हैदराबाद मध्यकाल से ही दक्षिण भारत का एक अहम शहर है। दकन के हर छोटे बडे शहर पर हैदराबादी संस्कृति का प्रभाव आज भी कायम है। शहर हैदराबाद चौदहवीं सदी से शिया संस्कृति का आश्रयस्थान माना जाता है। इसी वजह से यहां का मोहर्रम काफी मशहूर है।
हैदराबाद के मोहर्रम का इतिहास गोलकुण्डा की कुतुबशाही रियासत से शुरू होता है। कुतुबशाही के राजनीतिक संबंध इरान के साथ काफी गहरे थे। राजनैतिक निर्णय प्रक्रिया पर जैसे इरान के शाह के दरबार का प्रभाव साफ तौर पर दिखता है, उसी तरह इस दौर के समारोह और उत्सवों पर इरानी संस्कृति की झलक दिखती है।
हैदराबाद के करीब गोलकुण्डा कुतुबशाही की राजधानी थी। जिसकी वजह से ही हैदराबाद में शिया संस्कृति और उसकी प्रथा, परंपराओं का चलन आम हुआ।
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दिलचस्प इतिहास
हैदराबाद के मशहूर इतिहासकार रशिद मौसवी शिया संस्कृति और शिया इतिहास के अभ्यासक हैं। मोहर्रम और हैदराबाद के सहसंबंधों पर उनका शोधकार्य महत्त्वपूर्ण है। रशिद मौसवी अपनी किताब ‘दकन में मरसिया और आज़ादारी’ में लिखते हैं,
“इरान में शियाओं, ताजिओं का रिवाज़ ‘खानदान ए जिंद’ या ‘अहद ए काचारीया’ की शुरुआत में हुआ। सफ़वी हुकूमत के जो उलमा दकन आए थे, इनके साथ इरान की यह तहजीब भी यहां पहुंची। लेकीन रफ्ता–रफ्ता दकन में इस तहजीब के साथ मुकामी पहलू भी जुडते गए, और इनमें कई रिवायतें आम हुई।”
महमूद खान बंगलोरी ने दकन की संस्कृति, समाज और राजनीतिक इतिहास पर काफी लिखा है। उनकी मशहूर किताब ‘तारिख ए जुनूब’ (दक्षिण का इतिहास) में उन्होंने दकन के मोहर्रम और अजादारी (शोक मनाने का एक और तरिका) की परंपराओं की शुरुआत के बारे में जानकारी दी है।
उनका मानना है की, यह हिन्दुओ और खासतौर पर मराठों की पैरवी का नतिजा है। लिखते हैं, “जुनुबी हिन्द में मोहर्रम जिस सुरत में मनाया जाता है, इसका आगाज उस जमाने में हुआ जब दकन की इस्लामी सल्तनतों पर मुगलों ने हमले करना शुरु किया था। मुगलों से बचाव के लिए इन सल्तनतों ने मुनासिब समझा के मराठों और हिन्दुओं को अपने साथ मिलाया जाए।”
आगे लिखते हैं, “मराठों से न की सिर्फ राजनीतिक साझेदारी कि गयी बल्की उनसे तहजिबी सतह पर भी बहोत दोस्ताना तआल्लुकात जोडे गए। दुसरी वजह यह भी हो सकती है की, दकन की यह इस्लामी सल्तनतें मराठवाडे के करीब रहने की वजह से यहां के मुसलमानों ने बहोत से मराठा (मराठी) रस्म व रिवाज कबूल कर लिए होंगे।”
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हिन्दू संस्कृति का प्रभाव
शिया विचारों के अभ्यासक खालिद रिज़वी इस संदर्भ में मेहमूद खान बंगलोरी से अलग राय रखते हैं। रिजवी की बातों में तर्क कि बजाय वास्तविकता का अंश साफ तौर पर दिखता है। वे कहते हैं,
