मौलाना अबुल कलाम आज़ाद इस्लाम धर्म के अज़ीम आलिम, देशभक्ती, सांप्रदायिक सद्भाव के लिए जज़्बा रखने वाले एक अद्वितीय शख्सियत थे। लेकिन, ये बहुत अफसोसनाक है कि उनकी खिदमात को तकरीबन भुला दिया गया है। स्कूल या कॉलेज जाने वाली नई पीढ़ी के छात्रों में से मुझे लगता है कि एक फीसद भी शायद ही उनके बारे में और उनकी उपलब्धियों के बारे में जानते होंगे।
(पूर्व) राज्यसभा सदस्य प्रो. भालचंद्र मुंगेकर ने एक बैठक में एक प्रस्ताव रखा था, जिसमें उन्होंने कहा कि अम्बेडकर की तरह मौ. आज़ाद पर भी कॉलेज के टीचरों के लिए समर स्कूल चलाया जाना चाहिए जिससे वो भी आज़ाद के व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियों से परिचित हो सकें।
वास्तव में इस तरह के समर स्कूल मौलाना आज़ाद, खान अब्दुल गफ़्फार खान और अन्य नेताओं के लिए स्थापित किए जाने अभी बाकी हैं और विशेष रूप से आज़ाद के बारे में जिनका देश के लिए और उसकी स्वतंत्रता के लिए बलिदान किसी से कम नहीं हैं।
11 नवंबर, 2011 को आज़ाद का जन्मदिन था और इस साल भारत सरकार ने भी उनको याद किया और सभी स्कूलों को मौलाना के जन्मदिन के जश्न को मनाने के लिए कहा गया था क्योंकि यह एजुकेशन डे भी होता है। लेकिन दीवाली की छुट्टियों की वजह से छात्र अपने आबाई इलाकों से स्कूल वापस नहीं आए थे इसलिए जन्मदिन का जश्न कुछ खास नहीं रहा।
मौलाना कलकत्ता (अब कोलकाता) के मौलाना खैरुद्दीन के पुत्र थे जो शहर के सबसे काबिले एहतेराम आलिम थे और जिनके हजारों शागिर्द थे। उनकी शादी मक्का की एक खातून के साथ हुई थी। मौ. खैरुद्दीन के मक्का में रहने के दौरान ही अबुल कलाम आज़ाद का जन्म हुआ।
इस तरह अरबी आपकी मातृभाषा थी और मौलाना को इस पर महारत हासिल थी। मौलाना की परवरिश रूढ़िवादी पारंपरिक इस्लामी वातावरण में हुई थी और आप के पिता चाहते थे कि आप भी उनके नक्शेकदम पर चलें। यदि प्रस्ताव को मौलाना ने कुबूल किया होता तो उनके भी हजारों शागिर्द होते और अपने पिता की ही तरह बहुत बाअसर (प्रभावशाली) होते।
लेकिन मौलाना सर सैय्यद अहमद खान के प्रभाव में आए और उनके लेखन को बहुत रुचि के साथ पढ़ा। लेकिन वो आज़ाद ज़हेन के मालिक थे और ब्रिटिश शासन से वफादारी पर सर सैय्यद के ज़ोर देने से जल्द ही अपने आपको दूर कर लिया, लेकिन वह आधुनिकता और आधुनिक शिक्षा के बारे में उनके विचारों को स्वीकार करते थे।
मौलाना भावनात्मक रूप से भारतीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध थे और बंगाल में भूमिगत (अंडर ग्राउंड) आंदोलन में शामिल होने की कोशिश की लेकिन दुर्भाग्य से भूमिगत नेताओं ने सोचा कि मुसलमान इस आंदोलन में शामिल होने के योग्य नहीं हैं।
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आज़ादी दिलाना समझा फर्ज़
मौलाना के लिए देशभक्ति इस्लामी फरीज़ा (दायित्व) था क्योंकि पैगम्बर मुहंमद (स) कि एक रिवायत है, किसी का अपने देश से प्यार करना उसके ईमान (Faith) का हिस्सा है। और देश से इस प्यार ने विदेशी गुलामी से आज़ादी की मांग की और इस तरह अपने देश को ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद कराने को अपना फर्ज़ समझा।
