दुनिया की तारीख में बेशुमार ऐसे बादशाह गुजरे हैं जिन्होंने अदब कि दुनिया में अपने शाहकार और यादगार छोड़े हैं। लेकिन दकन की सरजमीं पर जितने अदीबों और शायरों ने बादशाह और उमरा के तबके में जन्म लिया इसकी मिसाल दुनिया कि कोई सरजमीं शायद ही पेश कर सकेगी।
गोलकुंडा के हुक्मरानों की अदबनवाजीयां तमाम आलम पर जाहीर हैं। आसिफी हुक्मरान ने भी उर्दू अदब और शायरी की न सिर्फ सरपरस्ती कि बल्की खुद भी अपने तखय्युल और खयाल के गुलबुटे खिलाए।
आसिफजाही हुक्मरान के दरबारी उमरा अगर दरबारी बादशाहों से आगे न थे तो पिछे भी नहीं थे। आसिफजाही हुक्मरानों के अनगिनत नामों में उर्दू कि खिदमत के सिलसिले में महाराजा चंदूलाल शादां का नाम नुमायां नजर आता है। महाराजा सर किशन प्रसाद इसी खानदान के चश्म व चिराग थे।
महाराजा किशन प्रसाद 1281 हिजरी (ईसवीं 1864) में पैदा हुए अपनी खुदनौश (आत्मकथा) में वह लिखते हैं की, इनके नाना नरेंद्रनाथ बहादूर को इनकी तालीम व तरबीयत का शदीद अहसास था चुनांचे इन्होंने उस जमाने के बेहतरीन उल्माओं को महाराजा के तालीम के लिए मुकर्रर किया।
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महाराजा ने फारसी मिर्झा अलीबाबा शिराजी से, अरबी सय्यद खलील साहब से, अंग्रेजी नरसिंहा चारी से और संस्कृत दुर्गाप्रसाद से सिखी। खत्ताती का इल्म इन्होंने बिज्जुलाल तमकीन से सिखा था, जो एक अच्छे शायर भी थे।
किशन प्रसाद को शायरी का शौक बचपन ही से था। खुदनौश में इन्होंने खुद लिखा है की, शुरुआत में इन्होंने खत्ताती सिखने के बहाने बिज्जुलाल तमकीन से खुफीया तौर पर मशवरा सुख्न किया और कुछ अरसे के बाद तमकीन से बाजअफ्ता इस्लाह लेने लगे।
तमकीन के इंतकाल के बाद शाद (महाराजा किशन प्रसाद) ने अपना कलाम मीर अब्दुल अली वाला और मुहंमद मुजफ्फरुद्दीन को दिखलाया।
निजाम मीर महिबूब अली खान (छठे) ने जब दाग दहेलवी को अपना उस्ताद बनाया तो शाद ने दाग दहेलवी को भी अपना कलाम दिखाने में फख्र महसूस किया। एक मौके पर अपनी एक गजल शाद ने मीर महिबूब अली खान की खिदमत में पेश की।
जिसपर आला हजरत ने हस्ब ए जरुरत इस्लाह फरमाई और इसी के बाद से किशन प्रसाद खुद को तिल्मिज ए आसिफ कहने लगे। शाद ने शायरी के हर सिम्त में तबाआजमाई की है। शाद ने हम्द व मनाजात पर मुश्तमिल अपना मजमुआ मनाजात भी शाया किया है इसी के दो शेर मुलाहिजा हो –
तेरी जात एक है या खुदा तेरी शान जलजलाला
नहीं तुझसा कोई भी दुसरा तेरी शान जलजलाला।
तू करीम भी तू रहीम भी तू अजीज भी तो तू मोईन भी है
तेरे नाम पे दिल व जां फिदा तेरी शान जलजलाला।
शाद को पैगम्बरे इस्लाम से भी काफी मोहब्बत थी। अपनी मोहब्बत और दिली अहसासात को इन्होंने खम खद ए रहमत में शाया किया है। शाद के ‘इश्क ए मुस्तफा’ के बारे में लिखते हैं, ‘शाद का सिना नूर ए मुहंमदी से रौशन है। बदमस्ती व खुद फरामोशी का यह आलम है की इनको दुनिया से कुछ खबर नहीं है।’ उनकी एक रुबाई मुलाहिजा हो-
हैं अहमद बे मीम का दरबार ए मुकद्दस
जो अर्श ए खुदा है वह है ऐवान ए मदिना।
खाक रह यसरीब को बनाउंगा मैं सुरमा
देखूंगा इन आँखो से जो मैदान ए मदिना।
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महाराजा किशन प्रसाद ने जैसा कि उपर लिखा गया है की, शायरी कि हर सिम्त में तबाअ आजमाई है लेकीन इनकी चाहत दर असल गजल थी। शाद को मसायल ए तसव्वूफ का चस्का था। इसी वजह से उन्होंने अपनी गजलों में तसव्वूफ के मजामीन बांधे हैं।
ग़ालीब ने कहा था ‘सद जलवा रुबरू है जो मसगाह उठाईए।’ इसी मजमून को अपने अंदाज में शाद ने यूं बयान किया है–
कौन है गुल में गुल क्या है
बाग में जाके तू ने क्या देखा?
इसके जलवे का हाल क्या कहीए
जो सुना उससे भी सिवा देखा।
शाद पैदायशी हिंदू थे। अपने मजहब के बारे में वह फरमाते हैं।
मैं हूं हिंदू मैं हूं मुसलमान
हर मजहब है मेरा इमान।
शाद का मजहब शाद ही जाने
आज़ादी आज़ाद ही जाने।
दरअसल तसव्वूफ ने शाद को बदल कर रख दिया था। बुजुर्गाने दीन से अकिदत और फकिरों के अहतराम ने इन्हें इन्सानों दोस्ती की तरफ माईल कर दिया था। शाद अपनी गजल में अपनी इन्सान दोस्ती के मुतालिक कहते हैं।
देर व काबा में गए और कभी बुतखाने में
कभी पाबंद रहे शाद और आजाद कभी।
निचे कुफ्र व इस्लाम के झगडों से मुब्रा है शाद
यह गिरफ्तार तेरा है सबसे अय्यार ए जुदा।
कुफ्र छोडा पिके मय तौहीद की
रंग ए शाद अब आशिकाना हो गया।
(यह लेख पाकिस्तान के ‘सबरस मैगजिन’ के मई 1991 में लिखा था।)
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