भारतीय भाषाओं में कुऱआन के अनुवाद का रोचक इतिहास

भारत में इस्लाम के आगमन के साथ ही कुऱआन के भाषांतर का इतिहास शुरु होता है। इस ग्रंथ का पहला अनुवाद दसवीं सदी के आखिर का गुजराती (उर्दू) है, जिसकी भाषा मसनवी यूसुफ ए जुलैखासे भी पुरानी है।

इसके साथ ही दकनी, हिन्दवी, मराठी और उर्दू भाषा में कुऱआन के अनुवाद का इतिहास भी रोचक है। शाह वलिउल्लाह के बेटे शाह अब्दुल कादर, सातवें निज़ाम उस्मान अली और मीर मुहंमद याकूब खान ने अलग-अलग भाषाओं में कुऱआन के भाषांतर में बडा योगदान दिया है। इस इतिहास पर एक नजर

भारत में इस्लामी समाजक्रांति में विविध भाषाओं में हुए अनुवादित कुऱआन का काफी महत्त्व रहा है। आज कुऱआन का भारत के सेकडों भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध है। मगर इनमें सबसे पहले किस भारतीय भाषा में कुऱआन को अनुवादित किया गया यह कह पाना मुश्किल है।

उपलब्ध स्त्रोतों कि संदिग्धता, परस्परविरोधी दावों के चलते हम किसी भी अंतिम तथ्य को प्रस्तुत नहीं कर सकते। मगर यह जरुर कहा जा सकता है कि मुग़ल काल से पहले ही कुऱआन को भारतीयों तक पहुचाने के प्रयास शुरु हो चुके थे।

अल् बेरुनी ने इस सोच को आम करने में बडा योगदान दिया की, मुसलमानों को भारत कि जातियों, प्रादेशिक बोलीयां और संस्कृति को समझकर इस्लाम का प्रचार करना होगा। उसने कुछ हद तक भारत के धर्मग्रंथों का अन्य भाषाओं में परिचय करवाने कि सफलतापूर्ण कोशिश की।

अल् बेरुनी के बाद कई विद्वानों ने उसकी विचारधारा को आगे बढाया जिनमें अमीर खुसरो से लेकर अबुल फज्ल तक कई विद्वानों का उल्लेख किया जा सकता है। कुऱआन को प्रादेशिक भाषा में पहुंचाने के इतिहास का प्रारंभ होता है, मुहंमद तुग़लक के काल से।

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दकनी अनुवाद

मुहंमद तुग़लक विद्वान और प्रयोगशील राज्यकर्ता था, उसके पास कल्पनाओं और योजनाओं कि भरमार थी। इस्लाम के संदर्भ में भी उसने कुछ नए प्रयोग करने कि कोशिश की। इस्लामी न्यायव्यवस्था (फिकह) को पूर्णतः लागू करने की नाकाम कोशिश के बावजूद उसने मध्यकालीन न्यायसंस्था के पुनर्गठन में बडा योगदान दिया है।

तुग़लक के दौर में जब राजधानी में परिवर्तन हुआ तो उत्तर के उलमाओं (विद्वान) का दकन से पहली बार संबंध आया। दकन के प्रख्यात सूफि हजरत बन्दा नवाज गेसू दराज के पिता राजू कत्ताल भी मुहंमद तुग़लक के साथ दौलताबाद आए थे। उन्होंने ही पहली बार दकनी भाषा के महत्त्व को समझा और कुऱआन कि आयतों के काव्यात्म भाषांतर कि कोशिश की।

मगर बडे अफसोस के साथ यह कहना पडता है की, अन्य सूफियों कि तरह हजरत राजू कत्ताल के एक-दो कलाम को छोडकर अन्य किताबें उपलब्ध नहीं है। हजरत राजू कत्ताल द्वारा किए गए कुऱआन के काव्यात्म भाषांतर कि अनुपलब्धता आज हमें किसी भी तथ्य तक पहुंचने से रोकती है।

हजरत राजू कत्ताल के बाद हुसैनी नामी कोई विद्वान थे, जिन्होंने कुऱआन का विश्लेषण फारसी भाषा में लिखा था। इस विश्लेषण को काफी सामाजिक स्वीकारार्हता भी मिली है। इसका अनुवाद किसी ने दकनी भाषा में किया था, मगर दकनी के अनुवादक के बारे में कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है।

भाषांतर कि हस्तलिखित प्रति पर अनुवादक ने तारीख और माह का उल्लेख किया है, (बरोज जुमा, बवक्त असर, दो माह, जमादिल आखिर) मगर इस में वर्ष का उल्लेख न होने कि वजह से यह अनुवाद कितना पुराना है, इस विषय में कुछ कह पाना मुश्किल है। मगर भाषा कि प्रवृत्ती को देखा जाए तो यह अनुवाद भी मध्यकालीन मालूम होता है।

