बादशाह, उलेमा और सूफी संतो कि ‘दावत ए ख़ास’

ध्यकाल में इफ्तार कि दावतों का विशेष महत्त्व था। इन्हीं दावतों के जरिए विद्वानों कि परिचर्चा, मनमुटाव कि बैठकों तथा स्नेहमिलन का आयोजन किया जाता था।

‘दावत ए ख़ास’ के नाम से मशहूर यह इफ्तार भोज समाज के तीन भिन्न वर्गोंद्वारा आयोजित किया जाता था, जिनमें कुलीन वर्ग के प्रतिनिधी, बादशाह, सूफी संत और उलेमाओं का समावेश था। इस आलेख में मुहंमद तुघलक, हसन बहामनी और निज़ामुद्दीन औलिया से जुडी ‘दावत ए खास’ कि कुछ जानकारी…

ध्यकाल में बादशाह रमज़ान के महिने में अक्सरदावत ए ख़ासका आयोजन करते थे। इन दावतों में विशेष रुप से बादशाह के परिजन, मित्र, अमीर, मंत्री और शहर के मशहूर लोगों को विशेष रुप से आमंत्रित किया जाता था।

इस जरिए बादशाह राजनैतिक प्रभाव रखनेवाले इस वर्ग के साथ अपने रिश्तों को मजबूत करते थे। इन मेहमानों को तोहफे देना, दावत के जरिए पुराने विवादों को खत्म करना आदी कोशिशें कि जाती थी। इसी लिए युद्धभूमी के लिए रमज़ान को एक संधीकाल के तौर पर देखा जाता था।

एक तरफ बादशाहदावत ए ख़ासका आयोजन करते, तो दूसरी और ऐसी ही दावत उस वक्त के उलेमा (विद्वान) और सूफीयों द्वारा भी आयोजित कि जाती थी। सूफियों और उलेमाओं के दावतों मे काफी फर्क होता था।

उलेमाओं कि दावतें विद्वानों और विद्वत्तापूर्ण चर्चाओं तक सिमित रहती थी। मगर सूफीयों कि दावत में समाज के हर वर्ग को शामिल किया जाता था। गरीबों, यतीमों और मोहताजों को सूफीयों कि दावतों में विशेष अतिथी का दर्जा हासिल था।

पढ़े : तुघ़लक काल में कैसे मनाई जाती थी रमज़ान ईद?

पढ़े :निज़ाम हुकूमत में कैसे मनाया जाता था रमज़ान?

उलेमाओं कि दावत ए ख़ास

सुलतान अल्तमश के दौर से दिल्ली शहर में कई मदरसे चल रहे थे। इन मदरसों में देश-विदेश के सैकडों विद्यार्थी शिक्षा ले रहे थे। यहां विदेश से आए मशहूर उलेमाओं को बतौर एक शिक्षक नियुक्त किया गया था। इन मदरसों में रमज़ान काल में अक्सर परिचर्चाओं का आयोजन किया जाता था। इन चर्चाओं में दिल्ली शहर के विद्वान, इतिहासकार, बादशाहों के परिजन और सूफीयों के मुरीद शामिल होते थे।

इस्लामी हुकूमत कि बुनियादों से लेकर, उसके उसुल, अवाम के अधिकार, जकात कि व्यवस्था, मालगुजारी, इस्लाम में राज्य कि संकल्पना ऐसे कई मुद्दों पर बहस होती थी। कई बार इन मदरसों में सूफियों को आमंत्रित किया जाता था, जिनके साथएकेश्ववाद कि इस्लामी संकल्पनापर बहस कि जाती थी।

सूफियों के एकेश्वरत्व कि संकल्पना पर हमेशा से उलेमाओं द्वारा टीकाटिप्पणी होती रही है। मगर आज जिस तरह इस विषय को गंभीर और असंवेदनाक्षम सूरत दी गयी है, वैसी हालत मध्यकाल में नहीं थी।

