इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली मुंबई की बलात्कार की घटना को ले कर इन दिनों महाराष्ट्र में बेहद गुस्से और आक्रोश का माहौल बना हुआ हैं। सोशल मीडिया पर कैंपेन चल रहे हैं, सड़कों पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और सियासत में घमासान मचा हुआ हैं।
दोषी को सज़ा-ए-मौत देने की मांग उठ रही हैं। ऐसे में अगर रेप के आंकड़ों पर नज़र डाले तो तो पता चलता हैं कि कड़े कानूनों के बावजूद रेप की वारदातें कम नहीं हो रही। ये आँकड़े मज़ाक उड़ाते हैं क़ानून का और महिला सुरक्षा को ले कर किये जाने वाले तमाम दावों की पोल भी खोलते हैं।
साल 2012 में दिल्ली के चर्चित निर्भया गैंगरेप मामले के वक्त भी ऐसा ही माहौल था। लाखों की तादाद में लोग सड़कों पर उतर आए थे। इस खौफनाक मामले के बाद ये जनता के आक्रोश का ही नतीजा था कि वर्मा कमीशन की सिफारिश पर तत्कालीन सरकार ने नया एंटी रेप लॉ बनाया था।
इस के लिए आईपीसी और सीआरपीसी में तमाम ज़रूरी बदलाव भी किये गए थे और इस के तहत सख्त से सख्त क़ानून भी बनाए गए। साथ ही रेप को ले कर कई नए कानूनी प्रावधान भी शामील किये गए। पर हाल ही में 13 सितम्बर नागपूर हाईकोर्ट ने इस बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया हैं, “नाबालिग लड़की के साथ सहमति से यौन संबंध (sexual relations) बनाना भी बलात्कार है।”
आरोपी ने बचाव के लिए पीड़िता की सहमति का मुद्दा उठाया था। आरोपी ने दावा किया था कि यह बलात्कार का अपराध साबित नहीं होता है। जबकि अदालत ने इस मुद्दे को यह कह कर खारिज कर दिया की, नाबालिग लड़की द्वारा यौन संबंध बनाने की सहमति का कोई कानूनी महत्व नहीं है।
सख्ती और इतने आक्रोश के बावजूद तथा कड़े कानून से भी भारत में इस तरह की घटनाए थमने का नाम नही ले रही हैं। आँकड़े तो यही बताते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की ओर से जारी किए गए ताजा आंकड़ों के अनुसार, भारत में 2019 में हर दिन बलात्कार के 88 मामले दर्ज किए गए। साल 2019 में देश में बलात्कार के कुल 32,033 मामले दर्ज किए गए।
एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 वर्षों में महिलाओं के बलात्कार का खतरा 44 फीसदी तक बढ़ गया है। आंकड़ों के मुताबिक, 2010 से 2019 के बीच पूरे भारत में कुल 3,13,289 बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं।
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अधिकार समूहों की शिकायत
महिला अधिकार समूहों का कहना है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा को कई बार कम गंभीरता से लिया जाता है और पुलिस मामलों की जांच में संवेदनशीलता की कमी दिखाती है।
राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष ललिता कुमारमंगलम कहती हैं, “देश को अब भी पुरुष चला रहे हैं। केवल एक महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के होने से चीजें नहीं बदल जाएंगी। बहुत सारे जज अब भी पुरुष हैं।”
कुमारमंगलम कहती हैं कि देश में बहुत कम फॉरेंसिक लैब हैं और फास्ट ट्रैक कोर्ट में जजों की संख्या कम हैं। बैंगलुरु स्थित ‘सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च’ ने अपने अध्ययन में पाया था कि फास्ट ट्रैक कोर्ट वास्तव में तेज हैं लेकिन बहुत ज्यादा मामले नहीं संभाल पाते हैं।
वहीं दिल्ली स्थित ‘पार्टनर्स फॉर लॉ इन डेवलपमेंट’ द्वारा 2016 में एक अध्ययन में पाया गया कि फास्ट ट्रैक कोर्ट अभी भी औसतन 8.5 महीने केस निपटाने में लेते हैं जो कि अनुशंसित अवधि से चार गुना से अधिक है।
साल 2018 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर 15 मिनट में एक बलात्कार होता है। देश में बलात्कार के मामलों की संख्या साल दर साल बढ़ती ही जा रही है। इतने भयावह आंकड़ों के बावजूद भारतीय समाज तब तक नहीं जागता जब तक कोई बड़ा हादसा न हो।