इस तरह वह बहुत छोटी उम्र से ही स्वाधीनता आंदोलन में शामिल हो गए। मौलाना बहुत कम उम्र में कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए, शायद वह कांग्रेस पार्टी के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष थे।
गांधी जी की तरह मौलाना का मानना था कि देश की आज़ादी के लिए हिन्दू मुस्लिम एकता जरूरी है। इस तरह जब वह कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में पार्टी के अध्यक्ष बन गए, तब उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण को इन शब्दों के साथ खत्म किया,
“चाहे जन्नत से एक फरिश्ता अल्लाह की तरफ़ से हिन्दोस्तान की आज़ादी का तोहफा लेकर आए, मैं उसे तब तक कुबूल नहीं करूंगा, जब तक कि हिन्दू मुस्लिम एकता कायम न हो जाए, क्योंकि हिन्दोस्तान की आज़ादी का नुकसान हिन्दोस्तान का नुकसान है जबकि हिन्दू मुस्लिम एकता को नुकसान पूरी मानवता का नुकसान होगा।”
ये बहुत अर्थपूर्ण शब्द हैं और मौलाना के लिए सिर्फ बयानबाजी नहीं थी लेकिन यह कुरआन की तफहीम की बुनियाद पर उनकी गहरी समझ थी। बीसवीं सदी की शुरूआत में मौलाना ने रांची में कैद के दौरान कुरआन की जो तफसीर लिखी उसे भारतीय उपमहाद्वीप से तफसीर अदब (Tafsir literature) में महान योगदान माना जाता है।
मौलाना ने अपनी तफसीर की पहला खंड (first volume) (मौलाना अपनी बहुत ज़्यादा सियासी व्यस्तता के कारण उसे पूरा नहीं कर सके उन्हें उसे पुनः लिखना पड़ा क्योंकि ब्रिटिश पुलिस ने उनके पहले के मसौदों को तबाह कर दिया था) ‘वहदते दीन’ (Unity of religion) को समर्पित किया था।
मौलाना को विश्वास था, जैसा कि हम सभी धर्मों की एकता के बारे में उनकी तफसीर में पाते हैं और अपनी तफसीर में इस तसव्वुर को बढ़ाने में अपनी इल्मी उपलब्धियों का प्रदर्शन किया है और इसलिए हिन्दू मुस्लिम एकता के बारे में उनके विचार केवल राजनीतिक बयानबाज़ी नहीं थे, और अवसरवाद तो बिल्कुल भी नहीं, लेकिन एक गहरा धार्मिक विश्वास अवश्य था।
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सुलझे हुए राजनीतिज्ञ
मौलाना एक महान राजनीतिज्ञ थे और इसके बावजूद वो खिलाफत आंदोलन के समर्थक थे। मौलाना उसे अस्वीकार करने वालों में सबसे पहले थे, जब कमाल पाशा ने तुर्की में विद्रोह किया और खिलाफ़त को सत्ता से बेदखल कर दिया और खिलाफ़त की संस्था को आऊटडेटेड बताया था।
मौलाना ने अता तुर्क के आधुनिक सुधारों का स्वागत किया था और मुसलमानों को खिलाफ़त के इदारे की सुरक्षा के प्रयासों को छोड़ देने का सुझाव दिया था जिसे तुर्की के नेताओं ने खुद त्याग कर दिया था।
जब नेहरू समिति की रिपोर्ट 1928 के कांग्रेस अधिवेशन में विचार के लिए आई तब मौलाना ने संसद में मुसलमानों के लिए एक तिहाई प्रतिनिधित्व की जिन्ना की मांग का विरोध किया था।
आज़ाद की दलील थी कि लोकतंत्र में किसी समुदाय को बहुत अधिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा सकता है और जहां तक अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संबंध है तो संविधान विशेष कानूनों के द्वारा उनका खयाल रख सकता है। जैसा भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 25 से 30 के द्वारा किया है। आज़ाद हमेशा दीर्घकालीन दृष्टिकोण के साथ रहे और कभी भी सस्ती लोकप्रियता के लिए अमल नहीं किया।
