उदार और धर्मनिरपेक्ष निज़ाम जब हुए दुष्प्रचार के शिकार !

पंधरा अगस्त 1947 को भारत तमाम संघर्ष के बाद आजाद तो हो गया लेकिन उस वक्त सरकार के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती थी वह 565 छोटी-बड़ी रियासतों के विलय की थी। चूंकि कांग्रेस ने पहले ही ऐलान कर दिया था कि आजादी के बाद इन रियासतों का भारत में विलय कर दिया जाएगा, ऐसे में आजादी के तुरंत बाद इस की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गई।

ज्यादातर रियासतें भारत में विलय को तैयार हो गईं, लेकिन कुछ रियासतें ऐसी थीं जो जिद पर अड़ गईं। इन में कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ का नाम मुख्य तौर पर शामिल हैं। आज हम बात करेंगे हैदराबाद के आखरी निज़ाम मीर उस्मान अली की। जो हैदराबाद आज दिखता है, वह उतना ही नहीं था। हैदराबाद एक रियासत थी।

राज्य पुनर्गठन के दौरान रियासत इस तरह बंट गई कि कुछ जिले तेलंगाना के हो गए तो कुछ कर्नाटक और महाराष्ट्र के। इस रियासत पर करीब 224 सालों तक निज़ामों की हुकूमत रही। इन में पहले थे मीर कमरुद्दीन खान, जो 1724 में हैदराबाद के निज़ाम बनाए गए।

आजादी के वक्त हैदराबाद रियासत की गद्दी पर सातवें निज़ाम मीर उस्मान अली बैठे थे। उन्हें साल 1911 में गद्दी मिली थी। उस्मान अली दुनिया के सब से अमीर लोगों में से एक थे।

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ऐतिहासिक पार्श्वभूमि

उज़्बेकिस्तान के समरकंद में ख्वाजा आबिद सिद्दीकी का जन्म हुआ। 1655 की बात है, जब वह हज करने के लिए गए, तो रास्ते में भारत में मुगल शासकों से मुलाकात हुई। उन्हें भारत में बड़े ओहदे से नवाज़ा गया। उन्होंने हज से लौट कर 1657 में मुगल सेना में अहम ज़िम्मेदारी संभाल ली।

उन से खुश हो कर औरंगज़ेब ने उन्हें बाद में अजमेर का गवर्नर बनाया, लेकिन 1687 के एक युद्ध में उन की मौत हो गई। उनके इस जगह पर उनके बेटे आए, जो पहले से ही मुग़ल सल्तनत पर किसी बडे ओहदे पर थे। उन्हीं ख्वाजा के पोते थे कमरुद्दीन खान आसफजाह, जो औरंजगेब के निधन के बाद नाटकीय ढंग से दकन सुबे के सुभेदार से हैदराबाद के पहले निज़ाम बनाए गए।

निज़ाम बनने का यह सिलसिला मीर उस्मान अली खान आसफजाह सातवें पर आ कर रुका। उस्मान अली खान ने 17 सितंबर 1948 तक राज किया। उस के बाद हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। कैसे हुआ ये अपने आप में एक बड़ी कहानी है। अभी सवाल है आखिर आखरी निज़ाम और उस का कल्चर कैसा था?

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सब से उदार इंसान

आज देश के सब से अमीर शख्स भले ही मुकेश अंबानी हों, लेकिन भारत के अब तक के सब से अमीर शख्स के तौर पर हैदराबाद के आखरी निज़ाम उस्मान अली खान का नाम आता है। ब्रिटिश न्यूज पेपर द इंडिपेंडेन्टकी एक खबर के अनुसार निज़ाम (1886-1967) की कुल जायदाद 236 अरब डॉलर आंकी गई थी, जबकि आज मुकेश अंबानी की संपत्ति 36 अरब डॉलर भी नही है।

हालांकि उन के पास जितना पैसा था, उस से कहीं ज्यादा इनकी आदत में मुफलिसी थी। चर्चित इतिहासकार और लेखक डॉमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब फ्रीडम ऐट मिडनाइटमें लिखते हैं कि 1947 में हैदराबाद के निज़ाम दुनिया के सब से अमीर शख्स माने जाते थे लेकिन इस से कहीं ज्यादा उन की कंजूसी के किस्से चर्चित थे।