1973 में 26 साल की एक नर्स, अरुणा शानबाग का इस बर्बरता के साथ बलात्कार किया गया कि वे चालीस साल तक कोमा में चली गई। साल 2012 में 27 वर्ष की एक डॉक्टर, ज्योति सिंह का इस बेरहमी से सामूहिक बलात्कार किया गया कि उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी। डरा देने वाले ये हादसे वजह बने है भारत के बलात्कार संबंधित कानून में बदलाव के। आइये देखते हैं, कैसे।
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भारतीय दंड संहिता
बलात्कार एक ऐसा कृत्य होता है जो पीड़िता को झकझोर कर रख देता है। इसके जख़्म लंबे समय तक नहीं जाते। बलात्कार के बाद अपराधी की जगह पीड़िता को समाज की घृणा झेलनी पड़ती है। भारत में ‘बलात्कार एक अपराध है,’ यह कानून बना साल 1860 में, जब भारतीय दंड संहिता में धारा 375 को जोड़ा गया।
इस धारा के अनुसार, ‘जब कोई पुरुष किसी महिला के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध, उसकी सहमति के बगैर उससे सम्भोग करता है तो उसे बलात्कार कहते है।’ अगर महिला की सहमति डरा धमका कर ली गयी है तो भी यही माना जाएगा कि महिला का बलात्कार हुआ है।
अगर पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम है तो उसकी सहमति की कोई अहमियत नहीं है। दूसरे शब्दों में, अपराधी अपने बचाव में ये नहीं कह सकता कि जो भी हुआ पीड़िता की सहमति से हुआ। कानून की नज़रों में 18 वर्ष के कम उम्र की लड़की की सहमति का कोई महत्व नहीं है।
दुर्भाग्यवश, अगर पीड़िता शादीशुदा है, उसकी उम्र 15 साल से ऊपर है और ये कृत्य करने वाला उसका अपना पति है तो उस कृत्य को कानूनन बलात्कार नहीं माना जाएगा। इस अपराध की सजा धारा 376 में बतायी गयी है, जिसके अनुसार अपराधी को अधिकतम आजीवन कारावास तक की सजा दी जा सकती है।
बलात्कार के इस कानून में लगभग सौ सालों तक कोई बदलाव नहीं आया। इतने लम्बे समय के बाद बदलाव की वजह बना साल 1972 का मथुरा बलात्कार केस।
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आपराधिक संशोधन अधिनियम
कथित तौर पर, 26 मार्च 1972 को एक आदिवासी युवती, ‘मथुरा’, का महाराष्ट्र के देसाई गंज पुलिस स्टेशन में कुछ पुलिसवालों ने मिलकर बलात्कार किया। इस आधार पर की मथुरा यौन संबंधो की आदी थी, सेशन न्यायालय ने पुलिस वालों को बरी कर दिया।
कोर्ट ने ये फैसला दिया कि पुलिस स्टेशन में जो भी हुआ वो बलात्कार नहीं था। सेशन कोर्ट के इस फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी। न्यायालय ने सेशन कोर्ट के फैसले को पलट दिया। परिणामस्वरूप मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
सुप्रीम कोर्ट ने सेशन कोर्ट के फैसले को सही ठहराया और ये कहा की मथुरा के साथ जो भी हुआ वो बलात्कार नहीं था। इसके पीछे ये तर्क दिया गया कि हादसे के बाद मथुरा के शरीर पर चोट के कोई निशान नहीं मिले। ये अपने आप में साबित करता है कि पुलिस स्टेशन में जो भी हुआ उसमे मथुरा को कोई आपत्ति नहीं थी, बल्कि उसकी भी सहमति थी।
ये फैसला साल 1978 में आया। इस फैसले का पूरे देश में विरोध हुआ और साल 1983 में सरकार ने बलात्कार के कानून में कई बदलाव किए। जैसे कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 में धारा 114A को डाला गया। इसके अनुसार बलात्कार संबंधी मामलों में पीड़िता के बयान को ही सही माना जाएगा। अगर पीड़िता कह रही है कि उसने सहमति नहीं दी तो ये मान लिया जाएगा कि उसने सहमति नहीं दी।
