सआदत हसन मंटो के बारे में बहुत सी कहानियां किस्से प्रचलित है। मात्र इसके विपरीत मंटो की शख्सियत नजर आती है।
मंटो महज एक अफसानानिगार नहीं थे बल्कि वह एक पॉलिटिकल कमेंटेटर भी थें। ‘नया कानून’, ‘अंकल सैम का खत’ हो या फिर उनकी पहली कथा ‘तमाशा’ जो; अमृतसर के जलियांवाला बाग के घटना के बाद लिखी गई थी।
कुछ लोग मंटो को अश्लील कथाकार मानते हैं। उनके इसी रुचि को ‘शहवत’ (ऑरगेझम) दिलाने के लिए वे मंटो को पढ़ते हैं। शायद मंटो को इस तरह बदनाम कर उनको तसल्ली होती होंगी। परंतु सच माने तो मंटो उस गन्दे समाज के प्रतिनिधी थे, जो रात के अंधेरे में काली करतुते करता हैं।
मंटो अपने कहानियों के माध्यम से समाज का वह सच वे दिखाते जो हम, समाजी रसूख के आड़ में उसको छुपाते फिरते हैं। प्यार, जिस्मानी ताल्लुक, वहशत, अश्लीलता और हिंसा का विकराल रूप उनके कथाओं में नजर आता है। यह वह समाज है जिसमें आप, मैं और हम सब एक ‘व्हाइट कॉलर’ बने रहते हैं।
पढ़े : आज तक मुंबई में भटकती हैं मंटो की रूह
पढ़े : मंटो पढ़ते समय प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर होते भावविभोर
पढ़े : साहिर की बरबादीयों का शोर मचाना फिजुल हैं
कहानियां नही समाजी आईना!
मंटो इसी बेशर्म समाज के गन्दी सोच को अपने कलम के जरिए कागजों पर उतारते हैं। जिसे पढ़कर लोग अचंभे में रह जाते कि इतनी आसानी से यह सब कैसे लिख सकता है। रात और दिन क उजाले में जो लोग संगीन गुनाह करते वहीं लोग मंटो को कहते, उसे उस तरह नही लिखना चाहीए!
मंटो के कहानियों में प्रेम और वासना के आड़ में छिपी हवस और वहशीयत साफ झलकती है। मंटो लैंगिकता के आड में घिनौनी हिंसा को प्रमुखता से दर्शाते हैं। मंटो ने इस बारे में लिखा, “मैं तहजीबों-तमददुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी!
मैं उसे कपडे पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए की ये मेरा काम नहीं है दरजियो का काम है, लोग मुझे सियाहकलम कहते है। लेकिन मैं तख्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूँ ताकि तख्ता-ए-सियाह की काली सियाही और भी ज्यादा नुमायाँ हो जाये!”
मंटो की ‘थंडा गोश्त’, ‘हत्तक’ और ‘बूँ’ समाजी ज़िन्दगी का वह दागदार आईना दिखाती है, जिन्हें हम फिर से देखना भी पसंद नही करते।
मंटो की कहानियां हिंसा और अमानवीयता का बर्बर चेहरा समाज के सामने पेश करती थी। जिसमें थंडा गोश्त, काली शलवार, कुत्ते कि दुआ, खुलासा, औरत जात, खुद कुशी का इकदाम, गरम सूट, खुद फरेब ऐसी कहानियां हैं, जिससे मंटो ने अनगिनत समस्या तथा प्रश्नों के माध्यम से मानवता को झिंझोडा हैं।
मंटो हिंसा और शोषण को इतनी बारिकीयों से कथाओं पिरोतें कि पढने वाले के यह बार-बार एहसास होते रहता हैं, कि यह अमानवीयता, अन्याय, जुर्म और जुल्म शोषण हैं और इसपर सोंचा जाना चाहीए।
वैसे मंटो के मूल पंजाब के निवासी। लुधियाना क समाईरा नामक छोटे से कस्बे में वह 11 मई 1912 को पैदा हुए। रोजी-रोटी के तलाश में वह मुंबई आ बसे। और हमेशा के लिए मुंबई के हो लिये।
मंटो ने मुंबई में रहते हुये उसे जिया है। उनकी कहानियों में मुंबई की कई विरान चौराहे, गली कुचे औऱ संकरी गलियां सिसकती हुई दिखाई देती है, जिसमें आम लोग अपना ‘आशियाना’ और ‘अस्तित्व’ तलाशते नजर आते हैं।
अमीर और गरिबों के उस खाई को भी वह दर्शाते जिसमे गरब मात्र एक दिल बहलाने वाला खिलौना, जानवरों से बदतर तथा मालिक अपने बदसुलुकी का शिकार बनाते हैं।
पढ़े : मर्दवादी सोच के खिलाफ ‘अंगारे’ थी रशीद ज़हां
पढ़े : मर्दाने समाज में स्त्रीत्व की पहचान परवीन शाकिर!
