इरतिका के सभी रास्ते बंद पहले किये जाएगे
बाद में सारी पसमांदगी हम से मंसूब की जाएगी
–नईम अख्तर खादमी
भारत आबादी और क्षेत्रफल की दृष्टी से एक बड़ा देश हैं। भारत के कोने–कोने में मुसलमान बसते हैं। मुसलमान भारत का अटूट अंग हैं। मुसलमानों की अपनी भाषा, संस्कृती और जीवन शैली हैं। इस के बावजूद मुसलमानों को भारत में हमेशा नज़र अंदाज़ किया गया।
मुसलमानों को कदम कदम पर भेदभाव का शिकार होना पड़ता हैं और भारत में तो सामाजिक भेदभाव का सदीयों पुराना इतिहास रहा हैं। मुसलमान आज़ादी के बाद से ले कर आज तक पिछड़ेपन का शिकार रहे हैं। तब से लेकर आज तक देश के दूसरे नंबर के बहुसंख्य समुदाय की राजनीतिक भागीदारी एवं सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक परिस्थिती बड़ी चिंताजनक रही हैं।
आज अगर इस समुदाय को शिक्षा, रोज़गार एवं राजनीतिक क्षेत्र में आरक्षण दिया जाए तो यह समुदाय मुख्य धारा में आ सकता हैं जो कि, संसाधनों के अभाव में इन क्षेत्रों में मुख्य धारा से बहुत दूर हैं। प्रस्तुत लेख में मुसलमानों की भारत और महाराष्ट्र में राजनीतिक भागीदारी के साथ साथ वर्तमान परिस्थितियों का जायज़ा लिया गया हैं।
भारत में मुसलमानों का समावेश अल्पसंख्यकों में होता हैं। विभिन्न राजनीतिक विशेषज्ञों ने अल्पसंख्यकों की अलग-अलग व्याख्याएँ की हैं। सुभाष सी. कश्यप और विश्वप्रसाद गुप्त के अनुसार,
“अल्पसंख्यक मतलब बहुमत के विरुद्ध मतदान करने वाली छोटी संख्या अथवा भाग। किसी देश या जनसमुदाय में लोगों का अल्पसंख्यक वर्ग। वह जनसमुदाय जो संख्या में अपेक्षाकृत कम हो परंतु जिस की अपनी भाषागत, धार्मिक, सांस्कृतिक, सांप्रदायिक अथवा जातिगत विशेषताएँ हो और वे उन का संरक्षण चाहते हो।”
देश में मुसलमानों की राजनीतिक भागीदारी एवं वर्तमान स्थिती को समझने के लिए मुसलमानों की जनसंख्या की जानकारी होना बेहद जरुरी हैं। ताकि हमें पता चल सके कि, भारत में बसने वाली आबादी का कितना प्रतिशत इस समुदाय से आता हैं एवं उन की समस्याएं क्या हैं?
जनगणना आयुक्त सी. चंद्रमौली द्वारा 2011 में भारत जनगणना हुई। यह 15वी राष्ट्रीय जनगणना थी। अंतिम जारी प्रतिवेदन के अनुसार भारत की आबादी 2011 में ‘01,21,01,93,422’ थी। इन में मुसलमानों की संख्या 17.22 करोड़ मतलब कुल जनसंख्या का 14.23 प्रतिशत थी।
वही दूसरी तरफ महाराष्ट्र की कुल आबादी 11,23,72,972 मतलब देश की कुल जनसंख्या का 9.29 प्रतिशत थी। इस में मुसलमानों की कुल संख्या 01,29,71,152 मतलब राज्य की कुल आबादी का 11.54 प्रतिशत थी।
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सार्वजनिक शिक्षा
अगर हम शिक्षा के क्षेत्र की बात करें तो इस क्षेत्र में मुसलमान बाकी सभी समुदायों से काफी पीछे हैं। चाहें फिर हम देश की बात करें या महाराष्ट्र की। शिक्षा के मामले में अन्य समुदायों से बहुत पीछे हैं। इस के कई कारण हैं, जिन में से मुख्य कारण हैं संसाधनों का अभाव। इस अभाव के कारण मुस्लिम छात्र एवं छात्राएं अपनी पढ़ाई मुकम्मल नहीं कर पाते और बिच में ही शिक्षा अधूरी छोड़ कर कमाने के लिए निकल जाते हैं।
आज अगर हम बाल मज़दूरी की बात करें तो इस में मुस्लिम बच्चों की संख्या काफी चिंताजनक हैं, जो छोटे मोटे काम कर के अपनी आजीविका हेतू संघर्ष करते नज़र आते हैं। दूसरा बड़ा कारण हैं आरक्षण। आरक्षण ना होने के कारण मुसलमानों को आरक्षित वर्गों से अधिक फीस चुकानी पड़ती हैं। जिसे चुकाने में अधिकांश मुस्लिम परिवार सक्षम नहीं होते। इस का परिणाम ये होता हैं कि या तो वे शिक्षा को बिच में ही छोड़ देते हैं या ना चाहते हुए भी अन्य कोर्सेस में प्रवेश लेने पर मजबूर हो जाते हैं।