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काव्यात्म अनुवाद

तफ्सीर ए हुसैनी के बाद कुऱआन कि आयतों कामंजूम तर्जुमा’ (काव्यात्म अनुवाद) किया गया। मगर अफसोस कि इस काव्यानुवाद कि पूरी प्रती उपलब्ध न होने कि वजह से इसके काव्यानुवादक का नाम हमें नही पता चल सका। कुऱआन के अरबी स्वरूप कि मिठास इस काव्यानुवाद में झलकती है।  

इस अनुवाद में से सूरह रहमान का काव्यानुवाद उदाहरण स्वरूप यहां दे रहे हैं –

ऐ लोगों, तुम करो बिकान

जिसका मिठा नाम रहमान

जिन सिखाया है कुऱआन

जिन सरजा है इन्सान’ (1 से 4)

सूरह रहमान कि एक दूसरी आयत –

सिखाया तुम को सभी बयान

चांद सूरज सुं हिसाब पछान

झाड पेड भी नहीं सुभान

सज्दा करे है ओसको कोमान’ (5:6)

(मौलवी अब्दुल हक का मानना है की, तिसरी पंक्ती में नहीं शब्द गलत है और उसकी जगह झुकनाशब्द होना चाहीए)

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निजाम द्वारा मराठी अनुवाद

ईसवीं 1915 में मुंबई के हकिम मीर मुहंमद याकूब खान ने कुऱआन का मराठी में अनुवाद किया था। इसको प्रकाशित करने के लिए उन्होंने हैदराबाद रियासत के आखरी निजाम मीर उस्मान अली खान को आर्थिक सहाय्यता मांगी थी।

हैदराबाद रियासत में एक बडा हिस्सा मराठी भाषिकों था, जिसकी वजह निजाम ने इसमें काफी दिलचस्पी दिखाई थी। इस अनुवाद के शास्त्रशुद्धता को परखने के लिए निजाम ने मद्रास के चीफ इन्स्पेक्टर मिस्टर वेलणकर को इसकी प्रती भेजी थी, जिसके बाद उन्होंने इस अनुवाद की काफी तारीफ कि थी। इसके बाद निजाम ने 7 हजार 500 रुपये का अनुदान दिया था। जिसके बाद इस मराठी अनुवाद का प्रकाशन हुआ था।

कोल्हापुर संस्थान के श्रीमंत छत्रपति शाहू महाराज नें भी मराठी में कुऱआन के अनुवाद के लिए कोशिश करने के प्रमाण मिलते हैं। उन्होंने खुद से इसके लिए अनुवादक मुकर्रर कर उसके लिए शाही खजाने से अनुदान दिया था।

कहा जाता हैं कि कुऱआन सिर्फ मुसलमानों तक सिमित न रहकर सभी जाति, समुदाय तथा धर्म के लोंगों को पढ़ने के लिए उपलब्ध हो, इसके लिए उन्होंने मराठी में कुऱआन भाषांतर करने के प्रकल्प शुरु किया था।

वसुधा पवार अपनी किताब राजर्षि छत्रपति शाहू : एक अभ्यास में लिखती हैं, उस समय मुसलमानों क लिए सरकारी जमीन उपलब्ध करवाकर उसीपर मुसलमानों के प्रार्थना के लिए मस्जिदों का निर्माण करवाया।

इतना ही नही बल्कि अरबी भाषा में मौजूद कुऱआन आम मुस्लिम रैयत को पढ़ने और समझने के लिए उन्होंने कुऱआन के भाषांतर का उपक्रम शुरू किया, इस प्रकल्प पर उन्होंने 25 हजार रुपये खर्च करने के प्रमाण मिलते हैं।

टी. बी. नाईक अपनी किताब छत्रपति शाहू महाराज में लिखते हैं, इस भाषांतर के लिए उन्होंने हकिम भोरेखान, अब्दुल इनामदार, गुलाम महमूद मास्तर और एक अन्य मौलवी के देखरेख में एक कमिटी कि स्थापना की गई थी।

दो-चार साल में कुऱआन का आधा हिस्सा अनुवादित हो चुका था। कल्लप्पा निटवे इनके जैन प्रेस को छपाई का ऑर्डर दिया गया था और इसका बिल छत्रपति शाहू ने अपने के पास भेजने के आदेश दिए थे।