दिल्ली में 14वी सदी तक अपने उत्कर्ष को पहुंचेकुतुबियामदरसे कि कई चर्चाओं में प्रख्यात सूफी संत हजरत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, नसिरुद्दीन चराग दहेलवी ने शिरकत कि थी।

पढ़े : मुग़लकाल में दिवाली भी ईद की तरह मनाई जाती

पढ़े : इतिहास लिखने ‘जंग ए मैदान’ जाते थे अमीर ख़ुसरो

इन्हीं चर्चाओं में उस दौर के मशहूर उलेमा जियाउद्दीन बरनी भी शामिल हुए थे। जियाउद्दीन बरनी न तो सूफी थे और न सूफीयों के मुरीदों में उनका शुमार किया जाता है, मगर हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्यों के साथ उनके रिश्ते काफी मित्रतापूर्ण थे।

अपने आर्थिक नीतियों कि किताब लिखते वक्त जियाउद्दीन बरनी ने निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्यों से काफी सहाय्यता हासिल कि थी।  मगर जियाउद्दीन बरनी सूफियों कि नीतियों के आलोचक भी रहे हैं, पर उनकी इस आलोचना ने कभी भी शत्रुता का रुप धारण नहीं किया। निधन से पहले निज़ामुद्दीन औलिया कि दरगाह के करीब दफ्न करने कि बरनी इच्छा को उनके मित्रोंद्वारा पुरा किया गया।

बरनी ने एक बार रमज़ान के ‘दावत ए ख़ास’ में इस्लाम के सिद्धान्तों पर बहस करते हुए निज़ामुद्दीन औलिया पर काफी तिखा वार किया। जिससे निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्यों ने नाराजी का भी इजहार किया। मगर इन्हीं में से कई शिष्यों का मानना यह भी था की, बरनी ही निज़ामुद्दीन औलिया के असल शिष्यों में शामिल है।

उलेमाओं कि इस दावत में जिस तरह सूफियों के साथ उनके संघर्ष को देखा जाता है, वैसे ही दरबार के अंतर्गत राजनीति पर भी उलेमाओं केदावत ए खासमें बहस होती थी। उलेमाओं के इन दावतों में कई बार दरबार के दो विरोधी गुटों में मनमुटाव कराने के भी प्रयत्न किए गए हैं। इसलिए उलेमाओं कि यहदावत ए ख़ासमध्यकाल में ख़ास म़काम रख़ती थी।

पढ़े : तहज़ीब और सक़ाफ़त में अमीर ख़ुसरो की खिदमात

पढ़े : कुतुब ए दकन – मौलानाअब्दुल गफूर कुरैशी 

गरीबों कि दावत ए ख़ास

मध्यकाल के कई इतिहासकारों ने दिल्ली के प्रख्यात सूफी हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के इफ्तार कि दावत का उल्लेख किया है। बादशाहों और उलेमाओं कि दावतें एक विशेष वर्ग तक सिमित थी तो सूफियों ने वर्ग और जाति कि सीमाओं को समाप्त कर दिल्ली के अछुत, दुर्बल, गरीबों, यतीमों, मुसाफिरों के साथ कुलीन वर्ग को भी अपनी दावत में शामिल कर सारे समाजी भेद मिटा दिए थे।

निज़ामुद्दीन औलिया कि खानकाह में हमेशा मोहताजों की भीड रहती थी। रमजान में इनकी खानकाह में भारत के कई राज्यों में फैले इनके शिष्य, देशविदेश के मित्र भी आते थे, साथ ही हजरत के चाहनेवाले भी उनकी सोहबत में रमज़ान कि इबादत करने के लिए खानकाह में रमज़ान के महिने भर निवास करते थे।