यहाँ एक पहलू छात्रवृत्ती का भी हैं। मुस्लिम छात्र एवं छात्राओं को आवश्यकता के अनुरूप छात्रवृत्ती नहीं मिल पाती या जहाँ मिलती भी हैं तो वो समय पर नहीं मिलती। तीसरा मुख्य कारण हैं वह सोच जो भेदभाव एवं शासक दल की विचारधारा और उस के खुल–ए–आम प्रचार के कारण मुसलमानों में पनप रही हैं कि, पढ़ाई मुकम्मल होने के बाद भी मुसलमानों को नौकरीयां नहीं मिलती।
इस सोच को पूरी तरह से स्वीकारा नहीं जा सकता मगर पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं कि, केवल धर्म विशेष के अनुयायी होने के कारण उन्हें नौकरी नहीं दी जाती या घर किराए पर नहीं दिया जाता। ऐसे कई कारण हैं जिस की वजह से मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में बाकी समुदायों से पिछड़े हुए हैं। आंकडों की बात करे तो देश की कुल 68.5 प्रतिशत हैं, जिसमें मुस्लिम समुदाय 12.7 प्रतिशत के अंतर में आता हैं।
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दूर जाते रोजगार
यदि हम रोज़गार की बात करें तो इस क्षेत्र में भी मुसलमानों की दुर्दशा नज़र आती हैं। इस मामले में भी मुसलमान अन्य समुदायों से पिछड़े हुए नज़र आते हैं। रोज़गार का कोई भी क्षेत्र हो वहां मुसलमानों की भागीदारी बेहद चिंताजनक हैं। फिर चाहें वह कृषि क्षेत्र हो, उद्योग हो, पारंपरिक अथवा आधुनिक सेवाओं का क्षेत्र हो या फिर चाहें संघटित या असंघटित सेवाओं का क्षेत्र हो। हर क्षेत्र में मुसलमान अन्य समुदायों से पिछड़े हुए हैं।
अलग-अलग रिपोर्टों और जारी सरकारी आंकडों से हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि, कैसे मुस्लिम समुदाय भारत में रोज़गार के क्षेत्र में अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करता हैं और क्यों छोटे मोटे काम करने पर मजबूर हैं। रोज़गार के हर क्षेत्र में आज मुसलमान अनुसूचित जाती एवं जनजातीयों से भी अधिक पिछड़ा हुआ हैं। सरकारी आंकड़ों के आधार पर कहाँ जा सकता हैं कि, आज भारत में मुसलमानों के हालात अनुसूचित जाति एवं जनजातियों से भी बदतर हैं। इन हालात को बदलने में आरक्षण महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं।
अगर हम सार्वजनिक सेवाओं में मुसलमानों की भागिदारी की बात करें तो यहां भी निराशा ही हाथ लगती हैं, क्योंकि सार्वजनिक सेवाओं में भी मुसलमानों की भागीदारी नगण्य ही हैं। स्वास्थय विभाग में मुसलमानों की संख्या केवल 4.5 प्रतिशत हैं, जबकि न्यायालयीन सेवाओं में मुसलमानों की भागीदारी 7.8 प्रतिशत हैं जबकि प्रशासकीय सेवाओं में 3 प्रतिशत, पुलिस विभाग में 4 और विदेश सेवाओं में 1.8 प्रतिशत हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में 6.5 प्रतिशत, रेल्वे सेवाओं में 4.5, गृह विभाग में 7.3 प्रतिशत मुसलमानों की भागीदारी हैं जबकि आबादी में यही भागीदारी 14.23 प्रतिशत हैं। इन आंकड़ों से साफ़ हैं कि, रोज़गार एवं सार्वजनिक सेवाओं में आज भी मुसलमान आबादी के अनुपात में भागिदारी से वंचित हैं।
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राजनीतिक प्रतिनिधत्व
अगर मुसलमानों की राजनीतिक भागीदारी की बात की जाए तो और भी ज़्यादा निराशाजनक आंकड़े सामने आते है। भारत की संसद में मुस्लिम सांसदों का प्रतिनिधीत्व आज़ादी के बाद से ले कर आज तक कभी भी 10 प्रतिशत से अधिक नहीं रहा। मुस्लिम सांसदों की सब से अधिक संख्या (49 सांसद) 1980 की 7वीं लोकसभा में थी जो की कुल सीटों का 9.26 प्रतिशत थी।
