ईद-उल-जुहा ऐसे बनी इस्लामी तारीख़ की अज़ीम मिसाल

द-उल-जुहादीन-ए-इस्लाम का दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है। यह त्यौहार बकरा ईद, ईद-उल-अजहा, सुन्नत-ए-इब्राहीमी और ईदे कुर्बां के नाम से भी जाना जाता है। जिस तरह से ईद उल फितर रमज़ान की खुशी में मनाया जाता है, ठीक उसी तरह से ईद-उल-जुहा भी हज की खुशी में मनाया जाता है। ईद-उल-जुहा त्यौहार, हर साल इस्लामी महीने जिल हिज्जा यानी हज के महीने की दस तारीख को पड़ता है।

इस्लाम में जिल हिज्जा महीने की बड़ी मान्यता है। इस महीने के पहले दस दिनों में ही हज़रत आदम अलैहिसलाम की दुआ कुबूल हुई। हज़रत इब्राहीम ने अल्लाह की राह में अपने प्यारे बेटे हज़रत इस्माईल की कुर्बानी पेश की। इसी अशरे (कालखंड) में इन दोनों हज़रात ने काबा शरीफ की बुनियाद रखी। इन्हीं दिनों में हज़रत दाऊद अलैहिसलाम को मगफिरत (मोक्ष) अता की। बकरीद का चांद दस दिन पहले दिखता है।

ईद-उल-जुहा के दिन सभी मुस्लिम भाई सबसे पहले ईदगाह में जाकर ईद की खास नमाज अदा करते हैं और उसके बाद अपने-अपने घरों में बकरे या भेड़ की कुर्बानी करते हैं। यह पहली मर्तबा है, जब ईद-उल-जुहा की नमाज ईदगाह और मस्जिद की बजाय घरों में ही होगी। स्थानीय प्रशासन की इजाजत से कहीं पांच, तो कहीं उससे कुछ ज्यादा लोग ईदगाह और मस्जिदों में नमाज पढ़ सकेंगे।

सिर्फ हमारे देश के ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के मुसलमानों ने नोवेल कोरोना वायरस कोविड-19 महामारी की वजह से यह अहद किया है कि वे इस बार ईदगाह और मस्जिद की जगह अपने-अपने घरों में पाबंदगी से नमाज पढ़ेंगे। तमाम उलेमा, मुफ्तियों और मजहबी इदारों ने भी यही कहा है कि ईद-उल-जुहा की नमाज अपने घर में ही पढ़ें। ताकि लोग कोरोना वायरस के संक्रमण से बचे रहें।

हजरत पैगम्बर मुहंमद साहब के समय भी जब इस तरह की महामारी फैली, तो उन्होंने भी इससे बचने के लिए सारी उम्मत को दिशा-निर्देश दिए। उन्होंने फरमाया है, “यदि कोई बीमारी आम हो रही हो, तो हमें नमाज अपने-अपने घरों में ही पढ़ना चाहिए।

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क्या हैं मान्यताएं?

हर त्यौहार के मनाए जाने के पीछे कोई न कोई वजह या वाकिया होता है, वैसे ही ईद-उल-जुहा के पीछे भी है। ईद-उल-जुहा का वास्ता कुर्बानी से है। इस्लाम के एक पैगम्बर हजरत इब्राहीम को खुदा की तरफ से हुक्म हुआ कि यदि तुम मुझसे सच्ची मोहब्बत करते हो, तो अपनी सबसे ज्यादा प्यारी चीज की कुर्बानी करो। हजरत इब्राहीम के लिए सबसे प्यारी चीज थी, उनका इकलौता बेटा हजरत इस्माईल। लिहाजा हजरत इब्राहीम, अल्लाह की राह में अपने प्यारे बेटे को कुर्बानी करने के लिए तैयार हो गए।

इधर बेटा इस्माईल भी खुशी-खुशी कुर्बान होने को तैयार हो गया। हज़रत इब्राहिम जब अपने बेटे को लेकर कुर्बानी देने जा रहे थे, तभी रास्ते में शैतान मिला और उसने कहा कि वह इस उम्र में क्यों अपने बेटे की क़ुर्बानी दे रहे हैं? उसके मरने के बाद बुढ़ापे में कौन आपकी देखभाल करेगा?

हज़रत इब्राहिम यह बात सुनकर सोच में पड़ गए और उनका कुर्बानी देने का मन बदलने लगा। लेकिन कुछ देर बाद वह संभले और कुर्बानी के लिए तैयार हो गए। हजरत इब्राहिम को लगा कि कुर्बानी देते समय उनके जज्बात आड़े आ सकते हैं, लिहाजा उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली। जैसे ही हजरत इब्राहीम ने अपने बेटे हजरत इस्माईल की गर्दन पर छुरी चलाई, उनकी जगह एक भेड़ कुर्बान हो गया।

ऐन कुर्बानी के वक्त खुदा ने हजरत इस्माईल को बचा लिया और हजरत इब्राहीम की कुर्बानी भी कुबूल कर ली। खुदा की ओर से यह महज एक इम्तिहान था, जिसमें पैगम्बर हजरत इब्राहीम पूरी तरह से पास हुये। यह वाकिया इस्लाम की तारीख में अज़ीम मिसाल बन गया। अपनी मुहब्बत, जज़्बात और एहसास को अल्लाह की खुशी के लिये कुर्बान कर दो। तभी से हर साल इसी दिन, उस अजीम कुर्बानी की याद में मुसलमान भाई बकरा ईद मनाते हैं। अल्लाह की राह में अपने-अपने घरों के अंदर बकरे या भेड़ की कुर्बानी करते हैं।

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कुर्बानी कि क्या अहमियत है?

