क्यों जरुरी हैं इतिहास लेखन और राष्ट्रवाद की पुनर्व्याख्या?

हुसंख्याक समाज कि संस्कृति और धर्म से प्रेरित शासनव्यवस्था, पूंजीपतीयों के हितरक्षा से प्रेरित अर्थव्यवस्था तथा धर्मवादी सोच को प्रमाणित कर रहे माध्यमों के इस दौर में राष्ट्रवाद की बेहद गलत व्याख्या को प्रस्तुत किया जा रहा है।

अब राष्ट्रवाद बस किसी धर्म की अस्मिता, नारों की परिभाषा में सिमित हो गया है। धर्म कि अस्मिता और मान्यताओं को ही राष्ट्र कि अस्मिता के तौर पर पेश किया जा रहा है।

फासीवाद के सारे गुण इस व्याख्या और उसके निर्माताओं में मौजूद हैं। ऐसे दौर में राष्ट्रवाद की सोच और भारत जैसे बहुधर्मीय देश में उसकी व्याख्या के फलसफे को समझना बेहद जरुरी हो गया है।

वर्तमान की गडबडीयां इतिहास के गलत आकलन से प्रेरित होती हैं। वर्तमान सत्ता के समर्थकों द्वारा इतिहास को बहुसंख्याक समुदाय के हार की स्मृति और अल्पसंख्यकों द्वारा किये गए अत्याचार का संचित समझा जा रहा है।

इतिहास कि यह व्याख्या संघ के राजनीति की जरुरत और गैरसामाजिक विचारधारा पर आधारित है। संघ जिस राष्ट्र का ख्वाब देख रहा है, उसके वास्तवरुप तक पहुंचने के लिए इतिहास के इस तरह के लेखन और मिथकीय अवधारणाओं के अवडंबर कि उसे जरुरत महसूस होती रही है।

इसी कारण उसने इतिहासकारों कि कल्पनाओं के आधारपर हिन्दुत्व की सोच को इतिहास में खोजने वाली टोली का निर्माण किया गया और उसके जरीए इतिहास की अपने पक्ष में व्याख्या को अंजाम दिया गया है।

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राष्ट्रवादी कार्यप्रणाली

इतिहासकार बी. एन. सिन्हा लिखते हैं, “राष्ट्रवाद को राष्ट्र के हित और उसके सन्मान का फलसफा कहा जाता रहा है। मगर राष्ट्र का हित और सम्मान के मुल्यों का चयन हर कोई अपने ढंग से करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा राष्ट्र का हित अल्पसंख्यांकों के दमन में और राष्ट्र का सम्मान वेदों तथा ब्राह्मणवादी सोच कि पुनःस्थापना में  खोजा गया है।

आगे लिखते हैं, “अल्पसंख्यांको के दमन के लिए हर वह कोशिश राष्ट्रवादी कार्य बन चुकी है, जिसके जरिए उनका अपमान कर उन्हें कुचला जा सकता है। इसी रणनीति के तहत गुजरात दंगों का भी समर्थन किया जा सकता है और हाथ में शस्त्र लेकर समुदाय विशेष के विरोध में भारत माता कि जय का नारा दिया जा सकता है।

यह अब अलगसे अधोरेखित करने कि जरुरत नहीं है की, राम मंदिर के निर्माण को अब राष्ट्र का सम्मान समझा जा रहा है।

सचिन राय का राष्ट्रवाद और इतिहासलेखन कि विभिन्न विचारधाराओं पर किया गया शोधकार्य काफी महत्त्वपूर्ण है। लिखते हैं, “राष्ट्रवादी प्रवृत्ति के जिस निश्चित रुप को हमें विशेष रुप से देखना है, उसका स्पष्ट उदय उस आधुनिक  युग में हुआ, जिसका सुत्रपात हम फ्रान्स कि राज्यक्रांति से हुआ मानते हैं। फ्रान्स की प्रसिद्ध राज्यक्रांति से जिन नवीन शक्तियों व प्रवृत्तीयों को प्रोत्साहन मिला, उनमें राष्ट्रवाद कि प्रवृत्ती मुख्य थी।

फ्रान्स के राजा लुई (सोलहवें) के भाग जाने पर यह कहा जाना कि, ‘राजा भाग गया तो भाग जाने दो, फ्रान्सीसी राष्ट्र तो विद्यमान है।निश्चय ही इस बात का परिचायक था कि राजनीतिक संघटन का वास्तविक आधार राजा न होकर राष्ट्रीय एकता है और किसी व्यक्ति समूह को राजनीतिक एकता में बांधने के लिए राष्ट्रवादी प्रवृत्ति की जरुरत है न कि किसी राजा के प्रति भक्तीभाव की।

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राष्ट्रवाद की सोच

फ्रांसीसी राष्ट्रवाद के मुकाबले में भारत का वर्तमान राष्ट्रवादी विचार काफी आपत्तीजनक है। वर्तमान भारत में सिर्फ एक नेता को ही भारत के भविष्य के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। बिना उस नेता के भारत के राजनैतिक भविष्य की कल्पना को देशद्रोह माना जा रहा है।

