गरिबों को ‘मुफ़लिसी’ से उबारने का नाम हैं ‘ईद उल फित्र’ !

दुनिया भर के मुसलमानों के लिए ईद-उल-फ़ित्रकी बेहद अहमियत है। यह त्यौहार इस्लाम के अनुयायियों के लिए एक अलग ही ख़ुशी लेकर आता है। ईद के शाब्दिक मायने ही बहुत ख़ुशी का दिनहै।

ईद का चांद आसमां में नजर आते ही माहौल में एक ग़ज़ब का उल्लास छा जाता है। हर तरफ रौनक ही रौनक अफ़रोज़ हो जाती है। चारों तरफ मुहब्बत ही मुहब्बत नज़र आती है। एक मुक़द्दस ख़ुशी से दमकते सभी चेहरे इन्सानियत का पैग़ाम माहौल में फैला देते हैं। शायर मुहंमद असदुल्लाह ईद की क़ैफ़ियत कुछ यूं बयां करते हैं,

महक उठी है फ़जा पैरहन की ख़ुशबू से

चमन दिलों का खिलाने को ईद आई है।

क़ुरआन के मुताबिक पैग़ंबरे इस्लाम ने फरमाया है, “जब अहले ईमान रमज़ान के मुक़द्दस महीने के एहतेरामों से फ़ारिग हो जाते हैं और रोज़े-नमाज़ों तथा उसके तमाम कामों को पूरा कर लेते हैं, तो अल्लाह एक दिन अपने उन इबादत करने वाले बंदों को बख़्शीश व इनाम से नवाज़ता है। लिहाजा इस दिन को ईद कहते हैं और इसी बख़्शीश व इनाम के दिन को ईद-उल-फ़ित्र का नाम देते हैं।

रमज़ान महीने के खत्म होते ही दसवां माह शव्वाल शुरू होता है। माह की पहली चांद रात, ईद की चांद रात होती है। इस रात का इंतज़ार मुस्लिम भाईयों को पूरे साल भर रहता है। इस इंतज़ार की भी खास वजह होती है, वह इसलिए क्योंकि इस रात को दिखने वाले चांद से ही ईद का ऐलान होता है।

बच्चे, बड़े-बूढ़े यानी घर के सभी छोटे-बड़े मेम्बर अपने-अपने घर की छतों पर चांद का दीदार करने इकट्ठे हो जाते हैं। चांद का दीदार होते ही, मुस्कराते हुए एक-दूसरे को मुबारकबाद देते हैं। ईद की आहट भर से ख़ुशियों से उनके चेहरे दमकने लगते हैं। बड़े-बूढ़ों और बच्चों के चेहरों पर इसका नूर कुछ अलग ही झलकता है।   

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नबी के दिशा-निर्देश

पहली ईद-उल-फ़ित्र, पैग़म्बर हजरत मुहंमद साहब ने सन् 624 ईसवी में ज़ंग-ए-बदर के बाद मनाई थी। तब से यह त्यौहार, हर साल सारी दुनिया में मनाया जाता है। इस दिन सभी मुसलमान ईदगाह या मस्ज़िद में इकट्ठे होकर, दो रक्आत नमाज़ शुक्राने की अदा करते हैं। यह लगातार दूसरा मौका है, जब ईद की नमाज़ ईदगाह और मस्ज़िद की बजाय घरों में ही होगी।

सिर्फ हमारे देश के ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के मुसलमानों ने कोविड-19 महामारी की वजह से यह अहद किया है कि वे इस बार ईदगाह और मस्ज़िद की जगह अपने-अपने घरों में पाबंदगी से नमाज़ पढ़ेंगे। तमाम उलेमा, मुफ्तियों और मज़हबी इदारों ने भी यही कहा है कि ईद की नमाज़ अपने घर में ही पढ़ें।

मक्का स्थित मस्जिद अल-हरम, अल-मस्ज़िद अल-नवबी और मदीना स्थित प्रोफेट मस्ज़िद में भी ईद की नमाज़ में इस मर्तबा सीमित तादाद में लोग इकट्ठा होंगे। ताकि लोग कोरोना वायरस के संक्रमण से बचे रहें। हमारे देश में सरकार और स्थानीय प्रशासन की इजाज़त से कहीं पांच, तो कहीं उससे कुछ ज्यादा लोग ही ईदगाह और मस्ज़िदों में इमाम के साथ नमाज़ पढ़ सकेंगे।

अलबत्ता मस्ज़िदों में पहले की तरह अज़ान ज़रूर होगी। हजरत पैग़म्बर मुहंमद साहब के समय भी जब इस तरह की महामारी फैली, तो उन्होंने भी इससे बचने के लिए सारी उम्मत को दिशा-निर्देश दिए थे। उन्होंने फ़रमाया है, “यदि कोई बीमारी आम हो रही हो, तो हमें नमाज़ अपने-अपने घरों में ही पढ़ना चाहिए।