“दकन कि सल्तनतों का पारिवारीक संबंध इरान से था। वह शिया मत के माननेवाले थे यही कारण था की, इरान के शाह की पैरवी करना उनका धर्म बन गया था। इरान के शाह के इशारोंपर और उसके हित में कई फैसले लिए जाते थे। शिया हुकूमतों की वजह से शिया मत के विद्वान, उनके विचार और पंरपराओं का चलन भी दकन में आम हुआ।”
इन तीनों विद्वानों के तर्क से एक बात साफ हो जाती है की, दकन का मोहर्रम इरान से राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधो की देन है और आज इसके स्वरुप पर हिन्दू संस्कृती का काफी प्रभाव है।
हैदराबाद के मोहर्रम की परंपराओं का इतिहास भी काफी दिलचस्प है। शिया संप्रदाय में मोहर्रम को ‘शोक का काल’ माना जाता है। करबला के शहीदों के स्मृति में यह महिना स्मृति समारोह और आत्मपरिक्षण काल के तौर पर बिताया जाता है।
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शाही रिवाज
मध्यकालीन मोहर्रम के इतिहास पर चर्चा करते हुए रशिद मौसवी लिखते हैं, “मोहर्रम शुरु होते ही शाही नक्कारखानों और जागीरदारों के मोहल्लों में नौबत नवाजी (नौबत बजाना) बंद कर दी जाती थी। शहर में नशे की चिजों के इस्तेमाल और खरीद-फरोख्त पर रोक लगा दी जाती थी। शाही बावर्चीखानों में गोश्त के पकवान बंद हो जाते थे। अवाम भी गोश्त, हुक्का, पान का सेवन बंद कर देती थी।”
इतिहासकारों के लिखे से पता चलता हैं की, मोहर्रम में लोग आम तौर पर काले कपडे पहनने थे। शाही मुलाजीम, जागीरदारों और अमिरों को मातमी खिलअत (शोक जाहीर करनेवाले कपडे) दिए जाते थे। शाही आशूरखानों को अहतमाम के साथ सजाया जाता था। आशुरखानों में कीमती कालीन फर्श पर बिछाए जाते थे।
बादशाही आशुरखानों और ‘दौलतखाना ए आली’ के आशुरखानों में मेहराबों की दस कतारें बनी होती थी। जिस में चराग रौशन किए जाते थे। इन आशुरखानों में ‘मजलिस ए अजा’ (स्मृति समारोह) का आयोजन किया जाता था। जिसमें बादशाह ए वक्त मुहंमद कुली और अब्दुल्ला कुतुबशाह शामिल होते थे।
‘अय्याम ए अजा’ में सुबह शाम मजलिसें होती थी। जिनमें जाकिर (जिक्र करनेवाला) मरसिया सुनाता था। दोनो सुलतान रोजाना असर (संध्या) के वक्त काला मातमी लिबास पहने घोडे पर सवार होकर महल से निकलते। तमाम वजीर उनके साथ चलते थे। आशुरखाना पहुंचकर अलमों पर फुल चढाते और मगरीब तक ठहर कर मरसिया सुनते। उसके बाद बादशाह अपने हाथ से चराग रौशन करते और अपने महल की और वापस चले जाते थे।
हैदराबाद में मरसिया की महफिलों का खास महत्व है। इसमें जो शरीक होते थे, उन्हें मिसरी और गुलाब का शरबत पिलाया जाता था। खाने का इंतजाम भी मोहर्रम की आम बात थी।
मोहर्रम का मुख्य समारोह हैदराबाद में 10 दिन तक मनाया जाता था। हर दिन के कुछ रिवाज थे। इस्लामी इतिहास को समझने के लिए इतिहासकथन की महफिलें रोज सजायी जाती थी। मोहर्रम की सातवी तारीख को हैदराबाद शहर के तमाम अलम ‘नजरी महल’ में बादशाह के सामने लाए जाते थे।
