आज़ादी में अहम योगदान बना ‘लाल किला ट्रायल’ क्या था?

मारे देश की स्वतंत्रता में यूं तो असंख्य भारतीयों और अनेक तूफानी घटनाओं का योगदान है। लेकिन इन घटनाओं में से कुछ घटनाएं ऐसी है, जो आगे चलकर आज़ादी में निर्णायक साबित हुईं। लाल किला ट्रायलऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना है। इस घटना का मुल्क की आज़ादी में एक अहम योगदान है।

इस मुकदमे का महत्त्व इसलिए भी है कि इसने हमारी आज़ादी के संघर्ष को अंजाम तक पहुंचाया। भारतीय इतिहास में लाल किला ट्रायलके नाम से प्रसिद्ध आज़ाद हिन्द फौज के इस ऐतिहासिक मुकदमे के दौरान उठे नारे ‘‘लाल किले से आई आवाज-सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़’’ ने उस समय मुल्क की आज़ादी के हक के लिये लड़ रहे लाखों नौजवानों को एक सूत्र में बांध दिया था।

वकील भूलाभाई देसाई इस मुकदमे के दौरान जब लाल किले में बहस करते, तो सड़कों पर हजारों नौजवान नारे लगा रहे होते। पूरे देश में देशभक्ति का एक ज्वार सा उठता। 5 नवम्बर, 1945 से 31 दिसम्बर, 1945 यानी 57 दिन तक चला, यह मुकदमा हिन्दुस्तान की आज़ादी के संघर्ष में टर्निंग पाईंट था।

यह मुकदमा कई मोर्चों पर हिन्दुस्तानी एकता को मजबूत करने वाला साबित हुआ। मेजर जनरल शाहनवाज़ को मुस्लिम लीग और ले. कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लन को अकाली दल ने अपनी ओर से मुकदमा लड़ने की पेशकश की, लेकिन इन वतनपरस्त सिपाहियों ने कांग्रेस द्वारा जो डिफेन्स टीम बनाई गई थी, उसी टीम को ही अपना मुकदमा पैरवी करने की मंजूरी दी। मजहबी जज्बात से ऊपर उठकर सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़ ने जो यह फैसला लिया, वह सचमुच काबिले तारीफ था।

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अभियोग की कार्यवाही

कांग्रेस की डिफेंस टीम में सर तेज बहादुर सप्रू के नेतृत्व में मुल्क के उस समय के कई नामी-गिरामी वकील भूलाभाई देसाई, सर दिलीप सिंह, आसफ अली, पं. जवाहरलाल नेहरू, बख्शी सर टेकचंद, कैलाशनाथ काटजू, जुगलकिशोर खन्ना, सुल्तान यार खान, राय बहादुर बद्रीदास, पी.एस. सेन, रघुनंदन सरन आदि शामिल थे। जो खुद इन सेनानियों का मुकदमा लड़ने के लिए आगे आए थे।

सर तेज बहादुर सप्रू की अस्वस्थता की वजह से वकील भूलाभाई देसाई ने आज़ाद हिन्द फौज के तीनों वीर सिपाहियों की संयुक्त ट्रायल्स लड़ी।

मुकदमा लड़ने से पहले भूलाभाई देसाई ने उन समस्त अभिलेखों का अध्ययन किया, जिनमें आईएनए के जन्म, गठन, विघटन एंव पुनर्जन्म तथा वीरतापूर्ण उपलब्धियां और आज़ाद हिन्द की अस्थाई सरकार और उसकी शक्तिशाली देशों से मान्यता, आईएनए का नेतृत्व एवं अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक आईएनए के युद्धबंदियों की उस समय की स्थिति जबकि अंग्रेजों ने मुक्ति सेना को बंदी बनाया था, का विवरण दिया था।

जैसे-जैसे भूलाभाई देसाई को अस्थाई सरकार बनाने के संबंध में अधिक सबूत मिलते जाते थे, वैसे-वैसे वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की दूरदर्शिता और उनकी अद्भुत संगठन शक्ति को देखकर चकित हो जाते थे।

क्रांतिकारी युद्ध में कार्यरत रहते हुए भी नेताजी ने छोटी से छोटी बात पर भी गहन विचार किया था। इन तथ्यों के आधार पर ही भूलाभाई देसाई ने मुकदमे में बचाव की तैयारी की।