इसके अतिरिक्त, भारतीय दंड संहिता 1860 में धारा 228A को डाला गया। इसके अनुसार पीड़िता की पहचान का खुलासा करना एक अपराध है। यही नहीं, एक और धारा डाली गयी जिसने पीड़िता से उसके चरित्र पर प्रश्न पूछने पर भी रोक लगा दी। साल 1983 के बाद इस कानून में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं हुआ।
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निर्भया के बाद अहम बदलाव
16 दिसंबर 2012 की रात को नई दिल्ली में 23 साल की एक लड़की के साथ चलती बस में 6 लोगों ने रेप किया। इस के बाद पूरे देश में बलात्कार संबंधी कानून को बदलने की मांग एक बार फिर उठी। देशभर की जनता सड़कों पर निकल आयी और ये मांग की बलात्कार जैसे गंभीर अपराध करने वालों को सजा-ए-मौत दी जानी चाहिए। बढ़ते दबाव को देखते हुए, सरकार ने जस्टिस जे. एस. वर्मा समिति का गठन किया।
जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट के आधार पर साल 2013 में कानून में कई बदलाव किये गए। जैसे कि यौन हमले के मामलों में सजा की अवधि को बढ़ा दिया गया। अगर बलात्कार के बाद पीड़िता की मौत हो जाती है या पीड़िता स्थायी तौर पर वेजटेटिव स्टेट में चली जाती है तो अपराधी को मौत की सजा दी जाएगी।
यही नहीं, ऐसे बहुत सारे कृत्य जिनकी वजह से महिलाओं और लड़कियों का मानसिक उत्पीड़न होता है, उन सभी को अपराध के तौर पर पहचाना गया जैसे कि महिला की इच्छा के खिलाफ उसे पोर्नोग्राफी दिखाना, उसका पीछा करना, आदि।
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लेकिन क़ानून काफ़ी नहीं
निस्संदेह, समय के साथ बलात्कार संबंधी कानून में काफी बदलाव आया है। ये बदलाव सराहनीय है। लेकिन समस्या का पूरा निवारण तब होगा जब पीड़िता को कम से कम समय में जल्दी न्याय मिलेगा। जब पीड़िता के अधिकार सिर्फ कानून की किताबों में नहीं रहेंगे बल्कि यथार्थ में भी मिल पाएंगे, जब न्याय सिर्फ बातों में नहीं बल्कि वास्तविकता में भी मिलेगा।
निर्भया केस में आरोपियों को सजा मिलने में सात साल लग गए। ये हाल तो तब था जब ये केस लगातार सुर्ख़ियों में रहा था। बलात्कार के मामलों में आरोपी को सजा मिलने में औसतन 10 से 20 साल लग जाते है। ऐसे में सजा-ए-मौत जैसे कठोर प्रावधानों का क्या कोई औचित्य भी रह जाता है?
पहला सवाल ये है कि कौन बता सकता है कि बलात्कार हुआ है? खुद वो जिसके साथ ऐसा हुआ है? ऐसे में जहाँ किसी की जान लेने और रेप करने दोनों की सजा मौत है और खुद वो ही बता सकती है कि रेप हुआ है तो क्या ऐसे में बलात्कारी द्वारा खुद को बचाने के लिए रेप के बाद हत्या करने की संभावना ज्यादा नहीं बढ़ जाएगी?
क्योंकि दोनों ही अपराधों (रेप या क़त्ल) में सज़ा मौत है और दोनों करने से बचने की संभावना तो नहीं हैं| लेकिन ऐसे प्रावधान हमारी बच्चियों को इंसाफ की बजाय दर्दनाक हत्याओं की ओर ले जाएगा|
हम एक पितृसतात्मक समाज में रहते हैं जहाँ लड़कियों की जगह परिवारों में अभी भी दोयम दर्जे की है। ऐसे में कई शोध रिपोर्ट के अनुसार, करीब 90 से 98 फीसद बलात्कार जान-पहचान और परिवार के लोग करते हैं जिसके चलते ज्यादातर केस दर्ज नहीं किये जाते हैं और जब इसकी सजा मौत होगी तब तो ऐसे केस दर्ज होने और भी कम हो जायेंगें। क्योंकि ऐसे में बात सिर्फ परिवार की इज्जत की नहीं उस सदस्य के जान की भी हो जाएगी।
जैसा कि पहले ही हम बात कर चुके है कि इससे रेप और हत्या में ही इज़ाफ़ा होगा। बल्कि जिन देशों में ये कानून काफी समय से है वहां ये बात साबित हो चुकी है कि रेप तो नहीं रुके पर हत्या बढ़ गयी है और सजा दर कम हो गयी है।
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पुनर्वास होगी बड़ी चुनौती
इस पूरे मामले में ‘पुनर्वास’ एक अहम सवाल है। जब न्याय मिलने के बाद पीड़ित को जल्द से जल्द उबरने और आगे बढ़ने पर ज़ोर देना चाहिए। ऐसे प्रावधानों के बाद क्या ये संभव हो पायेगा?
