कहानियों से बातें करने वाली इस्मत आपा

हिन्दी, उर्दू अदब की दुनिया में ‘इस्मत आपा’ के नाम से मशहूर इस्मत चुगताई की पैदाइश उत्तर प्रदेश का बदायूं शहर है। 21 अगस्त 1915 को उनका जन्म हुआ।अलबत्ता उनका बचपन और जवानी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कई शहरों में गुजरा। बाद में वे मुंबई पहुंची, तो वहीं की होकर रह गई। इस्मत चुगताई की जिन्दगानी पर शुरुआत से यदि गौर करें, तो उन्हें बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक था।

हिजाब इम्तियाज अली, मौलवी नजीर अहमद, अल्लामा राशिदुल-खैरी, हार्डी, ब्रांटी सिस्टर्ज से शुरू करके वे जार्ज बर्नार्ड शा तक पहुंचीं। चार्ल्स डिकेंस को पढ़ा, डेविड कॉपरफील्ड, ओलिवर ट्विस्ट, टोनो बंगे आदि सभी पढ़ डाले।

मगर उन्हें सबसे ज्यादा मुतास्सिर रूसी अदीबों (साहित्यकार) ने किया। अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने दुनिया भर के प्रसिद्ध लेखक गोर्की, एमिली जोला, गोगोल, टॉलस्टॉय, दास्तायेव्स्की, मोपासां, बाल्जक, माम, हेमिंग्वे वगैरह की रचनाएं खोज-खोजकर पढ़ीं।

खास तौर पर वे चेखव से काफी प्रभावित थीं। जब वे किसी कहानी पर अटक जातीं, या वह कहानी जैसा वह चाह रहीं हैं, नहीं बन पा रही होती, तो वे कहानी को छोड़कर चेखव की कहानियां पढ़ने लगतीं। जाहिर है इसके बाद उनकी कहानी अपनी राह पर आ जाती।

लिखने में वे हमेशा पढ़ने का लुत्फ महसूस करती थीं। यही वजह है कि उनकी कहानियों में पाठकों को भी लुत्फ आता है। एक बार जो कोई उनकी कहानी उठाता है, तो मजाल है कि वह अधूरी छूट जाए। जहां तक इस्मत चुगताई की कहानियों की भाषा का सवाल है, तो वे अपनी कहानियों में अरबी, फारसी के कठिन अल्फाजों के इस्तेमाल से बचती थीं।

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शानदार भाषा प्रवाह

घरों में बोले जाने वाली जबान, उनकी कहानियों की भाषा है। जिसमें उर्दू जबान भी है और हिन्दी भी। उनके सारे अदब को उठाकर देख लीजिए, उसमें ठेठ मुहावरेदार और गंगा-जमुनी जबान ही मिलेगी। उनकी भाषा को हिन्दी-उर्दू की हदों में कैद नहीं किया जा सकता।

उनका भाषा प्रवाह शानदार है। फिर वह किरदारों की जबान हो या फिर नेरेशन की भाषा। अपनी रचनाओं में वे कई जगह व्यंग्य करने और चुटकी लेने से भी बाज नहीं आतीं। व्यंग्य करने और चुटकी लेने का उनका अंदाज कुछ-कुछ मंटों की तरह है।

अफसानानिगार कृश्न चंदर, इस्मत के कहानी संग्रह ‘चोटें’ के आमुख में लिखते हैं, “इम्मत को छुपाने में, पढ़ने वाले को हैरतो इज्तिराब में गम कर देने में, और फिर यकायक आखिर में उस इज्तिराबो-हैरत को मसर्रत में मुबद्दल कर देने की सिफ्त में इस्मत और मंटो एक दूसरे के बहुत करीब हैं और इस फन में उर्दू के बहुत कम अफसानानिगार उनके हरीफ हैं।”

कथन में अल्फाज को बकद्रे किफायत इस्तेमाल करना इस्मत की नुमायां खासियत रही है। उनके किसी भी अफसाने को उठाकर देख लीजिए, वे जिन अल्फाजों को इस्तेमाल करती हैं, पूरी तरह से सोच-समझकर करती हैं। इस्मत चुगताई किस तरह से अपना लेखन करती थीं।