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गुजराती का इतिहास

कुऱआन के सबसे पुराने गुजराती अनुवाद के बारे में मौलवी अब्दुल हक का तथ्य महत्त्वपूर्ण है। वह कहते हैं, कुऱआन शरीफ के सबसे पुराने गुजराती तर्जुमें के बारे में कोई राय कायम करना मुश्किल है। कुऱआन के सूरह यूसुफ का जो गुजराती अनुवाद हुआ है, वह सबसे पुराना मालूम होता है।

जो अनुवाद मुझे मिला वह अपूर्ण है, अनुवाद पूर्ण रुप से उपलब्ध न होने कि वजह से इस के अनुवादक कि तथा अन्य जानकारी नहीं मिल सकती। मगर भाषा के ढंग से अंदाजा लगाया जा सकता है की, यह दसवीं सदी के आखिर में किया गया है, क्यों कि इसकी भाषा यूसुफ ए जुलैखा’(मसनवी) जो काफी पुरानी किताब है, से काफी अलग है।

गुजराती अनुवाद के बारे में एक और संदर्भ उपलब्ध है, जो सातवें निजाम से जुडा हुआ है।

मराठी में कुऱआन का अनुवाद प्रकाशित होने के बाद, फरवरी 1917 में हकिम मीर मुहंमद याकूब खान ने कुऱआन का गुजराती अनुवाद भी किया और इसके लिए भी उन्होंने निजाम से मदद मांगी थी।

जिसके बाद इस अनुवाद का कुछ हिस्सा मंगवाकर इसकी शास्त्रशुद्धता को परखा गया। जिसके बाद इस अनुवाद को प्रकाशित करने के लिए 3 हजार 700 रुपये का अनुदान दिया गया।

गुजराती को मराठी अनुवाद के मुकाबले कम अनुदान देने के संदर्भ में खुलासा करते हुए निजाम सरकार कि तरफ से कहा गया कि,

मराठी भाषा हैदराबाद संस्थान कि रियासती जुबान है। मगर गुजराती से रियासत कोई तआल्लुक नहीं है। इस लिए मराठी में कुऱआन का अनुवाद रियासत का फर्ज बनता है, तो उसके लिए ज्यादा अनुदान दिया गया है और गुजराती के लिए कम अनुदान दिया गया है।

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हिन्दवी अनुवाद

कुऱआन के हिन्दी अनुवाद का इतिहास भी महत्त्वपूर्ण है। इस भाषा में कुऱआन का पहिला अनुवाद शाह अब्दुल कादर ने किया था, वह इस्लामी समाज सुधारक शाह वलिउल्लाह के बेटे तथा इस्लामी फलसफे के विद्वान थे।

शाह अब्दुल कादर का अनुवाद हिन्दी का पहला अनुवाद माना जाता है। विद्वानों कि राय में यह हिन्दवी या हिन्दुस्तानी भाषा है। उनको इस भाषा में कुऱआन के अनुवाद के लिए 12 साल लगे थे।

हिन्दी अनुवाद से कुछ आयतें हम यहा उदाहरण स्वरुप दे रहे हैं –

तू कह मै बे एक आदमी हूं जिसे तुम हुकूम आता ही मुझको के तुम्हारा साहब एक है फिर जिसको उम्मीद हो मिलती के अपने रब से सो करी कुछ काम नेक और साझा न रखीं अपने रब की बंद के मैं कसे का

(सूरह कहफ : 110)

सारांश

भारत में 11 वीं सदी ईसवीं से ही कुऱआन के अलग अलग भाषा में अनुवाद का कार्य शुरु हुआ था। आज भी कुऱआन के कई मध्ययुगीन अनुवाद उपलब्ध हैं।

कई मुस्लिम रियासतों ने कुऱआन कि लिपीयां बनाने की भी कोशिशें कि थी, जिनमें एक पुरानी कॉपी बिजापूर और हैदराबाद के वस्तु संग्रहालय में मौजूद है। इस संदर्भ गंभीर संशोधन की जरुरत है, जिसके जरीए एक महत्त्वपूर्ण इतिहास को उजागर किया जा सकता है।

उसी तरह छत्रपति शाहू के सहयोग से अनुवादित हुई कुऱआन के प्रतियों कि खोज करनी चाहीए। कहते हैं, यह इसके कुछ अध्याय छपवाकर तैयार थे।

इससे अंदाजा लगाया जा सकता हैं कि यह किताब अब भी मौजूद हैं। पर अफसोस कि आज उसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नही होती। यह केवल सौ साल पुरानी घटना हैं, अगर सहीं दिशा में शोध करेंगे तो छत्रपति शाहू द्वारा अनुवादित की गए इस महाग्रंथ का जरूर पता लग सकता हैं।

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