इफ्तार और सहरी के वक्त दिल्ली शहर के मुसाफिरखानों और सराय में सरकार कि तरफ से खास इंतजाम किए जाते थे। मगर इस शान व शौकत कि दावत से ज्यादा सूफियों के खानकाह को लोगों द्वारा पसंद किया जाता था। रमज़ान के महिनेभर में कई बार निज़ामुद्दीन औलिया कि खानकाह में दावत का आयोजन होता। जिसमें बादशाहों और उनके अमीरों को भी आमंत्रण दिया जाता था।

सूफियों को हासिल जनसमर्थन कि वजह से बादशाह इनकी काफी इज्जत करते और इनकी दावत में गरीबों और मुरिदों के साथ बैठकर भोजन करते थे। यही वजह थी कि निज़ामुद्दीन औलिया अपने इस दावत को ‘दावत ए ख़ास’ कहते थे।

पढ़े : ख्वाजा शम्सुद्दीन गाजी – दकन के चिश्ती सूफी संत

पढ़े : सूफी-संत मानते थे राम-कृष्ण को ईश्वर का ‘पैगम्बर’

निज़ामुद्दीन औलिया और हसन बहामनी

रमज़ान के इसी दावत में एक दफा बहामनी सल्तनत का संस्थापक हसन बहामनी भी पहुंचा था, मगर उसे दावत में आने के लिए काफी देर हुई तो भोजन का आनंद नहीं ले सका, मगर फटेहाल, गरीब हसन के संदर्भ में हजरत निज़ामुद्दीन औलिया ने इस वक्त एक भविष्यवाणी की थी।  इस संदर्भ में  फरिश्ता लिखता है

जब मुहं तुलक और अन्य अतिथी भोजन करके चले और दस्तरख्वान समेट दिया गया, तब हसन गंगू हजरत की ड्योढी पर पहुंचा जिससे हजरत से मुलाकात का मौका मिल सके

किन्तु इससे पहले ही हजरत को अपने आत्मज्ञान से उसके आने की सूचना मिल चुकी थी। अतः उन्होंने अपने सेवक से कहाएक व्यक्ती जो अत्यंत सहृदय और देखने सुनने में बहुत ही सज्जन प्रतित होता है, बाहर खडा है उसको बुला लाओ।

फरिश्ता आगे लिखता है, हसन गंगू को लेने के लिए सेवक बाहर गया मगर उसे फटे पुराने कपडे में देखकर यकिन ही आया कि यह वही इन्सान है जिसे हजरत ने बुलाने को कहा है।

उसने वापस जाकर हजरत से अर्ज कियादरवाजे पर वैसा कोई इन्सान नहीं है। मगर एक अत्यंत मुफलीस और परेशान आदमी खडा हुआ है। पर हजरत ने कहा, हाँ यह वही इन्सान है जो देखने में फकीर सा मालूम पडता है लेकिन यथार्थ में वह दक्षिण का शासक होगा।

फरिश्ता लिखता है, हसन गंगू हजरत शेख कि सेवा में आया और दर्शन का लाभ लिया। हजरत ने हसन पर बहुत ही कृपा की और उससे कुशलता पुछी। ख़ाना खत्म हो चुका था, हजरत शेख ने इफ्तार के लिए (रोजा खोलना) जो रोटी रखी थी, उसी में से थोडी रोटी अपने उंगलीयों के सिरे पर रखकर हसन को दी और कहा कि यह दक्षिण के शासन का ताज है जो बहुत ही संघर्ष और कष्ट के बाद तेरे सिर पर रखा जायेगा।

इसके बाद कि कथा जैसा कि हम सब जानते हैं, हसन बहामनी दकन में बहामनी सल्तनत कि स्थापना में कामयाब हुआ। और एक मामुली सा मजदूर सुलतान बन गया।

मध्यकाल में बादशाह, सूफी और उलेमाओं द्वारा दी जानेवाली इस दावत के संदर्भ इतिहास के कई ग्रंथों में जानकारी मिलती है, जो काफी महत्त्वपूर्ण है।

जाते जाते : 

Share on Facebook