अभियोग की कार्यवाही मीडिया और जनता दोनों के लिए खुली हुई थी। जैसे-जैसे आज़ाद हिन्द फौज के बहादुरी के किस्से देशवासियों को मालूम चलते थे, उनका जोश बढ़ता जाता था। इस मुकदमे के जरिये ही उन्हें यह मालूम चला कि आज़ाद हिन्द फौज ने भारत-बर्मा सीमा पर अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ कई जगहों पर जंग लड़ी थी और एक वक्त तो 14 अप्रेल, 1944 को कर्नल एसए मलिक की लीडरशिप में आज़ाद हिन्द फौज की एक टुकड़ी ने मणिपुर के मोरांग में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा तक लहरा दिया था।

आज़ाद हिन्द सरकार की ओर से कर्नल मलिक ने ढाई महीने तक मोरांग को मुख्यालय बनाकर इस प्रदेश पर शासन किया। 

मुकदमे के दौरान पूरे मुल्क में कौमियत का माहौल पैदा हो गया। लोग अपने मुल्क के लिये मर मिटने को तैयार हो गये। सारे मुल्क में सरकार के खिलाफ धरने-प्रदर्शन हुये, हिन्दू-मुस्लिम एकता की सभाएं हुईं। जिसमें मुकदमें के मुख्य आरोपी कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लन, मेजर जनरल शाहनवाज़ की लम्बी उम्र की दुआएं की गईं।

अंग्रेज हुकूमत ने सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़ पर ब्रिटिश सम्राट के खिलाफ बगावत करने का इल्जाम लगाया। लेकिन सीनियर एडव्होकेट भूलाभाई देसाई की शानदार दलीलों ने इस मुकदमे को आज़ाद हिन्द फौज के सिपाहियों के हक में कर दिया।

अदालत के सामने उन्होंने दो दिन तक लगातार अपनी दलीलें रखीं। भूलाभाई ने मुकदमे की शुरूआत इस बात से की, “इस समय न्यायालय के समक्ष, किसी परतंत्र जाति द्वारा अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करने का अधिकार कसौटी पर है।

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लड़ने का अधिकार

भूलाभाई देसाई की पहली दलील थी, “जापान से पराजय के बाद अंग्रेजी सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल हंट ने जब खुद आज़ाद हिन्द फौज के जवानों को जापानी सेना के सुपुर्द कर दिया और उनसे कहा आज से आप हमारे मुलाजिम नहीं और मैं अंग्रेजी सरकार की ओर से आप लोगों को जापान सरकार को सौंपता हूं, आप लोग जिस प्रकार अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार रहे, उसी प्रकार अब जापानी सरकार के प्रति वफादार रहें।

यदि आप ऐसा नहीं करेगें, तो आप दण्ड के भागी होगें। कर्नल हंट का जापानी सेना के सम्मुख समर्पण और भारतीय सेना को जापानियों को सौंपने के बाद, इन जवानों पर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने का मुकदमा नहीं बनता।

इसके अलावा भूलाभाई देसाई की दूसरी अहम दलील थी, “अंतर्राष्ट्रीय कानून के मुताबिक हर आदमी को अपनी आज़ादी हासिल करने के लिये लड़ाई लड़ने का अधिकार है। आज़ाद हिन्द फौज एक आज़ाद और अपनी इच्छा से शामिल हुये लोगों की फौज थी और उनकी निष्ठा अपने देश से थी।

जिसको आज़ाद कराने के लिये नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने देश से बाहर एक अस्थाई सरकार बनाई थी और उसका अपना एक संविधान था। इस सरकार को विश्व के नौ देशों की मान्यता प्राप्त थी।

अपनी दलील को साबित करने के लिये उन्होंने मशहूर कानूनविद बीटन के कथन को उद्धत किया, “अपने मुल्क की आज़ादी को हासिल करने के लिये, हर गुलाम कौम को लड़ने का अधिकार है। क्योंकि, अगर उनसे यह हक छीन लिया जाये, तो इसका मतलब यह होगा कि एक बार यदि कोई कौम गुलाम हो जाये, तो वह हमेशा गुलाम होगी।

बहरहाल, आगे चलकर इस ट्रायल ने पूरी दुनिया में अपनी आज़ादी के लिये लड़ रहे लाखों लोगों के अधिकारों को जागृत किया। सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज के अलावा आज़ाद हिन्द फौज के अनेक फौजी जो जगह-जगह गिरफ्तार हुये थे और जिन पर सैकड़ां मुकदमे चल रहे थे, वे सभी रिहा हो गये।

