उत्तर की तुलना में सरजमीने दखन में सुफी आंदोलन की सरगर्मीयां आधिक रही। सुफी आंदोलन ने यहां नए आयाम स्थापित किए। विशेषतः हिंदू निचली जातीयों में इस्लाम के प्रसार में उनकी अहम भूमिका रही। रिचर्ड इटन जो दखनी सुफी आंदोलन के महान अभ्यासक हैं।
उनका मानना है की, “सुफीयों के अलावा दखन कि निचली जातीयों में इस्लाम का फैलाव मुमकीन न था। सुफीयों ने विषमता के अहसास को जिंदा कर निचली जातीयों में समता कि अपेक्षा पैदा की।”
सुफीयों ने दखन कि संस्कृती को अपने आंदोलन का माध्यम माना। दखनी बोली का अपने चिंतन को प्रस्तुत करने लिए सुफी अवलीयाओं ने खूब इस्तमाल कीया। यहां आए सेकडो सुफी अवलियाओं ने दखनी में काव्यरचनाएं की।
बडे दुख कि बात है की, हजरत बंदा नवाज गेसूदराज और ख्वाजा अमीनुद्दीन की चंद कविताओं के अलावा अब यह साहित्य उपलब्ध नही है। सुफी संतो के सांस्कृतिक योगदान की यह घोर विडंबनाही है की हमने उनके इतिहास स्त्रोत हम लोगों ने वक्त के साथ पिछे छोड दिए ।
इसी वजह से हजरत बंदा नवाज गेसूदराज जो दखन की सुफी तहरीक के मुख्य आधार माने जाते हैं, का इतिहास दुर्लक्षित रहा। स्कुट कुगल और सुलैमान सिद्दीकी के कुछ अंग्रेजी लेख और मौलाना अब्दुल गफूर कुरैशी का सुफी मलफुजात पर किया गया कार्य बंदा नवाज गेसूदराज का इतिहास जानने के लिए आज मददगार साबित हो रहा है।
हजरत बंदा नवाज पहली बार दखन में अपने पिता के साथ मुहंमद तुघलक के आदेश से आए थे। उस वक्त वे एक बालक थे, सो उस इतिहास को सुफी तहरीक के इतिहास में दुर्लक्षित किया गया है। दुसरी बार हजरत बंदा नवाज गेसूदराज सन १३९८ में ८० साल की उम्र में दखन पहुंचे। बंदा नवाज नसिरुद्दीन चराग दहेलवी के प्रमुख शिष्यों मे से थे। बंदा नवाज कि शिक्षा भी हजरत नसिरुद्दीन चराग के मार्गदर्शनमेंही मुकम्मल हुई थी।
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सुलतानों के साथ रिश्ते
मध्यकाल के बहोत कम सुफी ऐसे हैं, जिनके सुलतानों के साथ अच्छे रिश्ते रहे। सुलतान अपनी राजनिती के लिए हमेशा धर्म को माध्यम समझते रहे हैं। बादशाहों, सुलतानों कि इसी नितीका सुफीयों की तहरीकने जमकर विरोध किया। उसी वजह से निजामुद्दीन औलिया को तुघलक ने दिल्ली छोडने का हुक्म दिया था।
और राजनिती से जुडे रहने कि वजह से अपने सबसे प्रिय शिष्य अमीर खुसरो को निजामुद्दीन औलीयाने अपनी खिलाफत नहीं सौपी थी। जहां निजामुद्दीन औलीया के साथ मुहंमद तुघलक का टकराव हुआ वहीं उसके के भतीजे फेरोज तुघलक से निजामुद्दीन औलीया के शिष्य बंदा नवाज का भी रिश्ता कुछ ऐसा हि रहा।
सय्यद सबाहुद्दीन उत्तर के सुफी आंदोलन के अभ्यासक हैं वे लिखते हैं, “कुछ लोगों ने सुलतान फेरोजशाह तुघलक को यह खबर पहुंचाई कि, बंदानवाजा गेसूदराज की ‘मजलिस ए समा’ में मुरीदीन अपना सर जमीं पर रखा करते हैं और बडा शोर मचाते हैं।
सुलतान ने यह सुनकर बंदनवाज को कहलवा भेजा के अपनी ‘मजलिस ए समा खिलवत’ (अकेले में) किया करे। इसके बादसे गेसूदराज अपने हिजरे में यह महफील आयोजित करने लगे। खानकाह में बीच में एक पर्दा डाला जाता था, एकतरफ गेसूदराज होते और दुसरी तरफ उनके मुरीद बैठते थे। जब गेसूदराज पर जोश जारी होता तो उनके मुरीद हुजरे (आश्रम) का दरवाजा बंद कर देते थे।”
जब बंदा नवाज दुसरी बार दकन आए उस वक्त भी उनका बहमनी सुलतान से संघर्ष हुआ। शुरुवात में बंदा नवाज गेसूदराज का फेरोजशाह बहमनी ने गुलबर्गा में स्वागत किया, उन्हे कुछ तोहफे भी दिए।
