पुरानी दिल्ली में आलमगीर द्वितीय के वजीर नवाब गाजिउद्दीन खान ने ईसवी 1792 में अजमेरी दरवाजे के बाहर एक शैक्षिक संस्था स्थापन की थी। जो बाद में ‘मदरसा गाजिउद्दीन खाँ’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यहां अरबी, फारसी, कुरआन व कुरआन भाष्य, हदिस व इस्लामी न्यायशास्त्र और अन्य विषयों कि शिक्षा दी जाती थी। एक समय में दिल्ली कि इल्मी जिंदगी में इस मदरसे को विशेष महत्त्व रखता था। बहुत जल्द इसने हिन्दोस्ताँ के कोने-कोने में शोहरत पाई थी। दूर दराज से लोग यहां शिक्षा हासील करने के लिए आया करते थें।
1825 में तकरीबन 33 साल बाद यही मदरसा ‘देहली कॉलेज’ में तब्दील हो गया। आज यह जाकिर हुसेन दिल्ली कॉलेज के नाम से जाना जाता हैं। देहली कॉलेज का अंग्रेज स्टाफ पश्चिमी भाषा में पश्चिमी तौर तरीके से शिक्षा देने के हक में था।
उसी वजह दिल्ली के रेजिडेंट कमिशनर सर चार्ल्स मीटकॉफ कि सिफारीश पर इस कॉलेज में एक अंग्रेजी शिक्षा वर्ग 1828 में शुरु किया गया। दिल्ली में पहली बार अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ। इसी के साथ ‘मदरसा गाजिउद्दीन खाँ’ के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई।
पढ़े : मुसलमान लडकियों का पहला स्कूल खोलनेवाली रुकैया बेगम
पढ़े : शिक्षा और ज्ञान की विरासत लिए खडी हैं आदिलशाही लायब्ररियाँ
अंग्रजी शिक्षा और विरोध
जब अंग्रेजी भाषा का शिक्षा वर्ग शुरु हुआ तो स्थानीय फंड के शैक्षिक सहाय्यता निधी से 250 रुपये कॉलेज के लिए मंजूर किए गए। मगर अंग्रेजी शिक्षा वर्ग के शुरु होते ही लोगों में बेचैनी फैल गई थी। हिंदू और मुसलमान दोनों इसका विरोध करने लगे। धार्मिक ज्ञान रखने वाले बुजुर्गों का यह खयाल था के यह हमारे नौजवानों के मजहबीयत को बिगाडने और इसाई धर्म फैलाने कि साजीश है।
यही मुश्किल बंगाल में भी पेश आई थी। लेकीन वहां राजा राममोहन रॉय के जैसे प्रगतीशील मार्गदर्शक मौजूद थें, वहाँ आंधी तो उठी मगर कुछ दिनों के भीतर खत्म भी हुई। वहां विरोध ब्राम्हणवर्ग से शुरु हुआ था और यहां मुसलमान इसके विरोध में इकठ्ठा हो रहे थें।
शुरुआती दौर में जब बच्चे अंग्रेजी शिक्षा वर्ग में दाखिल हुए तो वहाँ उन्होने नई चिजें देखी और पढी, तो वह कुछ नई बाते करने लगे। जिससे पुराने खयाल के लोग घबरा गए थें। एक और वजह भी है की, मुसलमान छात्रों की संख्या अंग्रेजी भाषा के शिक्षा वर्ग में बहुत कम रही।
प्रसिद्ध विद्वान मौलाना अलताफ हुसेन हाली ने इस विषय में कहा है, ‘‘उस समय पुराना देहली कॉलेज खुब तरक्की पर था, मगर जिस सोसायटी में मैं जी रहा था, वहां इल्म सिर्फ अरबी और फारसी जुबान से ही लिया जाता था।
अंग्रेजी शिक्षा का खासकर कस्बा पानिपत में तो कहीं जिक्र भी सुनने नहीं मिलता था और इस बारे में लोग कुछ सोचते भी थें तो वे इसे सरकारी नोकरी का एक जरीया मानते थे। और वह समझते थे की इससे कोई इल्म हासिल नहीं हो सकता।’’
पढ़े : एक मामूली शौक ने बनवा दिया सालारजंग म्युजिअम
पढ़े : दकन की शिक्षा नीति का नायक था महेमूद गवान
गदर के हालात
11 मई, सोमवार का दिन था, समय अलसुबह का। पढाई रोजाना कि तरह शुरु होनेवाली थी की अचानक साडे आठ बजे चंदू लाला हांफते कांपते आए। उनके चेहरे पर डर का अजीब आलम था, सिधे क्लासरुम में घुस गए और अपने बच्चों से कहा “चलो घर चलो, भागो, गदर मच गया। सिपाही और सवारों ने लुटमार और कत्लेआम का बाजार गर्म कर रखा है।”
यह सुनते ही लडके अपने किताबों के झोले संभाल कर भागने लगे प्रिन्सिपल साहब हैरान थे की यह क्या तमाशा है? इतने में मॅगझीन का एक चपरासी कमांडर का खत लेकर आया जिसमें लिखा था कि, ‘‘हर जगह हंगामा मचा हुआ है और हालत लम्हे-लम्हे खतरनाक होते जा रहे है। होशियारी इसी में है कि आप अपने अंग्रेजी स्टाफ के साथ यहां आ जाएं और मॅगझीन दफ्तर में पनाह लें’’