यदि 1951-2019 तक की 17वीं लोकसभा में मुस्लिम प्रतिनिधीत्व की बात की जाए तो आज़ादी के बाद से आज तक मुसलमानों का प्रतिनिधीत्व संसद में आबादी के अनुपात में नहीं रहा जो कि चिंताजनक है। एक वह समय था जब भाजपा को अल्पसंख्यकों से संबंधित विचारों के कारण राजनीति में अछूत समझा जाता था और कोई भी राजनीतिक दल (अपवाद छोड़ कर) उस के साथ गठबंधन करने या उसे समर्थन देने हेतू राज़ी नहीं था।
यही कारण था कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार केवल एक मत से गिर गई थी। इस घटना से व्यथीत हो कर वरीष्ठ पत्रकार बलबीर पुंज ने कहा था कि, “देश में कौन सा दल सत्ता में आएगा ये मुस्लिम निश्चित करते है।” धीरे धीरे देश के राजनीतिक हालात बदलते गए। फिर साल 2004 आया और कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी।
कांग्रेस सरकार को वामपंथी दलों का भी समर्थन प्राप्त था और इस समर्थन ने बलबीर पुंज के इस भ्रम को और मज़बूती प्रदान की। यह स्थिती 10 सालों तक बनी रही। देश का राजनीतिक चित्र तेज़ी से बदलने लगा था और अब भाजपा की धूरी आयी अमित शाह और मोदी के हाथों में। इस जोड़ी ने इस भ्रम को तोडा। इन्होंने देश की राजनीति को एक नया फॉर्मूला दिया।
इस फॉर्मूले के अनुसार अब सरकार बनाने या सत्ता प्राप्त करने हेतू मुस्लिम मतों की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस फॉर्मूले के तहत भारत में मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर अछूत बनाया जा रहा है। लेखक के इस दावे की दलील हैं, मुसलमानों के प्रती विश्व के सब से बड़े राजनीतिक दल होने का दावा करने वाली भाजपा का रवैय्या।
अब ना मुसलमानों की बात होती हैं, ना उन्हें टिकट दिए जाते हैं और ना सत्ता में भागीदारी। मोदी और शाह की जोड़ी ने मुस्लिम मतों के बिना भी सत्ता प्राप्ती का फॉर्मूला ढूंढ निकाला हैं जिस की कीमत देश अपने सांप्रदायिक सौहार्द और सहिष्णुता की बली दे कर चूका रहा हैं। लोकसभा में अनुसूचित जाती (SC) के लिए 84 और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं जो कि प्रतिनिधीत्व का क्रमशः 15 एवं 7.5 प्रतिशत हैं।
2021 यह इतिहास के उन अस्वाभाविक पलों में से हैं जब राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, सशस्त्र बलों के प्रमुख, सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों, निर्वाचन आयोग या न्यायपालिका में किसी भी अहम पद पर कोई भी मुस्लिम नहीं हैं।
मोदी सरकार का यह छठा साल हैं और इस सरकार में इस समय केवल एक मुस्लिम मंत्री हैं मुख्तार अब्बास नकवी। देश के 37 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में केवल 02 मुस्लिम राज्यपाल हैं। नजमा हेपतुल्लाह एवं मुहंमद आरिफ खान। जबकि इन 37 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एक भी मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं हैं।
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महाराष्ट्र तो और भी बदतर
अगर भारत के राज्यों की राजनीति में मुसलमानों की सत्ता में भागीदारी की बात की जाए तो भारत के 15 राज्य ऐसे हैं जहाँ कोई भी मुस्लिम मंत्री नहीं हैं। यह 15 राज्य हैं, आसाम, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, उड़ीसा, सिक्किम, त्रिपुरा और उत्तराखंड।
भारत के 10 राज्य ऐसे हैं जहाँ केवल एक एक मुस्लिम मंत्री हैं। इन 10 राज्यों में आंध्रप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडू, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और दिल्ली शामिल हैं। जबकि महाराष्ट्र में 04, केरला में 02 और सब से अधिक पश्चिम बंगाल में 07 मुस्लिम मंत्री हैं।