अमीर होने के बावजूद निज़ाम ने अपनी ज़िन्दगी में 35 साल तक एक ही टोपी पहनी और वे अपने कपड़े भी कभी प्रेस नहीं करवाए। वे टीन की प्लेट में खाना खाते थे और बहुत ही सस्ती सिगरेट पीते थे। यही नहीं, निज़ाम ने कभी सिगरेट का पूरा पैकेट खरीद कर नहीं पिया। 

निज़ाम अक्सर मैले-कुचैले सूती पायजामे और फटी जूतियों में देखे जाते थे। 35 सालों से वह एक ही तुर्की टोपी पहनते आए थे, जिस में फफूंद लग गई थी और जगह-जगह सिलाई उखड़ गई थी।

इतिहासकार राम गुहा भी इस की तस्दीक करते हुए अपनी चर्चित किताब इंडिया आफ्टर गांधीमें लिखते हैं कि निज़ाम बहुत कम नए कपड़े पहनते थे। अक्सर बिना इस्तरी की हुई कमीज और पाजामे में नजर आते थे। यूं तो निज़ाम के गैराज में तमाम चमचमाती गाड़ियों की कतार लगी थी, लेकिन खुद 1918 मॉडल की एक पुरानी-खटारा कार से चला करते थे।

डॉमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स के मुताबिक निज़ाम के पास इतने सोने के बर्तन थे कि वो एक साथ 200 लोगों को उन बर्तनों में खाना खिला सकते थे, लेकिन खुद चटाई पर बैठ कर टीन की प्लेट में खाना खाते थे। निज़ाम की कंजूसी का आलम यह था कि उन के घर आने वाला मेहमान जब अपनी पी हुई सिगरेट बुझा कर छोड़ जाता तो वो उस के टुकड़े जला कर पीने लगते थे।

निज़ाम अपनी मितव्ययिता के लिए भी मशहूर थे। जाड़े के आगमन पर एक बार उन्होंने अपने सेवक को बाज़ार से 25 रूपए तक के कीमत वाली कंबल लाने का हुक्म दिया। सेवक ने पूरा बाज़ार छान मारा परंतु उसे 25 रूपए का कंबल नहीं मिला।

वो खाली हाथ वापस लौट आया और निज़ाम से कहा कि बाज़ार में सब से सस्ती कंबल 35 रूपए की है। निज़ाम ने नई कंबल खरीदने का इरादा त्याग दिया और पुराने कंबल से ही काम चलाने का इरादा किया। कुछ ही घंटों में उन्हें बीकानेर के महाराज का बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए आर्थिक सहायता देने का निवेदन प्राप्त हुआ जिसे स्वीकारते हुए तत्काल ही उन्होंने एक लाख रूपए की सहायता दी।

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विज़नरी शासक

इतिहास में दर्ज है कि 1948 तक हैदराबाद भारत की धनी रियासत थी। टाइम मैगजीन ने तो 1937 में अपने एक एडिशन के कवर पेज पर निज़ाम मीर उस्मान को छापा था। और उन्हें दुनिया का सब से अमीर आदमी बताया था।

हैदराबाद ने अपने लिए रेलमार्ग, बिजली सप्लाई के लिए थर्मल पावर स्टेशन, टेलीफोन लाइन और एक यूनिवर्सिटी भी तैयार कर ली थी। बाकायदा ट्रांसपोर्ट सिस्टम बना लिया था।

उस समय हैदराबाद रियासत ने निज़ाम के नेतृत्व में अपनी मुद्रा, पानी सप्लाई के लिए पाइपलाइन और अंडरग्राउंड सीवेज सिस्टम के अलावा सीमेंट, ग्लास, शुगर, टेक्सटाइल इंडस्ट्री विकसित कर ली गई थी।