पढ़े : भारतीय सभ्यता की सराहना में इस्मत आपा क्यों नहीं?
आम इन्सानों के प्रतिनिधी
सआदत हसन मंटो शोषित समाज के प्रतिनिधी माने जाते हैं। वे अपने कहानियों में आम इन्सान को केंद्र में रखते। उनके किरदार गरिब, मध्यवर्ग के होते। चमार, धोबन, झाडूवाला, कचरा बिनने वाला, जिस्मफरोश, चोर, डाकू, किसान, ठेलेवाला, टांगेवाला, चना बेचनेवाला आदी किरदार उनके कथा के ‘हिरो’ रहते।
मंटो प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के सदस्य थे। यह आंदोलन रूस साम्यवादी क्रांति के बाद चल निकला। जिसने आगे चलकर कला और साहित्य के माध्यम से गरीब, पीड़ित, शोषित तथा मध्य वर्ग के समस्याओं को अपनी कलम के जरिए समाज के सामने रखा। प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन का एक मूल गामी मंत्र पीडितों के साथ खडे होना था।
इस आंदोलन ने कृश्न चंदर, जाँनिसार अख्तर, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुलतानपुरी, कैफी आज़मी, अली सरदार जाफरी, इस्मत चुगताई जैसे कई बड़े बड़े लेखक और नामागिगार, कथाकार और शायर दिए हैं।
इस संगठन के माध्यम स यह लोग शोषित समाज का प्रतिनिधित्व करते थे। इन सब की शायरी तथा कहानियां, नगमे भारत के असल समाज को चित्रित करती है, जो 60 फ़ीसदी से भी ज्यादा है। वह मुंबई छोडने तक इप्टा से भी जुडे रहे।
पढ़े : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ आज भी हैं अवाम के महबूब शायर
पढ़े : भारत को अपना दूसरा घर मानते थे अहमद फराज़
पढ़े : मर्दाने समाज में स्त्रीत्व की पहचान परवीन शाकिर!
विभाजन कि त्रासदी
भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर लिखे उनकी कहानियां हमें एक पाठक तौर पर झिंझोड़कर रख देती है। ‘खोल दो’, ‘टोबा टेक सिंह’, ‘नया कानून’, ‘टिटवाल का कुत्ता’ हो या ‘नंगी आवाजे’ विभाजन की वह दर्दनाक कहानी याद दिलाती है जिन्हें हम शायद ही कभी किताबों में पढ़ पाते।
विभाजन – भारतीय उपखंड का वह काला इतिहास हैं जो पिढीयों से एक नासूर बना लोगों के दिलों दिमाग को खाए जा रहा हैं।
हम और हमारी पिछली पीढ़ी को विभाजन की त्रासदी का अंदाजा नहीं है। मगर हमारे दादा-परदादा जिन्होंने न सिर्फ विभाजन को देखा है बल्कि उन यातनाओ को भी महसूस किया हैं, जो नरक से भी बदतर थीं।
उन लोगों ने पृथ्वी पर जीते जी मीलों दर मील नरक की यात्राए कि थी। विभाजन के इस त्रासदी का डॉक्यूमेंटेशन सदाअत हसन मंटो ने अपने कहानियों के माध्यम से किया है। लोग कहेंगे यह काल्पनिक हैं, पर नही।
इन कहानियों का फॉम कल्पना जरूर लगता हैं, मगर मंटो ने उसे जिया हैं, देखा हैं। मंटो कि तमाम कहानियों सच्ची घटनाओ से प्रेरित हैं। उनकी कथाओ में कल्पना बिलकूल नही होती।
भारत पाक का विभाजन महज एक राजनीतिक निर्णय नहीं था बल्कि वह भारत के प्राचीनतम ‘सभ्यता’ और ‘गंगा जमुनी’ कल्चर को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर देने वाली घटना थी।
यहां जाति, परंपरा, वर्ण तथा रंग के आधार पर भेद थे पर मनमुटाव नही था। आपसी रंजिश नहीं थी, शत्रुता नहीं थी, किसी धर्म विशेष या समाज विशेष के खिलाफ नफरत का माहौल नहीं था।
प्राचीनतम भारत कि संमिश्र विचारधाराओं को तोड़ने का काम विभाजन के इस घटना ने किया था। जिसके वजह से दोनों तरफ लाखों लोग मारे गए, कई जिन्दगियां बरबाद हुई, हजारों बच्चे यतीम हुए, कई लड़कियां और पर महिलाओं पर हिंसक तथा अमानवीय अत्याचार हुए। इस इतिहास के काले अध्याय को याद रखने के हमारी पिढी को मंटो को पढ़ना और ज्यादा जरुरी हो जाता हैं।