इसके बारे में मंटो लिखते हैं, “इस्मत पर लिखने के दौरे पड़ते हैं। न लिखें तो महीनों गुजर जाते हैं, पर जब दौरा पडे़ तो सैंकड़ों सफ्हे उसके कलम के नीचे से निकल जाते हैं। खाने-पीने, नहाने-धोने का कोई होश नहीं रहता। बस हर वक्त चारपाई पर कोहनियों के बल पर औंधी अपने टेड़े-मेढ़े आराब और इमला से बेनियाज खत में कागजों पर अपने ख्यालात मुंतकिल करती रहती हैं।”

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हद दर्जे की बातूनी

कृश्न चंदर, इस्मत के बयान की रफ्तार के मुताल्लिक लिखते हैं, “अफसानों के मुतालों से एक और बात जो जहन में आती है, वह है घुड़दौड़। यानि रफ्तार, हरकत, सुबुक खरामी और तेज गामी। न सिर्फ अफसाना दौड़ता हुआ मालूम होता है, बल्कि फिक्रे, किनाए और इशारे और आवाजें और किरदार और जज्बात और अहसासात, एक तूफान की सी बलाखेजी के साथ चलते और आगे बढ़ते नजर आते हैं।”

लेकिन इन सब बातों से इतर इस्मत खुद अपनी लेखन कला के बारे में कहती थीं, “लिखते हुए मुझे ऐेसा लगता है, जैसे पढ़नेवाले मेरे सामने बैठे हैं, उनसे बातें कर रहीं हूं और वो सुन रहे हैं। कुछ मेरे हमख्याल हैं, कुछ मोतरिज हैं, कुछ मुस्करा रहे हैं, कुछ गुस्सा हो रहे हैं। कुछ का वाकई जी जल रहा है। अब भी मैं लिखती हूं तो यही एहसास छाया रहता है कि बातें कर रही हूं।”

इस्मत हद दर्जे की बातूनी थीं। सच बात तो यह है कि कहानी कहने का हुनर उन्होंने लोगों की बातों से ही सीखा था। वे हर शख्स से बात कर सकती थीं और महज पांच मिनिट में उसकी जिन्दगी का बहुत कुछ जान लेती थीं। वे जब अलीगढ़ में थीं, तो उनके घर एक धोबी आता था, वे उससे घंटों गप्पे मारा करतीं। उस धोबी से उन्होंने न सिर्फ बहुत सारे किस्से-कहानी सुने, बल्कि निम्न वर्ग का तबका किस तरह की जबान बोलता है, वह भी सीखी।

जाहिर है कि जिन्दगी के यही तजुर्बात बाद में उनकी बहुत सी कहानियों में काम आए। यही वजह है कि ये किरदार इतने प्रभावी और जानदार बन पड़े हैं।

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रशीद जहां से हुई प्रभावित

इस्मत की कहानियों में एक अजीबो-गरीब जिद या इंकार आम बात है। ये जिद इसलिए भी दिखाई देती है, क्योंकि उनके मिजाज में भी बला की जिद थी। वे जो बात ठान लेतीं, उसे पूरा करके ही दम लेतीं थीं।

इस्मत चुगताई, तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़ी रही एक और बड़ी अफसानानिगार रशीद जहां से बचपन से ही बहुत ज्यादा प्रभावित थीं। किशोरावस्था में ही उन्होंने चोरी-छिपे कहानी संग्रह ‘अंगारे’ जिसमें रशीद जहां की भी कहानी थी, पढ़ ली थी। अलीगढ़ में उनकी पढ़ाई के दौरान जब ‘अंगारे’ का विरोध हुआ, तो वे तमाम तरक्कीपसंदों के साथ इस किताब के हक में खड़ी हो गईं।

उन्होंने किताब के हक में एक बड़ा मजमून लिखा, जो बेहद जज्बाती था। उसे ‘अलीगढ़ गजट’ में छपने के लिए भेज दिया। मजमून छपा और पसंद भी किया गया। अपनी आत्मकथा ‘कागजी है पैरहन’ में वे खुद इस बात को मंजूर करती हैं, “रशीद जहां ने मुझे कमसिनी में ही बहुत मुतास्सिर किया था। मैंने उनसे साफगोई और खुद्दारी सीखने की कोशिश की।”