मगर जब फेरोजशाह बहमनी अवाम की परेशानीयों को ना समझते हुए कर वसुलने लगा तो गेसूदराजने उसका जमकर विरोध किया। विरोध के लिए कुछ सभाएं भी उन्होने ली। उन्होने फेरोजशाह का विरोध करते हुए कहा, “ जालिम बादशाह का विरोध करना पवित्र युध्द में भाग लेने समान पुण्यकर्म है।”
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बंदा नवाज का साहित्य
बंदा नवाज गेसूदराज जब उत्तर भारत में थे तो उन्होने फारसी भाषा में कई किताबें लिखी। जब गेसूदराज दखन पहुंचे तो उन्होने दखनी भाषा में किताबें लिखी। उन्होने दखनी भाषा में कई कविताएं भी लिखी हैं। दखनी साहित्य के अभ्यासक डॉ. मोहियोद्दीन कादरी जोर ने उनकी कुछ दखनी कविताओं का उल्लेख अपनी किताबों में किया है। उनमें से एक कविता –
“खडे खडे पियो, जियो में अफसीं आप दिखावे
ऐसे मिठे माशुक कुं कवी क्युं देख पावे
जिन्हे देखे इसे कोई न भावे”
इसी तरह उनकी एक अन्य कविता है –
“कलसे मुहीत है इसे कौन पछाने
जो कोई आशिक इस पिउ के इस जियो में जाने
इसे देख गुम रहे जैसे हैं दिवाने”
एक अन्य कविता में उन्होने अपने गुरु नसिरुद्दीन का जिक्र किया है –
“ख्वाजा नसिरुद्दीन जिन्हे साईयां पिओ बनाए
जियो का घुंघट खोलकर पिया मुख आप दिखाए
राखे सय्यद मुहंमद हुसैनी पियो संग कईया न जाए”
बंदा नवाज कि दकनी कविताओं का संकलन अबतक नही हो पाया। मगर उनकी किताबों के बारे में कुछ शोधकर्ताओं ने उल्लेखनिय कार्य किया है। सय्यद सबाउद्दीन और मौलाना अ. गफूर ने उनके मलफुजात पर किया हुआ शोधकार्य सरहानीय है।
बंदा नवाज ने कुरआन पर भाष्य भी लिखा है। भारत में लिखी गयी यह सबसे पुरानी तफ्सीर (कुरआन भाष्य) है। इसके अलावा हदिस के मशहूर ग्रंथ ‘मशारीकुल अन्वार’ का विश्लेषण भी बंदा नवाज ने लिखा है। साथही इसी किताब का बंदा नवाज ने फारसी भाषा में स्वतंत्ररुप से अनुवाद भी किया था। उनका मुरीदों के आचरण तत्वों पर आधारीत ‘आदाबुल मुरीदीन’ ग्रंथ भी विख्यात है।
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इसके अलावा इमाम अबुल कासीम कि पुस्तिका ‘रिसाला ए तशीरीया’ का फारसी अनुवाद, शरीअत, तरीकत और हकीकत पर चर्चा करनेवाली किताब ‘रिसाला ए इस्तखामत शरीअत ब तरिकत हकीकत’ इस किताब का जिक्र इंडीया ऑफीस लायब्ररी के मख्तुतात कि सुची में भी किया गया है। बंदा नवाज गेसूदराज ने १०० से ज्यादा ग्रंथ लिखे थे।
कई इतिहासकारों ने उनके ग्रंथो कि संख्या इससे भी अधिक बतायी है। मगर इस संदर्भ विश्वसनीय स्त्रोत उपलब्ध न होने की वजह से सिर्फ अनुमान लगवाया जा सकता है। अब जिन ग्रंथो कि उपलब्धी हुई उसकी संख्या लगभग ३० के करीब है।
बंदा नवाज गेसूदराज के मलफुजात के जरिए तत्कालीन भारत की सामाजिक एवं राजकीय स्थिती, तथा निचली जातीयों के हालात, भारत कि धर्मव्यवस्था की जानकारी मिलती है।
सुफी संतो में हजरत बंदा नवाज गेसूदराज ही एकमात्र संत जिन्होने १०० ज्यादा ग्रंथ लिखे हुए है। दखनी समाजजीवन पर आज भी बंदा नवाज के कार्य के परिणाम देखे जा सकते हैं। गुलबर्गा में स्थित उनकी दर्गाह हिंदू-मुस्लिम भक्तों के आस्था का केंद्र है।
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लेखक युवा इतिहासकार तथा अभ्यासक हैं। मराठी, हिंदी तथा उर्दू में वे लिखते हैं। मध्यकाल के इतिहास में उनकी काफी रुची हैं। दक्षिण के इतिहास के अधिकारिक अभ्यासक माने जाते हैं। वे गाजियोद्दीन रिसर्स सेंटर से जुडे हैं। उनकी मध्ययुगीन मुस्लिम विद्वान, सल्तनत ए खुदादाद, असा होता टिपू सुलतान, आसिफजाही इत्यादी कुल 8 किताबे प्रकाशित हैं।