाबाद पहुंचे, जहां वह 18 साल तक रहे। दकन के महान संत बन्दा नवाज गेसू दराज भी उस्मानाबाद में इनके साथ रहे। इसके बाद ईसवी 1330 में ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी का इंतकाल हुआ।
दकन के सुफीयों का इतिहास अधुरा
उस्मानाबाद में ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी कि दरगाह आज हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक मानी जाती है। दकन के इतिहास के अभ्यासक हारुन खाँ शेरवानी के अनुसार ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी की दरगाह बहमनी शासनकाल में बनवाई गई। मुहंमद शाह बहमनी (प्रथम) नें इसका निर्माण करवाया था।
बिजापूर के महान शासक अली आदिलशाह और चांदबिबी भी उस्मानाबाद में शम्सुद्दीन गाजी कि दरगाह पर आया करते थें। खास बात यह है की, खुलताबाद के बाद दकन में बिजापूर सुफीयों का दुसरा केंद्र माना जाता है।
रिचर्ड इटन जैसे ब्रिटिश अभ्यासकों नें बिजापूर के सुफीयों पर बडा शोधकार्य किया हैं। दकन के सुफी संतो के इतिहास पर रिचर्ड इटन कि तरह अगर गंभीरता से संशोधन आगे बढता है, तो इन महान सुफीयों का इतिहास भारतीय समाज के सामने आ सकता है।
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सोलापूर निवासी वाएज दकनी इतिहास के संशोधक माने जाते हैं। उर्दू और फारसी ऐतिहासिक ग्रंथो के अभ्यासक हैं। दकन के मध्यकाल के इतिहास के अध्ययन में वे रूची रखते हैं। उन्होंने हैदराबाद के निजाम संस्थान और महाराष्ट्र के मराठा राजवंश पर शोधकार्य किया हैं। कई विश्वविद्यालयों में उनके शोधनिबंध पढे गए हैं। वे गाजीउद्दीन रिसर्च सेंटर के सदस्य हैं।