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विद्रोह की हवा

तीन जनवरी, 1946 को आज़ाद हिन्द फौज के जांबाज सिपाहियों की रिहाई पर राईटर एसोसियेशन ऑफ अमरकातथा ब्रिटेन के अनेक पत्रकारों ने अपने अखबारों में मुकदमे के विषय में जमकर लिखा। इस तरह यह मुकदमा अंतर्राष्ट्रीय रूप से चर्चित हो गया।

मौके की नजाकत को देखते हुए अंग्रेजी सरकार के कमाण्डर-इन-चीफ सर क्लॉड अक्लनिक ने इन जवानों की उम्र कैद सजा माफ कर दी। हिन्दुस्तान में बदली हुई हवा का रुख भांपकर, उन्होंने जान लिया कि यदि इन फौजियों को सजा दी गई, तो पूरी हिन्दुस्तानी फौज में बगावत हो जायेगी।

कई इतिहासकारों का मानना है कि मुल्क की आज़ादी में आज़ाद हिन्द फौज की लड़ाईयों का उतना महत्त्व नहीं है, जितना कि उनकी शिकस्त का। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कई नीतियों से नाइत्तेफाकी रखते थे, उन्होंने भी आज़ाद हिन्द फौज के साल 1945 में भारत आगमन पर टिप्पणी करते हुए कहा था,

यद्यपि आईएनए इस समय अपने लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रही, परंतु फिर भी उनकी अनेक उपलब्धियां हैं, जिनके लिए वे गर्व कर सकते हैं। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि, उनके एक स्थान पर एक झंडे के नीचे एकत्र होने की है। भारत की सभी जातियां एवं धर्मों के व्यक्ति धार्मिक एवं जातीय भेदभाव भूलकर एक हो गए और उनमें संगठित होने की भावना जाग्रत हुई, यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसका अनुसरण हम सबको करना चाहिए।

आई.एन.ए. के आगमन एवं लाल किले में चलाए गए अभियोग का असर मुल्क में सशस्त्र सेना के हिन्दुस्तानी अफसरों और फौजियों पर पड़ा। लाल किला ट्रायल के प्रभाव से ही मुम्बई नौसेना और वायु सेना में विद्रोह हुआ और कई जगह अनेक टोलियों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की हवा फैल गई। कामगार, आम राजनैतिक हड़ताल पर चले गये तथा आम जीवन अस्त-व्यस्त हो गया।

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संघर्ष का प्रतीक

जाहिर है कि इस पूरे घटनाक्रम से हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज की नींव हिल गई। मुल्क के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस ऐतिहासिक मुकदमे पर मोतीराम द्वारा संपादित किताब टू हिस्टॉरिक ट्रायल्स इन रेड फोर्टकी प्रस्तावना में लिखा है,

कानूनी मुद्दे अत्यंत महत्त्वपूर्ण थे, परंतु कानून से परे इसमें ऐसा कुछ था, जो गहरा तथा अधिक महत्त्वपूर्ण था। ऐसा कुछ जिसने भारतीय मस्तिकों की अर्ध चेतन गहराईयों को झकझोर दिया। वे तीन अधिकारी और आज़ाद हिन्द फौज, आज़ादी के लिये भारत के संघर्ष का प्रतीक बन गये।

  

अंग्रेजों को लगने लगा कि भारतीय फौजों की पूरी हमदर्दी आज़ाद हिन्द फौज के साथ है। उन्हें भारतीय फौजों की वफादारी पर शक होने लगा। वे समझ गये कि जिस देश का सिपाही आज़ादी के लिये आमादा हो जाये, उस मुल्क को अब और ज्यादा दिन गुलाम बनाये नहीं रखा जा सकता।

लंदन में ब्रिटिश सरकार ने अविलंब भारत छोड़ने का फैसला कर लिया। ब्रिटिश सरकार की ओर से एक कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया। जिसका काम भारत से ब्रिटिश शासन हटाने की योजना तैयार करना था। बहरहाल, भारतीय तारीख की इस अहमतरीन घटना लाल किला ट्रायलके अठारह महीने बाद यानी 15 अगस्त, 1947 को हमारा मुल्क आज़ाद हो गया।

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