कैसी थी मलिका ‘बेगम समरू’ की रोमांचक जिन्दगी?

किताबीयत : बेगम समरू का सच

तिहास ज्यादातर लोगों के लिए बोरिंग विषय हैलेकिन जो उसमें डूबता हैयह उसे उतना ही मजा भी देता है। एक के बाद एक जिज्ञासा से नये-नये सूत्र मिलते हैं और उन सूत्रों से एक ऐसी कहानी आकार लेती हैजिसका अंदाजा उसने लगाया भी नहीं था।

लिहाजा इतिहास से भागे नहीं और ना ही उसे गले लगाएंलेकिन उसे जाने जरूर। क्योंकि इतिहास में ही वर्तमान की समस्याओंतो कई बार भविष्य की भी समस्याओं के समाधान छिपे होते हैं। ऐसा ही एक इतिहासबेगम समरू का इतिहासजिससे मैं अभी तलक अंजान थाहाल ही में उसे जानने-समझने का मौका मिला।

इतिहास की कोई किताब से नहींमैंने उन्हें फिक्शन के जरिए जाना। बल्कि यूं कहें तो ज्यादा बेहतर होगाइतिहास और फिक्शन की मिली-जुली किताब से। संवाद प्रकाशन से हाल ही में आई, ‘बेगम समरू का सच’ भारतीय इतिहास के गंभीर अध्येता राजगोपाल सिंह वर्मा की पहली किताब है। जिसको लेखक ने ‘बेगम समरू’ जैसे ऐतिहासिक किरदार के इर्द-गिर्द बुना है।

किताब दरअसल, सरधना की मशहूर बेगम समरू (Begum Samru) (1753-1836) की जीवनकथा है, जिसने आधी सदी से ज्यादा समय यानी 58 साल तक सरधना की जागीर पर अपनी शर्तों, सम्मान और स्वाभिमान के साथ राज किया। एक ऐसे दौर में जब सत्ता का संघर्ष चरम पर था, मुगल, रोहिल्ले, जाट, मराठा, सिख, राजपूत, फ्रेंच शासक-सेनापति अपनी-अपनी सत्ता बचाने-बढ़ाने के लिए एक-दूसरे से आपस में संघर्षरत थे।

साम्राज्यवादी ईस्ट इंडिया कंपनी सियासत की अपनी नई-नई चालोंकूटनीति और षडयंत्रों से आहिस्ता-आहिस्ता भारत के विशाल भू-भाग पर कब्जा करने में लगी हुई थीऐसे हंगामाखेज माहौल में बेगम समरू ने अपनी सूझबूझ और कुशल नेतृत्व क्षमता से न सिर्फ अपनी रियासत को बचाए रखाबल्कि उस रियासत में रहने वाली अवाम को भी खुशहाल बनाया।

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एक साधारण तवायफ

बेगम समरू की शख्सियत के प्रति सम्मान इसलिए और भी बढ़ जाता है कि इस महिला ने जिसका वास्तविक नाम फरजाना थाउसकी न तो कोई सम्मानजनक पृष्ठभूमि थी और न ही वह किसी शाही घराने से वास्ता रखती थीवह तो एक साधारण तवायफ थीजिसे किस्मत ने सरधना की बेगम बना दिया था।

तकदीर ने फरजाना को जो मौका दिया थाउसने इस जिम्मेदारी को इस तरह से निभाया कि वह इतिहास में अमर हो गई। ऐसे बेमिसाल किरदार को जिसे इतिहास ने बिल्कुल बिसरा दिया हैजिसके बारे में तरह-तरह की किंवदंतियां मशहूर हैंउस किरदार का जिन्दगीनामा लिखनावाकई आसान काम नहीं।

लेखक की तारीफ की जाना चाहिए कि अट्ठाहरवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर उन्नींसवीं सदी के साड़े तीन दशकों तक फैलेबेगम समरू के लंबे जीवन और उत्तर भारत के पूरे सियासी घटनाक्रम पर उन्होंने तटस्थता और प्रामाणिक तथ्यों के साथ लिखा है।

उनके लेखन में कहीं भी भटकाव नजर नहीं आता। एक ऐसे दौर में जब इतिहास इरादतन या फिर एक साजिश के तहत बदला जा रहा होया फिर तथ्यों को दरकिनार कर उससे छेड़छाड़ की जा रही होवाकई बड़ी बात है। इतिहास लेखन गंभीर अध्ययन-अनुसंधान और तथ्यों के प्रति तटस्थता की मांग करता हैइन दोनों ही कसौटियों पर लेखक इस किताब में खरा उतरा है।