बादशाह अलमों के साथ पाच सौं कदम चलता। मोहर्रम में करबला के शहीदों के नाम से दान धर्म करना भी एक पुण्यकार्य माना जाता है। इसी वजह से बादशाह की तरफ से मुजावरों को अशरफियों की थैलियां दी जाती थी। मोहर्रम की 10 तारीख को काले कपडे पहनकर लोग नंगे सर ‘दौलतखाना ए आली’ में जमा होते थे।
उस समय बादशाह ए वक्त कुली कुतुबशाह भी मस्जिद में हाजिर होता था। मजलिसें होती फिर फातेहाखानी की जाती थी। आखिर में सबको खाना खिलाया जाता था। इसके बाद दो सौ यतीम लडकों को कपडे और रुपयों की थैली दी जाती थी।
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अन्नदान का महत्त्व
मोहर्रम में लंगर (अन्नदान) की रसम ऐतिहासिक हैसियत रखती है। रशिद मौसवी ने इस बारे में एक वाकिया बयान किया है, “सुलतान अब्दुल्लाह कुतुबशाह जिलहीज्जा की तेरहवीं तारीख को मनमुरत नामी हाथी पर सवार होकर निकला था की यकायक हाथी मस्त होकर जंगल की तरफ भाग निकला।
जंगल में भागा हाथी काफी कई दिनों तक जंगल में रहा। अब्दुल्लाह कुबुतशाह की मां हयात बख्क्षी बेगम बहोत परेशान हो गयी। जंगल के दरख्तों पर खाने के तोशे और पानी की सराईयां बनवायी ताकी शहजादे का हाथी इधर से गुजरे तो शहजादा खा पी सके।
उसने मन्नत भी मांगी की अगर शहजादा सलामती के साथ वापस आ जाए तो सोने का लंगर हाथी के वजन का बनाकर हुसैनी अलम पर चढाऊंगी और गरीबों में तक्सिम करुंगी।
एक महीना तीन दिन के बाद हाथी की मस्ती कम हो गयी और शहजादा सही सलामत वापस आ गया। और हयात बख्क्षी बेगम नें मन्नत के मुताबिक 12 सेर सोने का लंगर शहजादे की कमर से बांधकर जुलूस के साथ हुसैनी अलम तक ले गयी और गरीबों में तक्सीम किया। इसी की याद में लंगर निकालने का रिवाज शुरु हुआ।”
औरंगजेब के द्वारा मुहंमद तानाशाह के दौर में कुतुबशाही का खात्मा होने तक यह सारे रिवाज चल रहे थे। इसके बाद मोहर्रम कि रुसुख कम होता गया। मगर जल्द हैदराबाद की निज़ाम सल्तनत की स्थापना हुई और फिर एक बार इमामबाडों और आशुरखानों
के साथ शिया रिवाजों के लिए सरकारी मदद मिलना शुरु हुई।
जिस तरह से कुतुबशाह खानदान के बादशाह मोहर्रम में शिरकत करते उसी तरह आसिफीया खानदान के निज़ाम हुक्मरान भी मोहर्रम में शामिल होते थे। निजाम बादशाहों ने हैदराबाद के शिया समुदाय के साथ अपना खास रिश्ता बनाया था। जिस वजह से कई शिया निज़ाम हुकूमत में अहम ओहदों पर काम करते थे।
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सोलापूर निवासी वाएज दकनी इतिहास के संशोधक माने जाते हैं। उर्दू और फारसी ऐतिहासिक ग्रंथो के अभ्यासक हैं। दकन के मध्यकाल के इतिहास के अध्ययन में वे रूची रखते हैं। उन्होंने हैदराबाद के निजाम संस्थान और महाराष्ट्र के मराठा राजवंश पर शोधकार्य किया हैं। कई विश्वविद्यालयों में उनके शोधनिबंध पढे गए हैं। वे गाजीउद्दीन रिसर्च सेंटर के सदस्य हैं।