रशीद जहां ने ही चुगताई के अंदर आत्मविश्वास पैदा किया। लिखने में उनका मार्गदर्शन किया और ऐसी कई महत्वपूर्ण किताबों से उनका तआरुफ कराया, जिन्हें एक लेखक को पढ़ना बेहद जरूरी था। उनके बड़े भाई अज़ीम चुगताई भी एक अच्छे अफसानानिगार थे, उन्होंने कहानी बयां करने का हुनर उनसे भी बहुत कुछ सीखा।

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रची बेमिसाल कहानियां

इस्मत की कहानियां सब जगह छपने और तारीफ बटोरने लगीं, तो यह कहानी पत्रिका ‘साकी’ में छपी और पाठकों द्वारा बहुत पसंद भी की गई। इस्मत चुगताई का पहला नाटक ‘फसादी’ और शुरुआती कहानियां ‘नीरा’, ‘लिहाफ’, ‘गेंदा’ वगैरह ‘साकी’ में ही प्रमुखता से प्रकाशित हुए हैं। कहानी ‘लिहाफ’ के अलावा इस्मत चुगताई ने और भी कई अच्छी कहानियां लिखीं। जिनकी उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी की ‘लिहाफ’ की।

कहानी ‘चौथी का जोड़ा’ और ‘मुगल बच्चा’ उनकी बेमिसाल कहानियां हैं। इन कहानियां को पढ़कर लगता है कि इस्मत क्यों अज़ीम अफसानानिगार हैं। उनकी कई कहानियों पर वामपंथी विचारधारा का असर है। उस दौर के तमाम रचनाकारों की तरह वे भी अपनी कहानियों के जरिए समाजवाद का पैगाम देती हैं।

‘कच्चे धागे’, ‘दो हाथ’ और ‘अजनबी’ उनकी ऐसी ही कहानियां हैं। इस्मत इन्सान-इन्सान के बीच समानता की घोर पक्षधर थीं। औरत और मर्द के बीच में भी असमानता देखकर, वह हमलावर हो जाती थीं। ‘कागजी है पैरहन’ कहने को उनकी आत्मकथा है, लेकिन एक लिहाज से देखा जाए, तो इस किताब में जगह-जगह स्त्री विमर्श के नुकते बिखरे पड़े हैं। अपनी बातों और विचारों से वे कई जगह पितृसत्तात्मक समाज की बखिया उधेड़ती हैं।

कहानीकार शबनम रिजवी ने इस्मत की दर्जनों कहानियों और उपन्यास ‘टेड़ी लकीर’ का हिन्दी में शानदार अनुवाद किया है। इस्मत चुगताई के पति शाहिद लतीफ अपने जमाने के मशहूर फिल्म लेखक और निर्देशक थे। इस्मत भी फिल्मों से जुड़ी रहीं। उनकी कई कहानियों पर फिल्में बनीं।

इसके अलावा उन्होंने अनेक फिल्मों की पटकथा भी लिखी। फिल्म ‘जुगनू’ में अभिनय किया। निर्देशक एमएस सथ्यू की मशहूर फिल्म ‘गर्म हवा’, इस्मत चुगताई की कहानी पर ही बनी थी। जिसके लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला।

इस्मत ने ख़ुब लिखा, जो भी लिखा दिल से लिखा, कभी उसके बारे में अफसोस नही जताया, यहीं वजह रही कि उनकी कठोर आलोचना हुई। उनपर अश्लीलता फैलाने के की आरोप भी लगे। वह व्यावहारिक नारीवादी थी उनका फेमिनिझम दिखावटी, बातूनी या काग़जी नहीं था। उन्हें पद्मश्री, साहित्य अकादमी से लेकर गालिब अवार्ड, मखदूम अवार्ड जैसे कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले। 24 अक्तूबर 1991 को 76 बरस कि उम्र में मुंबई में उनका निधन हुआ।

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