प्रिन्सिपल टेलर, हेडमास्टर रॉबर्ट, सेकंड मास्टर स्टुअर्ट घबराकर भाग निकले। मि. टेलर कॉलेज के कोठी में रहते थे, रॉबर्ट का बंगला भी कॉलेज के आहाते में था। स्टुअर्ट, मन्सूर अली खाँ कि हवेली में और प्रो. येसूदास चांदनी चौक के कोठे में रहते थे। दोपहर के बारा बजे के बाद कॉलेज का लायब्ररी लूटनी शुरु कर दी गई।
लुटेरे बडे बेढब थे, अंग्रेजी के तमाम किताबों की खुबसुरत जिल्दे इन्होने फाड दी। अरबी, फारसी, उर्दू कि कितनी किताबें थी इनकी गठरीयाँ बांधकर अपने घर ले गए, फिर कबाडीयों को कौडीयों के दाम पर बेच दिए। सायन्स डिपार्टमेंट में जितने संसाधन थे, लह तोड दिए, लोहा और पितल कि वस्तुए वह अपने साथ ले गए।
बडे नुकसान के बाद 1857 के गदर में कॉलेज बंद कर दिया गया। किसीने इसकी हालत पर गौर नहीं किया, आखिर मई, 1864 में इसकी किस्मत जागी और कॉलेज दुबारा खोल दिया गया। शुरु शुरु में सारा काम प्रो. हेटॉन कि निगरानी में रहा।
उसके बाद अक्तूबर 1868 के आखिर में केम्ब्रिज के प्रोफेसर मि. विलमोट ने इंग्लिस्तान से आकर प्रिन्सिपल कि खिदमत का जायजा लिया। 1868 में एसपीजी मिशन स्कुल के अध्यक्ष आर. डेंटर नें अपने स्कुल को बंद कर दिया और मेट्रोकोलिशन में उत्तीर्ण छात्राओं को देहली कॉलेज में रवाना कर दिया।
पढ़े : ‘1857 विद्रोह’ के बर्बर घटनाओं का दस्तावेज हैं ‘गदर के फूल’
पढ़े : मार्क्स ने 1857 के विद्रोह कि तुलना फ्रान्सीसी क्रांति से की थीं
कुछ छात्र और शिक्षक
इस कॉलेज के कुछ स्टुडंट ने भारत इतिहास में देहली कॉलेज का नाम उंचा कर दिया। जिसमें, मास्टर रामचंद्र, शम्सुल उल्मा डॉ. नजिर अहमद, मुहंमद हुसैन आझाद, मुन्शी जकाउल्लाह, शम्सुल उल्मा डॉ. जियाउद्दीन यह कुछ ऐसे नाम है जिनके बारे कुछ बयान करने की जरुरत नहीं। इनमें डॉ. नजीर अहमद और मुहंमद हुसैन आझाद ने उर्दू भाषा में कई किताबें लिखी है, जो उर्दू में एक अहम दर्जा रखती है।
मौलवी जकाउल्लाह ने गणित, भूगोल कि सेकडों किताबें लिखी हैं। मौलवी जियाउद्दीन उर्दू के मशहूर अध्ययनकर्ता थे, जो इसी कॉलेज में अरबी के प्रोफेसर थे।
मास्टर रामचंद्र इन सबमें काबील व्यक्ति थे, गणित और विज्ञान के बडे उस्ताद थे। अफसोस के लोग इन्हे भुलते जाते हैं, इसीलिए मैं यहां उनका संक्षिप्त परिचय कि चर्चा करना मुनासिब समझता हूं। एक बात अजीब है के इन सब लोगोंने और अन्य छात्राओं ने अपनी जिंदगी प्रोफेसरी से ही शुरु कि थी।
1825 में जब कॉलेज कि नई सुरत बनी तो जे.एच. टेलर कॉलेज के व्यवस्थापन समिती के सेक्रेटरी और सुप्रिटेंडेंट नियुक्त किए गए। इन्हे 175 रुपये वेतन प्रतिमाह दिया जाता था, बाद में इसमे 125 रुपये का इजाफा कर दिया गया।
इनके अलावा देहली कॉलेज में मि. कारगल, प्रो. एलियस, मौलवी ममलुक अली, मौलवी इमाम बक्ष सबाई, मौलवी सुबहान बक्ष, मास्टर वजीर अली और मास्टर अमीर अली, मास्टर रामचंद्र, जियाउद्दीन, मास्टर प्यारेलाल, भैरुप्रसाद, मुन्शी जकाउल्लाह, मौलवी अहमदअली, पंडित रामकिशन दहेलवी, मीर अश्रफअली, मास्टर हुसैनी, हरदेव सिंग मुन्शी, मास्टर नूर मुहंमद तहतानी, मौलवी हुसैन अली खाँ आदी प्रोफेसर देहली कॉलेज में शिक्षा देने का काम किया।
जाते जाते :
* कैसी हुई थी उस्मानिया विश्वविद्यालय कि स्थापना?
* समाज में समता स्थापित करने बना था ‘अलीगढ कॉलेज’
लेखक स्वतंत्रता पूर्वकाल में उर्दू के प्रख्यात विद्वान रहे हैं। इन्होने कई किताबें लिखी है, दकन में उर्दू के प्रसार और प्रचार में उनका बडा योगदान रहा है। प्रस्तुत लेख उनकी किताब ‘देहली कॉलेज’ का संपादित अंश है।