यह सोच फ्रान्स ने जिस के खिलाफ जंग छेडी थी उसी सामंतवादी व्यवस्था से निष्ठा दर्शाती है। यानी यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान में राष्ट्रवाद की विचारधारा का सफर उलटा शुरु है, और मध्ययुगीय प्रवृत्ती की मानसिकता फिर एक बार देश में उभर रही है। 

भारत में राष्ट्रवाद की पहली लहर अंग्रेजी शासन काल के खिलाफ उठी थी। जो भारत को आज़ादी मिलने के बाद कुछ सालों बाद खत्म हुई। दुसरी बार राष्ट्रवाद कि सिमित लहर जे.पी. के आपातकाल विरोधी आंदोलन के रुप में उभर कर सामने आयी। मगर सिर्फ चार-पांच साल के बाद इसने दम तोडा।

राष्ट्रवाद की सोच को संघ परिवार द्वारा बहुसंख्यांक धर्मवाद के रुप में अब तिसरी बार उभारा गया हैं। राष्ट्रवाद कि पहली लहर शोषण और विदेशी सत्ता के विरोध में थी तो दुसरी लहर तानाशाही सोच के विरोध में रही। राष्ट्रवाद कि पहली और दुसरी लहर में राष्ट्र का हित केंद्रस्थान पर था।

मगर तिसरी लहर जो संघ परिवार के मर्जी से पैदा कि गयी है, वह ना राष्ट्र के हित का विचार रखती है, ना ही राष्ट्रीय अस्मिता के उन मुल्यों पर गर्व करती है, जिसके जरीए स्वतंत्रता संग्राम लढा गया। राष्ट्र के विरासत को लेकर इसकी अपनी धारणाएं है, इसका अपना फलसफा है।

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राष्ट्र नायक कि अवधारणा

संघ द्वारा कि गयी गलत व्याख्याओं पर टिप्पणी करते हुए सचिन राय ने इतिहास कि इनकी प्रेरणाओं पर सवाल खडा किया है। लिखते हैं, “कुछ राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने यूरोपीय इतिहास के पुर्वोदाहरण के अनुसार भारतीय इतिहास के प्राचीन युग को सृजनशील प्रवृत्तीयों वाले कालजयी युग के रुप में दर्शाया, जबकि मध्यकाल को अंधकारमय युग की संज्ञा दी।

आगे लिखते हैं, “कुछ राजनेता इतिहासकारों ने मुगल सत्ता का विरोध करने वाले क्षेत्रीय भारतीय शासकों को राष्ट्रीय नायकों की संज्ञा दी। राणा प्रताप और शिवाजी के नाम इसी संदर्भ में प्रस्तुत किए गए। इसी भ्रमित विचारधारा ने मुगल  शासन को विदेशी शासनऔर इसका विरोध करने वाले हिंदू शासक को राष्ट्रीय स्वतंत्रता की लडाई के नायकके रुप में प्रस्तुत किया।

विडंबना यह रही कि मुगलों का विरोध करने वाले भारतीय मुसलमान या अफगान शासकों एवं सरदारोंजैसे पूर्वी भारत के शेरशाह और दकन में चांद बीबी को राष्ट्रीय’ योद्धाओं की उपाधि नहीं प्रदान कि गई। इसी विकृत दृष्टिकोण के फलस्वरुप भारत में मुस्लिम शासक वर्ग विदेशी’ माना गया।

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सिमटता सेक्युलर माहौल

ऐसी ऐतिहासिक अवधारणाओं के साथ देश का सफर विधायक दिशा में नहीं हो सकता। इसी लिए देश को फिर एक बार राष्ट्रवाद की पुनर्व्याख्या और इतिहास की सही समझ तक पहुंचना होगा।

यहां के. एन. पण्णिकर कि एक बात लागू होती हैंजिसमें वे कहते हैं, “इस विषम और विरोधाभासी परिस्थिती में जरुरत इस बात की है कि सेक्युलर सांस्कृतिक-कार्यकर्ता कितनी संजिदगी से आगे बढ़ाते हैं। क्योंकि सेक्युलर माहौल लगातार सिमटता जा रहा है।

इस लगातार सिमटते माहौल का कारण पिछले कुछ वर्षों में चला आक्रमक सांप्रदायिक प्रचार ही नहीं है बल्कि सेक्युलर कार्यवाही की सीमाएं भी इसका कारण हैं। सांप्रदायिकता की रणनीति यह रही है कि सांकेतिक कार्यवाहीयों के लिए नागरिक समाज में संस्कृति और धर्म के बीच एक पहचान तयार कर सकें

सांस्कृतिक पहचान कि यह राजनीति मानवी मुल्यों के पुननिर्माण से ही खत्म कि जा सकती है। जिसके लिए हमें इतिहास कि समझ और राष्ट्रवाद के मुल सिद्धान्त को समझकर आगे बढ़ना जरुरी है, न की काँग्रेस कि तरह सांप्रदायिक राष्ट्रवाद और इतिहास की विकृत समझ को मान्यता देने की आवश्यकता है।  

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