खासकर ऐसे समाज में जहाँ हम बलात्कारी से ज्यादा पीड़ित को याद रखते हैं और जीवनभर हमारी ऊंगली पीड़ित पर उठती है और अपराधी को मौत की सज़ा मिलना सीधेतौर पर पीड़ित के पुनर्वास को प्रभावित करेगी।
बचपन से हमारी शिक्षा का एक हिस्सा रहता है कि दूसरे का बुरा न करना या बदला लेने की प्रवृत्ति को ना पलना| ऐसे में जब न्याय का मतलब फांसी और मौत होगा तो क्या न्याय पाने वाले के लिए उसका अपराधबोध बेड़ी का काम नहीं करेगा? और उसे न्याय का अहसास कराएगा?
दहेज़ के लिए लड़कियों जला देना, एसिड हमला करना, गर्भ में बच्चियों को मार देना और महिला तस्करी जैसी अनेको हिंसा हमें नहीं दहलाती है। शादी के अंदर होने वाले रेप पर हम कुछ नहीं बोलते। लेकिन जब हम रेप को एक हिंसा की तरह देखने की बजाय इज्जत के रूप में देखते है और ये मानते है कि लड़की की इज्जत लूट गयी।
अब इस ज़िन्दगी से तो मौत अच्छी है। इसलिए हम बलात्कारी के लिए फांसी की सज़ा की मांग करते हैं। लेकिन हमें ये सोचना होगा कि महिलाओं के साथ और भी कई हिंसाएँ होती है जिनका रूप कई मामलों में बलात्कार से भी ज्यादा वीभत्स है।
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कथनी और करनी में फरक
आखिर में आप खुद सोचें कि न्याय की डगर में बलात्कारी को फांसी की सजा आसान है या मुश्किल? हाँ आसान है उनके लिए जो ऐसे अध्यादेश लेकर वाहवाही बटोरना चाहते है क्यूंकि इसमें करना कुछ नहीं है।
न्यायालयों, न्यायाधीशों, जाँच लैब की कमी और असंवेदनशीलता से जूझती न्याय-व्यवस्था की मरम्मत के बिना ये सभी अध्याधेश खोखले नज़र आते है, क्योंकि जब तक आपका अपराध सिद्ध ही नहीं होगा तब तक सज़ा मिलना एक कोरी कल्पना है।
आज एक तरफ न्याय व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए अनेक बदलाव हो रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ अपराधीयों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किये जा रहे हैं मगर हमें अब इस बात पर गौर करना होगा कि इन सब से पितृसत्ता की संकीर्ण मानसिकता कितनी ख़त्म हो रही हैं।
अगर ऐसी फिल्मे, गाने, बयान और उत्पादन को नहीं रोका गया जो रेप कल्चर को बढ़ावा दे रहे हैं तो ऐसी बर्बरता को रोक पाना मुश्किल ही नहीं असंभव हो जाएगा। बलात्कार की ऐसी घटनाएँ एक सभ्य समाज पर कलंक हैं। हमें ऐसी घटनाओं और मानसिकता से निपटने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।
हमें ऐसी घटनाओं के मूल कारण पर विचार कर के उस दिशा में काम करना पड़ेगा। हमें हमारे आदर्श निश्चित करने पड़ेगे। हमें देखना पड़ेगा कि कही हमारी कथनी और करनी में अंतर तो नहीं आ रहा ? हमें उस राजनीति को नकारना होगा जो ऐसी बर्बर घटनाओं को अंजाम देने वाले अपराधीयों की हिमायत में खुल कर सामने आती हैं।
हमें उस प्रचार से बचना होगा जो पीड़िता को एक जाति विशेष या धर्म विशेष तक सिमित करने का प्रयास करता हैं। हमें सुनिश्चित करना होगा कि हमारा भाई या बच्चा ऐसी घटना को अंजाम ना दे। लड़ाई लंबी हैं और समय कम। हमें सुनिश्चित करना होगा की अब हम और किसी सबिया या निर्भया को शिकार नहीं बनने देंगे।
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लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।