मौलाना आज़ाद 1937 में उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग को दो कैबिनेट पद देने से इंकार करने के जवाहरलाल नेहरू के फैसले से सहमत नहीं थे। इन चुनावों में मुस्लिम लीग को भारी विफलता हाथ लगी थी। आज़ाद ने नेहरू को सलाह दी कि वह मुस्लिम लीग के द्वारा नामित दो मंत्रियों को सरकार में शामिल कर लें क्योंकि इससे इंकार का दूरगामी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगें और इस मामले में मौलाना सही साबित हुए।
जिन्ना इस पर नाराज़ हो गए और कांग्रेस सरकार को ‘हिन्दू सरकार’ कह कर निंदा करनी शुरू कर दी, और कहा कि जिसमें मुसलमानों को कभी न्याय नहीं मिलेगा।
अगर नेहरू ने मौलाना के मश्विरे को स्वीकार कर लिया होता तो शायद देश को विभाजित होने से बचाया जा सकता था, लेकिन मुस्लिम लीग को मंत्रिमंडल में दो पद देने से इंकार करने के नेहरू के अपने ही कारण थे क्योंकि वह खुद चाहते थे कि कांग्रेस मुसलमानों को अधिक प्रतिनिधित्व दे।
लेकिन मौलाना ने अमली सियासत के आधार पर उस पर दूसरी तरह से विचार किया। आज़ाद हमेशा भविष्य के परिणामों और न कि सिर्फ त्वरित परिणाम के बारे में सोचा करते थे।
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लैंगिक समानता के पक्षधर
नेहरू और आज़ाद केवल अच्छे दोस्त ही नहीं थे बल्कि एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। नेहरू ने कई भाषाओं पर मौलाना की महारत हासिल करने और उनकी इल्मी सलाहियत पर शानदार खिराजे तहसीन पेश की है।
दूसरे धर्मों के बारे में भी मौलाना का इल्म बहुत गहन था। महिलाओं के अधिकारों के बारे में मौलाना के संकल्प आज के ही जैसे थे। ये सभी जानते हैं कि फुकहा लैंगिक समानता का समर्थन नहीं करते हैं और महिलाओं को आमतौर पर घर की चार दीवार तक ही सीमित रखना चाहते हैं लेकिन मौलाना इस विचार में अपवाद थे।
मौलाना ने मिस्र में अरबी भाषा में प्रकाशित किताब ‘अल् मीरात अल-मुस्लिमाह’ (The Muslim Woman which stands for gender equality and summarises) का अनुवाद किया, जिसके अर्थ ऐसी मुस्लिम महिलाओं से है जो लैंगिक समानता के लिए संघर्ष करें।
मौलाना ने मिस्र में महिलाओं के अधिकार पर जारी बहस का सारांश पेश किया और मौलाना ने किताब का अनुवाद इसलिए किया की वह लैंगिक समानता के पक्षधर थे। यह बात ध्यान देने योग्य है कि मौलाना ने आयत 2:228 पर तब्सेरा (टिप्पणी) किया कि, ये लैंगिक समानता पर 1300 साल से भी ज़्यादा पहले क्रांतिकारी घोषणा है। (मौलाना 1920 में लिख रहे थे)
मौलाना के अलावा भारतीय महाद्वीप के अन्य दो प्रमुख धार्मिक व्यक्ति जिन्होंने लैंगिक समानता का समर्थन किया उनमें मौलवी मुमताज़ अली ख़ान जो सर सैय्यद अहमद खान के साथी थे और मौ. उमर अहमद उस्मानी थे जिनका कराची में निधन हुआ था।