सिंचाई के इंतज़ाम बेहतर थे। शिक्षा मुफ्त थी, जिस में वर्ग, पंथ और रंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था। कई जगह इस बात का जिक्र भी मिलता है कि हैदराबाद के छठे निज़ाम ने सती प्रथा खत्म करने की भी कोशिश की।

इस में कोई दो राय नहीं कि शिक्षा को बढ़ावा देने में निज़ाम बहुत आगे थे। साल 1918 में हैदराबाद में रखी गई उस्मानिया यूनिवर्सिटीकी नींव इस बात का सबूत है। निज़ाम मीर उस्मान ने तो काफी पैसा शिक्षण संस्थानों को दिया। इन में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी भी शामिल है और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी भी।

टाइम्स ऑफ इंडिया से बातचीत में निज़ाम मीर उस्मान के पोते नजफ खान ने बताया था, “पंडित मदन मोहन मालवीय और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने मेरे ग्रैंडफादर से संपर्क किया था और बीएचयू और एएमयू के लिए डोनेशन मांगा। तब निज़ाम ने बीएचयू को एक लाख रुपये दान किए थे, और एएमयू को 50 हज़ार रुपये। ये दिखाता है कि वो जाति और धर्म के परे जा कर सब के लिए काम करते थे।

नजफ ने बताया था, “न सिर्फ बीएचयू और एएमयू, बल्कि देश के बाहर की कई यूनिवर्सिटी को भी उन्होंने दान दिया। वो सेक्युलर थे, इस बात का सबूत ये है कि निज़ाम ने कम से कम 20 मंदिरों की मरम्मत और उन के रखरखाव के लिए दान दिया।

शांति निकेतन, शिवाजी विश्वविद्यालय, लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज, रेड क्रॉस और अमृतसर के गोल्डन टेंपल के लिए भी निज़ाम ने पैसे दिए। डेक्कन क्रॉनिकल की एक रिपोर्ट बताती है कि निज़ाम के शासन में चार धाम यात्रा करने के लिए छह महीने की छुट्टी और एडवांस भुगतान का प्रावधान था।

निज़ाम ने अपने शासनकाल में भोंगीर के यादगार पल्ली मंदिर में 82,825 रुपये, भद्राचलम मंदिर में 29,999 रुपये, बालाजी मंदिर में 8 हज़ार रुपये और सीताराम बाग मंदिर में 50 हज़ार रुपये दान किए।

इतिहासकार डॉ. सैयद दाऊद अशरफ अपनी किताब किताबों के क़द्र शिनास : आसफ-ए-सबीमें लिखते हैं, “भले ही वो इस्लाम के कट्टर फॉलोअर थे, लेकिन उन्होंने दूसरे धर्मों के लिए भी सहिष्णुता दिखाई।वह लिखते हैं कि साल 1932 में पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट को महाभारतके प्रकाशन के लिए पैसे चाहिए थे तो निज़ाम ने देने में देर नहीं लगाई।

कई किताबें और रिसर्च रिपोर्ट बताती हैं कि हैदराबाद के शासकों की दिलचस्पी साहित्य, कला और आर्किटेक्चर में खूब थी। उस्मान अली खान तो उस स्टेट पर राज कर रहे थे, जहां की 85 फीसदी जनता हिन्दू थी। निज़ाम रात-दिन एक ख्वाब बुन रहे थे।

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ऑपरेशन पोलो

निज़ाम यह ख्वाब ले कर ब्रिटिश सरकार के पास भी गए। लॉर्ड माउंटबेटन ने इसे पूरा करने से इनकार कर दिया। बता दे की अंग्रेज सरकार ने विभाजन के पहले यह साफ कर दिया था, की जिन राजाओ को एक रियासत के रूप में भारत से अलग रहना हैं, वह रह सकते हैं। इसी तर्ज पर निज़ाम ने अलग देश के लिए सोच रहे थे। जिस के लिए उनकी सहायता करने के लिए मजलिस ए इत्तेहाद जैसे संघठन के स्वयंसेवक जिन्हे रज़ाकार भी कहा जाता था, वह थे।