अगर महाराष्ट्र में मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधीत्व एवं हिस्सेदारी की बात की जाए तो महाराष्ट्र के गठन से ले कर आज मुसलमानों की सत्ता में भागीदारी के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। आज तक महाराष्ट्र की विधान सभा में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधीत्व के लिए मुसलमान संघर्ष करते हुए नज़र आते हैं।
यही वह राज्य हैं जिस ने भेदभाव के विरुद्ध कई आंदोलन देखे और समानता की स्थापना हेतू कई आन्दोलनों का गवाह बना। फिलहाल महाराष्ट्र की विधान सभा की 288 सीटों में से 29 सीटें अनुसूचित जाती (SC) और 25 सीटें अनुसूचित जनजाती (ST) हेतू आरक्षित हैं।
अगर हम महाराष्ट्र के स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं में मुसलमानों की भागीदारी एवं प्रतिनिधीत्व की बात करें तो यहाँ भी निराशा ही हाथ लगती हैं। महाराष्ट्र में 26 महानगर पालिकाएं, 230 नगर परिषदें, 104 नगर पंचायतें, 34 जिला परिषदें, 351 पंचायत समितियां और 27,709 ग्राम पंचायतें हैं।
इन स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं की कुल संख्या 28,454 बनती हैं। इन 28,454 संस्थाओं में कुल 2 लाख 10 हज़ार 747 सीटें हैं। इन 2,10,747 सीटों में से 27,397 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित है जिन में से 50 प्रतिशत सीटें मतलब 13,698 सीटें इसी वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
वहीं 14,752 सीटें अनुसूचित जनजाती (ST) हेतू आरक्षित हैं जिन में से 50 प्रतिशत अर्थात 7376 सीटें इसी वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। जबकि इन 2,10,747 सीटों में से 40,041 सीटें अन्य अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षित हैं जिन में से 50 प्रतिशत अर्थात 20,020 सीटें इसी वर्ग से आने वाली महिलाओं हेतू आरक्षित हैं। इन आरक्षित सीटों पर मुसलमान चुनाव नहीं लड़ सकते। इन आँकड़ों को आसानी से समझने हेतू निम्नलिखित श्रेणी में दर्शाया गया हैं।
इन आंकड़ों से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मुसलमानों के प्रतिनिधीत्व एवं भागिदारी का अंदाज़ा लगाया जा सकता। ऐसा नहीं हैं कि, यह मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक दुर्दशा को बयान करने वाली पहली रिपोर्ट या पहले अध्ययन हैं।
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आयोगों की कतार
मुसलमानों की आर्थिक एवं शैक्षणिक परिस्थिती जानने हेतु आज़ादी के पहले से ले कर आज तक कई आयोग एवं समितियाँ गठीत की गई। इन सब आयोगों एवं समितीयों के अध्ययन में जो बात समान रूप से निकल कर सामने आई वह यह थी कि, भारत में मुसलमान हर क्षेत्र में अन्य समुदायों से पीछे हैं।
रंगनाथ मिश्रा आयोग ने तो मुसलमानों के लिए आरक्षण की भी मांग की थी परंतु इन सब आयोगों एवं समितीयों के अध्ययन और सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। समितीयों एवं आयोगों के गठन का यह खेल आज़ादी के पहले से शुरू हुआ था जो अब भी जारी हैं।
सब से पहले 1871 में विल्यम विल्सन हंटर का का अध्ययन पेश किया गया। इस के बाद 1886 में रॉयल कमिशन की स्थापना की गई। सर सय्यद अहमद खान और काज़ी शहाबुद्दीन इस आयोग के अन्य सदस्यों में से थे। इस आयोग ने विशेष तौर पर न्यायीक सेवाओं में मुसलमानों की कम भागीदारी पर गहरी चिंता जताई थी।