बहरहाल, ईद की नमाज़ से पहले इबादत करने वाले अपने हाथ ऊपर उठाकर यह नीयत बांधते हैं, “ए अल्लाह, आपका शुक्रिया कि आपने हमारी इबादत कबूल की। इसके शुक्राने में हम दो रक्आत ईद की नमाज़ पढ़ रहे हैं।

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जान व माल का सदका

नमाज़ के बाद मुसलमान भाई ख़ुदा से पूरी दुनिया में सुख-शांति और बरकत के लिए दुआएं मांगते हैं। हां एक और महत्वपूर्ण बात, नमाज़ पढ़ने के लिए जाने से पहले सभी मुसलमान फ़ितरा यानी जान व माल का सदका, जो हर मुसलमान पर फ़र्ज़ होता है, वह गरीबों में बांटते हैं।

सदका, गरीबों की इमदाद (मदद) का एक तरीका है। गरीब आदमी भी इस इमदाद से साफ और नये कपड़े पहनकर और अपना मनपसंद खाना खाकर अपनी ईद मना सकते हैं। इसके अलावा रमज़ान के महीने में आर्थिक रूप से सक्षम हर मुसलमान को अपनी सालाना आमदनी का ढाई फीसद गरीबों को दान में देना होता है। इस दान को ज़कात कहते हैं।

इस्लाम पांच प्रमुख स्तंभों पर टिका हुआ है, जिसमें रोज़ा और ज़कात भी शामिल है। ज़कात हर मुसलमान पर फर्ज है। इस व्यवस्था के पीछे इस्लाम मज़हब की यह सोच है कि हर ज़रूरतमंद तक मदद पहुंचे, जिससे वे भी ईद की ख़ुशियों में शामिल हो सके।

आज जब सारी दुनिया नोवेल कोरोना वायरस कोविड-19 के भयानक संक्रमण से जूझ रही है, करोड़ों लोग अपने काम-काज छोड़ अपने घरों में बैठे हैं और उनमें भी लाखों ऐसे हैं कि उन तक तुरंत मदद ना पहंचे, तो उन्हें और उनके परिवार को भूखा सोने की नौबत आ जाएगी। ऐसे माहौल में इन लोगों को मुफ़लिसी और फ़ाक़ाकशी से उबारना, सबसे पहली ज़रूरत है।

ज़कात, सदका और फ़ितरा देकर हम उनकी मदद कर सकते हैं। जो भी आपके आस-पास गरीब, लाचार, अनाथ, मज़लूम हैं इस पर उनका सबसे पहला हक़ है। भूखे का कोई मज़हब नहीं होता। ज़कात, सदका और फ़ितरा बिना किसी भेदभाव के जो भी गरीब, ज़रूरतमंद हों उनको सबसे पहले दें। अपने आसपास जो ग़रीब हैं, उनकी दिल खोलकर मदद करें। यही सच्ची इंसानियत और हर इंसान का फ़र्ज़ है।

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सेवईंया और पकवान

इस्लाम में अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, ऊंच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं है। सभी एक समान हैं। लिहाजा सभी आपस में मिलकर यह त्यौहार मनाते है। ईद बुनियादी तौर पर आपस में भाईचारे को बढ़ावा देने वाला भी त्यौहार है। ईद की विशेष नमाज़ के बाद सभी एक-दूसरे से गले मिलकर, ईद की मुबारकबाद देते हैं।

दीगर मज़हब को मानने वाले भी अपने मुस्लिम भाईयों से गले मिलकर ईद की मुबारकबाद देते हैं। ईद पर बच्चों का उत्साह और ख़ुशियां देखते ही बनती हैं। नए-नए कपड़े पहने चहकते-महकते बच्चे, चारों तरफ एक ख़ुशी का माहौल बना देते हैं। छोटों को अपने बड़ों से ईदी (पैसे या कोई तोहफा) मिलती है।

हर घर में तरह-तरह की लजीज सेवईंया और पकवान बनते हैं। दोस्तों और रिश्तेदारों को सेवइयों की दावत दी जाती है। लेकिन यह दूसरी ईद होगी, जब गले मिलना तो दूर, बच्चों को ईदी या तोहफ़े देने में भी एहतियात बरतना होगा।

किसी से मिलते वक़्त फिजिकल डिस्टेंसिंग का ख़ास तौर पर ख़्याल रखना होगा। ताकि ख़ुशी का यह त्यौहार, जानेअनजाने किसी को कोई ग़म न दे दे। शायर ज़फ़र इक़बाल ने भले ही यह शे किसी और मौक़े के लिए लिखा हो, मगर यह आज़ के हालात पर कितना मौज़ू है,

तुझ को मेरी ना, मुझे तेरी ख़बर जाएगी

ईद अब के भी दबे पांव ग़ुज़र जाएगी।

जाते जाते :

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