दोनों प्रमुख धार्मिक व्यक्ति थे और दोनों लैंगिक समानता के मामले में गैर समझौतावादी रवैय्या रखते थे। मौलवी मुमताज़ अली ख़ान ने Huquq al-Niswan (महिलाओं के अधिकार) पर एक किताब लिखी है और मौलाना उमर अहमद उस्मानी ने फ़िक़्ह कुरआन को 8 खंडो में लिखा है जिसमें कुरआन में आये लैंगिक समानता पर दलीलों को स्पष्ट किया है।
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पाकिस्तान के बारे भविष्यवाणी
मौलाना ने आज पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा है उसकी भी स्पष्ट रूप से भविष्यवाणी की थी। सबसे पहले, ये ध्यान देने योग्य है कि हिन्दू मुस्लिम एकता के बारे में उनके विश्वास की तरह, यह भी मौलाना का विश्वास था कि धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन गलत होगा। जो अपने देश से प्यार करता है वो कभी उसका बंटवारा नहीं कर सकता है।
इसके अलावा, वो यो भी जानते थे कि जब लोकतंत्र सक्रिय होना शुरु होता है तो उसे अल्पसंख्यकों के अधिकारों का ध्यान रखना चाहिए और मुसलमान किसी तरह अल्पसंख्यक नहीं रहे थे। देश के विभाजन से पहले इनकी तादाद 25 प्रतिशत से अधिक थी और आज अगर देश विभाजित न हुआ होता तो उनकी आबादी 33 प्रतिशत से अधिक होती।
मौलाना ने भविष्यवाणी की थी कि आज अगर मुसलमानों को लगता है कि हिन्दू उनके दुश्मन हैं तो कल जब पाकिस्तान अस्तित्व में आएगा, और वहाँ कोई हिन्दू नहीं होगा तो वे आपस में क्षेत्रीय, जातीय और सांप्रदायिक आधार पर लड़ेंगे।
उन्होंने इस बात को स्पष्ट रूप से मुस्लिम लीग के उन कुछ सदस्यों को बता दिया था जो पाकिस्तान के लिए रवाना होने से पहले मौलाना से मिलने आए थे। आज पाकिस्तान में ऐसा ही हो रहा है।
न केवल सांप्रदायिकता बढ़ी है बल्कि धार्मिक कट्टरता भी अपने उफान पर है। हत्या, सामान्य और रोज़ाना का मामला बन गया है। सभी धर्मों का इतिहास बताता है कि जब धर्म राजनीति के साथ जुड़ जाता है तब सत्ता धर्म और धार्मिक मूल्यों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
सत्ता उद्देश्य बन जाता है और धर्म उसे प्राप्त करने का एक ज़रिया बन जाता है। मौलाना उसे बखूबी समझते थे इसलिए वो धार्मिक की तुलना में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राजनीति की ओर अधिक आकर्षित थे।
लेकिन मौलाना सफल नहीं हुए और देश को विभाजित होने से नहीं बचा सके क्योंकि एक ओर उत्तर प्रदेश और बिहार के जागीरदार और मुसलमानों के मध्य वर्ग (जिन लोगों को आशंका थी कि उन्हें नौकरी या जल्दी तरक्की नहीं मिल पाएगी) जैसे शक्तिशाली निजी हितों वाले लोग थे तो दूसरी ओर ब्रिटिश साम्राज्यवादी हित थे जो देश को बांटने पर आमादा थे।
जाते जाते :
- ‘देहली कॉलेज’ ब्रिटिशों के खिलाफ करता रहा अस्तित्व का संघर्ष
- सर सय्यद के कट्टर आलोचक थे अल्लामा शिबली नोमानी
- इस्लाम से बेदखल थें बॅ. मुहंमद अली जिन्ना
एक भारतीय सुधारवादी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्लाम में मुक्ति धर्मशास्त्र पर उनके काम के लिए जाना जाता है, उन्होंने प्रगतिशील दाउदी बोहरा आंदोलन का नेतृत्व किया। लिबरल इस्लाम के प्रवर्तक के रूप उन्हे दुनियाभर में ख्याती मिली थी। इस्लाम, महिला सक्षमीकरण, राजनीति और मुसलमानों के सामाजिक अध्ययन पर उनकी 50 से अधिक पुस्तके प्रकाशित हुई हैं।