रज़ाकारों के इस ग्रुप के कमांडर थे नवाब बहादुर यार जंग। जंग की मौत के बाद जानेमाने वकिल कासिम रिज़वी इस के मुखिया बने। दरअसल कासिम रिज़वी उन रज़ाकारों के लीडर थे, जो अलग मुस्लिम राज्य बनाने के ख्वाब लोगों को दिखा रहे थे। वे भारत मे विलय के खिलाफ थे।

हिन्दू हो या मुसलमान, जो भी उन के खिलाफ बोलता, वो उन का दुश्मन था। सियासत के दम पर वह दौर भी आ गया, जब रज़ाकारों को लग रहा था कि वे एक अलग राज्य बचा लेंगे।

आखिर सरदार पटेल ने सेना की टुकड़ी हैदराबाद में उतार दी। 5 दिन जंग चली। ये ऑपरेशन पोलो था, हैदराबाद को भारत में मिलाने का ऑपरेशन। पोलो इसलिए कहा गया क्योंकि दुनिया में सब से ज़्यादा 17 पोलो मैदान हैदराबाद में थे।

इस ऑपरेशन में बहुत खून खराबा हुआ। 1,373 रज़ाकार मारे गए। हैदराबाद निज़ाम के 807 जवान मारे गए। और 66 जवान भारतीय सेना के भी मारे गए। हैदराबाद के मेजर जनरल सैयद अहमद ने भारत के मेजर जनरल जे. एन. चौधरी के सामने सरेंडर किया, लेकिन जंग पर विराम तभी लगा जब निज़ाम उस्मान अली खान ने हार मानी।

भारत में हैदराबाद का विलय हो गया, लेकिन उस्मान अली खान आसफजाह को हैदराबाद का राज प्रमुख यानी गवर्नर बनाया गया। बचे रज़ाकारों को खदेड़ दिया गया। उन के लीडर कासिम रिज़वी को जेल में डाल दिया गया। रिज़वी जब जेल से निकले और दो दिन बाद पाकिस्तान चले गए।

दिसंबर 1949 में निज़ाम हैदराबाद ने एक दस्तावेज़ जारी किया जिस में कहा गया कि भारत का बनने वाला संविधान ही हैदराबाद का संविधान होगा और फिर 26 जनवरी 1950 को हैदराबाद राज्य नियमित तौर पर भारत का हिस्सा बन गया।

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गुमनामी में हैं वारिस

निज़ाम के पास एक समय भारत सरकार से ज्यादा दौलत थी, लेकिन आज उन का परिवार गुमनामी के अँधेरों में गुम हैं। निज़ाम के वारिस अब गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। निज़ाम ने कई बेटों में से अपने किसी भी बेटे को अपना वारिस नहीं चुना था।

बाद में निज़ाम ने ग्रैंड सन मुकर्रम जहां को अपना वारिस बनाया था। मुकर्रम की मां और पहली पत्नी भी तुर्की की ही रहने वाली थीं। इस समय मुकर्रम जहां तुर्की के शहर इस्तांबुल के एक फ्लैट में रहते हैं। इस से पहले वह ऑस्ट्रेलिया में रहते थे। एक समय ऐसा आया जब मुकर्रम जहां के पास अपने मुकदमे की पैरवी के लिए वकील की फीस भरने के भी पैसे नहीं रहे।

आज बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता हैं कि यह उदार, विज़नरी और धर्मनिरपेक्ष शासक दुष्प्रचार का शिकार हो चूका हैं। इस लेख का मकसद निज़ाम का बचाव करना या बेजा हिमायत करना नहीं बल्की तथ्यों और ऐतिहासिक सच्चाई को ज़माने के सामने लाना था।

ये हमारी बदनसीबी ही हैं कि हमें फिर निज़ाम जैसा उदार, धर्मनिरपेक्ष और विज़नरी शासक नहीं मिला। इतिहास पर नज़र ड़ाले तो हमें पता चलेगा निज़ाम शिक्षा के प्रचार प्रसार में अपने ज़माने में ज़माने से आगे की सोच रखते थे, साथ साथ वो एक दुर्वेश शासक भी थे।

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