मंटो ने अपने कहानियों के माध्यम से समाज के हर उस पहलुओं को छुआ है, अंधेरी कालकोठरीओं को देखा है जो हम कभी सूरज की रोशनी में भी शायद कभी नही देख पाते। मंटो की कहानियां समाजी सभ्यता का विकृत रूप, लैंगिक दमन-अन्याय, समाजी भेदभाव, अमानवीयता कि सडांध और शोषण को दर्शाती हैं।
मंटो ने फिल्मी कहानियां, संवाद भी लिखे हैं। शोहरत के उस उंचे ओहदे का भी छुआ जहां, पहुँचने कि आम इन्सान ख्वाहीश रखता हैं। उसी तरह मंटो ने गर्दीश और मुफलिसी का वह दौर भी देखा हैं, जब उन्हें और उनके परिवार को फाकाकशी के दौर से गुजरना पडा। कई लोग मानते हैं, आर्थिक दरिद्रयता और निर्धनता नें मंटो को असमय हमसे छिन लिया।
पढ़े : उच्च अभिनय प्रतिभा थी शौकत ख़ानम की पहचान
पढ़े : अपनी कहानियों को खुद जीती थी रज़िया सज्जाद जहीर!
पढ़े : एहसान दानिश की पहचान ‘शायर-ए-मजदूर’ कैसे बनी?
खून में बसी थी मुंबई
विभाजन के बाद मंटो पाकिस्तान गये पर इसको वह अपनी जिन्दगी कि सबसे बडी मानते हैं। मुंबई में वह अपना उभरता हुआ फिल्मी करिअर छोडकर गए थे।
उन्हे लगा कि मै बलवाई के हाथो मारा जा सकूँ इतना तो मुसलमान जरूर हूँ। धोकेबाजी, दगबाजी और असहायता ने उन्हे वतन से बरबदर कर दिया। मगर मुंबई उनके नसों मे और खून में बसी थी।
पाकिस्तान से इस्मत को लिखे खत में वह मुंबई कि याद करते हैं और कहते हैं, अब बंबई कि बहुत याद आती है, काश मैं मुंबई छोडने कि अपनी जिन्दगी की सबसे बडी गलती नही करता।
पाकिस्तान जाने के बाद मंटो अक्सर कहा करते, “बंबई छोड़ने को मुझे भरी दुःख है! वहां मेरे दोस्त भी थे! उनकी दोस्ती होने का मुझे गर्व है! वहा मेरी शादी हुई.. मेरी पहली औलाद भी वही हुई। दूसरे ने अपने जीवन के पहले दिन की शुरुआत भी वहीं की। मैंने वहां हजारों लाखो रुपये कमाए और फूंक दिए…. मुंबई को मैं जी जान से चाहता था और आज भी चाहता हूँ…।”
मंटो अपने अंत समय तक मुंबई को नही भूले। पाकिस्तान में उनके मुंबई को याद करने के कई संदर्भ मिलते हैं, जिससे यह एहसास होता हं, कि उन्हे अपनी मिट्टी से, अपने वतन से, अपने शहर से कितना प्यार था।
मंटो उन आम इन्सान के प्रतिनिधी हैं, जिसे वे अपने लगते हैं। सात दशक बीत गए पर लोग मंटो को अब तक नही भूले हैं। भारत और पाकिस्तान के पाठकों के वे चहेते लेखक हैं। इस प्यार और अपनेपन के लिए उन्होंने कभी लिख रखा था, “ऐसा होना मुमकिन है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो ज़िन्दा रहे।”
मंटो अपने अंत समय तक मुंबई को नही भूले। पाकिस्तान में उनके मुंबई को याद करने के कई संदर्भ मिलते हैं, जिससे यह एहसास होता है, कि उन्हे अपनी मिट्टी से, अपने वतन से, अपने शहर से कितना प्यार था।
मंटो उन आम इन्सान के प्रतिनिधी हैं, जिसे वे अपने लगते हैं। सात दशक बीत गए पर लोग मंटो को अब तक नही भूले हैं। भारत और पाकिस्तान के पाठकों के वे चहेते लेखक हैं।
जाते जाते :
- शकील बदायूंनी : वो मकबूल शायर जिनके लिये लोगों ने उर्दू सीखी
- राही मासूम रजा : उर्दू फरोग करने देवनागरी अपनाने के सलाहकार
- शायर-ए-इंकलाब ‘जोश मलीहाबादी’ पाकिस्तान क्यों चले गए?
हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।