1912 में इस्लिंग्टन आयोग गठीत हुआ। इस आयोग की रिपोर्ट 1917 में प्रकाशित हुई, जिस में यह बताया गया कि, हिन्दुओं की तुलना में मुसलमान 18 में से 13 विभागों में पिछड़े हुए हैं। 1924 में मुद्दीमान आयोग की स्थापना की गई। इस प्रकार मुसलमानों की आर्थिक, शैक्षणिक एवं रोज़गार में भागीदारी जानने के लिए और उन्हें उचित स्थान दिलाने सिफारिशों के लिए आज़ादी से पहले भी अनेक आयोग एवं समितीयाँ गठीत की गई।
आज़ादी के बाद 1965 में प्रकाशित एक दस्तावेज़ में इंदर मल्होत्रा ने रोज़गार के क्षेत्र में मुसलमानों के घटते प्रतिनिधीत्व पर गहरा दुःख व्यक्त किया था। 1968 में अमेरिकी पत्रकार जोसफ लेलीवेल्ड ने भी इस स्थिती के लिए मुसलमानों के गिरते मनोबल और देश में उन के साथ हो रहे खुले भेदभाव को ज़िम्मेदार ठहराया था।
10 मई 1980 को इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा गोपाल सिंह आयोग की स्थापना की गई। उस समय आयोग के कार्य पर 57.77 लाख रुपये खर्च हुए थे। 10 जून 1983 को आयोग ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। सरकार ने इस रिपोर्ट को दबाने का हर संभव प्रयास किया परंतु गोपाल सिंह के निधन के पश्चात दुःख और अल्पसंख्यकों के क्रोध के वातावरण में सरकार ने मजबूरन इस रिपोर्ट को 24 अगस्त 1990 को लोकसभा के समक्ष प्रस्तुत तो किया परंतु तत्कालीन सरकार ने आयोग की सभी महत्वपूर्ण सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया।
1989 में सुरेंद्र नवलखा का चर्चित अध्ययन भी प्रकाशित हुआ। फिर 2005 में मनमोहन सिंह सरकार द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में देश के मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक दशा जानने के लिए एक समिती गठीत की जिस ने अपनी रिपोर्ट 30 नवंबर 2006 को तत्कालीन सरकार को सौंपी।
इस अध्ययन के सामने आने के बाद पहली बार पता चला कि देश में मुसलमानों की दशा अनुसूचित जाती (SC) एवं जनजाती (ST) से भी बदतर और ख़राब हैं। इस समिती की रिपोर्ट भारतीय मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षणिक हालात का आइना हैं।
इस रिपोर्ट के आने के 15 सालों बाद भी देश के मुसलमानों के हालात में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया, मगर इतना ज़रूर हुआ कि, इस रिपोर्ट के आने के आने के बाद मुख्य धारा के तबके में मुसलमानों के पिछड़े पन और विकास के मुद्दों पर खुल कर बात होने लगी हैं। इस रिपोर्ट ने मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास के नज़रिये और संवाद में काफी हद तक तब्दीली लाई हैं।
‘सच्चर की सिफारिशें’ नामक पुस्तक के लेखक अब्दुल रहमान द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना में लिखते हैं, “तथ्य कभी पुराने नहीं होते। विशेष कर जब तक उन्हें सुधारा ना जाए या बेहतर तथ्यों या परिणामों से बदल ना दिया जाए।” यही बात सच्चर रिपोर्ट पर भी लागू होती हैं। इस के पश्चात 2007 में रंगनाथ मिश्रा आयोग का गठन किया गया, जिस का हाल आप सब जानते ही हैं। इस के इलावा विभिन्न राज्यों में भी इस मकसद के तहत समय समय पर विभिन्न आयोग एवं समितीयों का गठन किया जाता रहा हैं।
आंकड़ों की रौशनी में यह बात चमकते हुए सूरज की मानिंद बिल्कुल साफ़ हो जाती हैं कि, आज मुसलमान अन्य समुदायों के मुकाबले हर क्षेत्र में काफी पिछड़े हुए हैं। रोज़गार, शिक्षा एवं राजनीतिक क्षेत्रों में मुसलमानों का प्रतिनिधीत्व कभी भी आबादी के अनुपात में नहीं रहा। आज भारत में मुसलमानों की हालत दलित एवं आदिवासीयों से भी बदतर हैं।
जाते जाते :
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लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।