कुर्बानी, ईद की नमाज़ के बाद से शुरू की जाकर जिल हिज्जा महीने की बारहवीं तारीख की शाम तक की जा सकती है। यानी जो शख्स ईद के दिन कुर्बानी न कर पाये, तो वह दूसरे, तीसरे दिन भी कुर्बानी कर सकता है। जिबह करने वाले जानवर की कुर्बानी के बाद, कुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से किये जाते हैं।

एक हिस्सा अपने घर वालों के लिए, दूसरा हिस्सा रिश्तेदारों और दोस्त-अहबाब के लिए एवं तीसरा हिस्सा गरीबों और यतीमों में बांटा जाता है। ईद-उल-फितर पर जिस तरह से सदका और जकात दी जाती है, ठीक उसी तरह से ईद-उल-जुहा पर मुसलमान भाई कुर्बानी के गोश्त का एक हिस्सा गरीबों में तकसीम करते हैं।

इस्लाम में हर त्योहार पर गरीबों का ख्याल जरूर रखा जाता है। ताकि उनमें कमतरी का एहसास पैदा न हो। गरीब मुस्लिम भाई भी अच्छी तरह से त्यौहार मना सकें।

ईद-उल-जुहा, जहां सबको साथ लेकर चलने का पैगाम देता है, वहीं यह भी तालीम देता है कि इन्सान को खुदा का कहा मानने में, सच्चाई की राह में अपना सब कुछ कुर्बान (बलिदान) करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। ईद-उल-जुहा, मुस्लिम भाईयों को कुर्बानी की सीख देता है। यदि इस त्यौहार से उनके दिल में कुर्बानी का अजीम जज्बा पैदा न हो, तो इस त्यौहार की क्या अहमियत है?

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हज का फरीज़ा

ईद-उल-जुहा, मनाए जाने के पीछे हज की खुशी भी है। हज, इस्लाम के पांच प्रमुख स्तम्भों में से एक है। हज हर उस मुसलमान पर फर्ज़ है, जिसके पास उसके सफर का जरूरी खर्च और बीबी-बच्चों के लिये इतना खर्च हो कि व उसके पीछे आराम से अपना गुजर कर सकें।

हज का फरीज़ा (पुनीत कर्त्तव्य) और अरकान मक्का शहर, मीना और अराफात के मैदान में जिल हिज्जा महीने की आठ से बारह तारीख तक पूरे किये जाते है। हज के इस फरीजे को अदा करने के लिये दुनिया भर से मुसलमान सऊदी अरब के शहर मक्का और मदीना मुनव्वरा के लिये सफर करते हैं।

हमारे देश से भी हजारों लोग इस फरीजे को अदा करने के लिये मक्का और मदीना का सफर करते हैं। जिल हिज्जा महीने की दस तारीख को मक्का में हाजी लोग हज के तमाम अरकान पूरे करने के बाद मीना के मैदान में खुदा की इबादत और कुर्बानी में मशगूल हो जाते हैं।

सऊदी अरब के इतिहास में यह पहली मर्तबा है, जब दुनिया के बाकी हिस्सों में रह रहे मुसलमानों को मक्का-मदीना में हज करने की इजाजत नहीं मिली है। उन्हें मक्का-मदीना आने के लिए अगले साल का इंतजार करना होगा। कोरोना वायरस कोविड-19 की वजह से यह मुमकिन नहीं हो पा रहा है।

मध्य-पूर्व में सऊदी अरब कोरोना महामारी से सबसे ज़्यादा प्रभावित देशों में से एक है। महामारी रोकने की कोशिशों के मद्देनज़र सऊदी अरब सरकार ने यह फैसला किया है कि केवल सऊदी में रह रहे लोगों को ही इस बार हज पर जाने की इजाज़त दी जाएगी। महज 10 हज़ार लोग ही हज कर पाएँगे।

जाहिर है कि इस फैसले के बाद दुनिया भर में फैले मुसलमानों को काफी निराशा हुई है। लेकिन तरक्की पसंद मुसलमान इस फैसले की हिमायत कर रहे हैं। उनकी नजर में कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए यह जरूरी भी है। लोग तंदुरुस्त रहें, जिंदगी बाकी रही और दुनिया सलामत रहे, तो वे हज के इस फरीजे को आइंदा भी अदा कर सकेंगे।

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