इतिहास और आख्यान दोनों के मेल से लेखक ने बेगम समरू की शानदार जीवनी लिखी है। हालांकिइस जीवनी में आख्यान कम और इतिहास ज्यादा है। बेगम समरू के किरदार में इतने रंग और शेड हैं कि उन्हें और भी दिलचस्प तरीके से पेश किया जा सकता था।

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रोमांचक जिन्दगी पर रोशनी

बेगम समरू के अलावा लेखक ने रेन्हार्ट सोंब्रेजार्ज थॉमसली-वासे के किरदारों पर भी कम मेहनत की है। जबकि इन सारे किरदारों की भूमिका किसी से भी कम नहीं। यही नहीं गुलाम कादिर और शहंशाह शाह आलम के किरदार और भी नाटकीय हो सकते थे। बावजूद इसके यह किताबअंत तक बांधे रखती है। अतीत के विस्तृत विवरणइसे बोझिल नहीं बनाते।

ऐसा नहीं कि बेगम समरू पर पहले नहीं लिखा गयाहिंदी और अंग्रेजी दोनों ही जबानों में उनकी रोमांचक जिन्दगी पर कई किताबें मसलन ‘सात घूंघट वाला मुखड़ा’ (अमृतलाल नागर), ‘दिल पर एक दाग’ (उमाशंकर), ‘बेगम समरू ऑफ सरधना’ (माइकल नारन्युल), ‘समरूद फीयरलेस वारियर’ (जयपाल सिंह), ‘सरधाना की बेगम’ (रंगनाथ तिवारी), ‘आल दिस इज एंडेड : द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ बेगम समरू ऑफ सरधना’ (वेरा चटर्जी) आदि लिखी गई हैं।

लेकिन यह सारी किताबें उनकी बेजोड़ शख्सियत से सही इन्साफ नहीं करतीं। ऐसे दौर में जब भारतीय समाज में महिलाओं को आज़ादी नाम मात्र की थीयहां तक कि वे अपनी जिन्दगी से जुड़े हुए फैसले भी खुद नहीं ले पाती थीं।

सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक तौर पर ऐसे विषमतापूर्ण माहौल में बेगम समरू द्वारा अपनी पूरी जिन्दगी एक जांबाज यौद्धा के तौर पर जीनारियासत का नेतृत्व करते हुए एक साथ कई मोर्चों पर जूझनासत्ता के अनेक केन्द्रों से संतुलन बनाए रखनायुद्ध की रणनीतियों को कुशलतापूर्वक अंजाम देनामुस्लिम से कैथोलिक ईसाई बननाजर्मन और फिर फ्रेंच सेनापति से विवाह संबंधों में बंधनायह सारी बातें उनके किरदार को अनोखा बनाती हैं।

एक ऐतिहासिक तथ्य और जिसे जानना बेहद जरूरी हैबेगम समरू ने अपनी जान पर खेलकर दो बार मुगल सम्राट शाह आलम की जान भी बचाई थी। बेगम समरू के इस बहादुरी भरे कारनामे की ही वजह से मुगल बादशाह ने उन्हें ‘जेब-उन-निसा’ की उपाधि दी थी।

बेगम की जिन्दगानी के बारे में ऐसे और भी न जाने कितने दिलचस्प तथ्य और सच, ‘बेगम समरू का सच’ किताब में बिखरे पड़े हैं। लेखक ने कुछ इस तन्मयता से लिखा है कि किताब में बेगम समरू साकार हो गई हैं।

वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल ने किताब की संक्षिप्त प्रस्तावना में बेगम समरू के अनछुए पहलुओं पर पर्याप्त रोशनी डालने के साथ-साथहिन्दी में क्यों अच्छे ऐतिहासिक उपन्यासनहीं आ पाये ?, इस पर सारगर्भित टिप्पणी की है।

उनका कहना हैहिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास तो मिलते हैंलेकिन इतिहास में साहित्य नहीं मिलता।शंभूनाथ शुक्ल का दावा और सोच है कि ‘बेगम समरू का सच’ इस कमी को पूरा करता है। किताब पढ़करशायद बाकी लोग भी उनकी इस बात से इत्तेफाक रखें। कम से कममैं तो इस नतीजे पर पहुंचा ही हूं।

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किताब का नाम बेगम समरू का सच

लेखक : राजगोपाल सिंह वर्मा

प्रकार जीवनी

कीमत : 300 (पेपर बैक), 600 (हार्डबाउंड)

प्रकाशक : संवाद प्रकाशनमेरठ

ऑनलाईन : बेगम  समरू का सच

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