उर्दू अदब में एहसान दानिश की पहचान, ‘शायर-ए-मजदूर’ के तौर पर है। मजदूरों के उन्वान से उन्होंने अनेक गजलें, नज्में लिखीं। वे एक अवामी शायर थे। किसानों, कामगारों के बीच जब दानिश अपना कलाम पढ़ते थे, तो एक अजब समां बंध जाता था। लोग उनके कलाम के दीवाने हो जाते थे। अपने समय में उन्हें जोश मलीहाबादी की तरह मकबूलियत मिली।
15 फरवरी, 1914 को उत्तर प्रदेश सूबे के कांधला कस्बे, जिला शामली में पैदा हुए एहसान दानिश का पूरा नाम एहसानुल-हक था। ‘दानिश’ उनका तखल्लुस था। घर के मआशी हालात साजगार नहीं थे। उनका बचपन तंगदस्ती में गुजरा।
मुफलिसी की वजह से स्कूली तालीम महज चौथी जमात तक मिली। मगर जिन्दगी की पाठशाला से उन्होंने बहुत कुछ सीखा। अरबी, फारसी जबान में अपनी कोशिशों से महारथ हासिल की। परिवार के गुजर-बसर के लिए उन्होंने मेहनत मजदूरी की। वे दिन उनके लिए सचमुच आजमाइशों के दिन थे।
अव्वल से ही उन्हें शायरी से लगाव था। जिन्दगी की आपाथापी में भी शायरी उनके साथ-साथ चलती रही। एहसान दानिश लड़कपन में ही लाहौर बस गए थे। लिहाजा बंटवारे के बाद भी उनसे यह शहर नहीं छूटा। ताजवर नजीबाबादी उनके उस्ताद थे। जिनसे उन्होंने शायरी का ककहरा सीखा।
नजीर अकबराबादी की अवामी शायरी और मीर अनीस के मर्सियों के वे शैदाई थे। इज्म-ओ-अदब का उनके ऊपर एक जुनून था। मेहनत मजदूरी से जब भी फुर्सत मिलती, खूब मुताला करते। दीगर शायरों की तरह एहसान दानिश की शायरी की इब्तिदा रूमानी शायरी से हुई, लेकिन बाद में जिन्दगी की जद्दोजहद और उसके संघर्ष ही उनकी शायरी की बुनियादी आवाज हो गई।
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मार्क्सवादी चेतना का असर
तरक्कीपसंद तहरीक से बावस्ता हुए, तो उनके कलाम में वैचारिक आग्रह भी शामिल हो गया। एहसान दानिश की नौजवानी का दौर मुल्क में आज़ादी के संघर्ष का दौर था। लिहाजा वे इंकलाबी गजलें-नज्में कहने लगे।
शायरी पढ़ने का उनका अंदाज सादा और जबान में रवानगी थी। लबो-लहजा भी अवामी था। आवाज में एक अलग कैफियत थी। यही वजह है कि मुशायरों में उनके पढ़ने का अंदाज दिल पर असर करता था। आहिस्ता-आहिस्ता उन्होंने लाहौर में इल्मी और अदबी मैदान में अपने पैर जमा लिए।
एहसान दानिश ने यूं तो गजल, रुबाई, कते और नज्म सभी कुछ लिखा। लेकिन नज्म लिखने में उनका कोई जवाब नहीं था। जिन्दगी की तल्ख सच्चाईयां, उनकी नज्मों में दिखलाई देती हैं। उनकी शायरी इल्म के दम पर नहीं, तजुर्बात के दम पर हुई। जो उन पर गुजरी, वही लिखा।
उनकी शायरी में मार्क्सवादी चेतना का असर साफ दिखाई देता था। उन्होंने अपनी शायरी में जहां मजदूर तबके के मसले-मसायल को आवाज दी, उनके रंज-ओ-गम को उभारा, तो वहीं सरमायेदारी की भी सख्त मजम्मत की। दानिश ने धर्म की रूढ़िवादिता पर जमकर प्रहार किया।
अपनी शायरी में वे कई बार मजहब से बगावत करते हुए दिखते हैं। किताब ‘आतिशे खामोश’ में वे अपनी एक नज्म में लिखते हैं,
हाथ में था इनके मजहब सिक्का साजी की मशीन
इनके आगे जर उगलती थी मआवद की जमीन
खानकाहों में दिलों का मुद्दआ बिकता रहा
मुद्दों तक इन दुकानों में खुदा बिकता रहा।
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कलाम मजदूरों का दर्द
एहसान दानिश, मजदूरों की यकजहती के हामी थे। उसके पीछे बिला शक वह सियासी शऊर भी शामिल था, जिसमें दुनिया भर के मजदूरों से एकता का आहृन किया जाता था। साम्यवादी बंदोबस्त की कायमगी के लिए यह एकता जरूरी भी थी।
दानिश का सारा कलाम उठा कर देख लीजिए, उसमें किसानों और मजदूरों के ही दुःख-दर्द की अक्कासी मिलेगी। दीगर शायरों की तरह उन्होंने मजदूरों की जिन्दगी को सिर्फ दूर से नहीं देखा था, बल्कि उन्होंने खुद मजदूरी और परिवार के जीवनयापन के लिए छोटे-छोटे काम किए थे।
मजदूरों की समस्याओं को उन्होंने खुद देखा-भोगा था। वे उसके दुःख-तकलीफों को बेहतर तरीके से समझ सकते थे। यही वजह है कि उनकी शायरी में मजदूरों और उनकी समस्याओं के जो खाके, मंजरनामे सामने आए हैं, वे हकीकत के ज्यादा नजदीक हैं।
दानिश ने मजदूरों पर इतना लिखा कि वे ‘शायर-ए-मजदूर’ नाम से पहचाने जाने लगे। यह तमगा उनके नाम से जिन्दगी भर तक जुड़ा रहा। यहां तक कि उनके गजलों और नज्मों की किताब के पहले सफे़ पर उनके नाम के साथ हमेशा शायरे-मजदूर लिखा होता था।
किताब ‘शीराजा’ और ‘आतिशे खामोश’ में संकलित एहसान दानिश की ज्यादातर नज्मों मसलन ‘भीख’, ‘गरीब से खिलवाड’, ‘रिक्शा का मजदूर’, ‘चर्खे’, ‘द्राविड़ लड़कियां’, ‘शरीके जिन्दगी’, ‘बरसात और मजदूर’ वगैरह में वे इंसानी जिन्दगी में मेहनत की अहमियत और मजदूरों के जज्बात को बेहतर तरीके से बयान करते हैं।
‘शरीके जिन्दगी’ नज्म में दानिश उस मजदूरनी का खाका खींचते हैं, जो कड़ी धूप में अपने पति के साथ काम करती है।
बराबर है मगर बढ़ कर कदम यों धरती जाती है
रुखे शौहर पै साया टोकरी से करती जाती है
यहां मअयारे हमदोशी बजा तसलीम होता है
कि दो रूहों के बारे-जिन्दगी तकसीम होता है।
कमोबेश इसी तरह से वे ‘चर्खे’ नज्म में उस मजबूर औरत की व्यथा कहते हैं, जो सूत कातकर जैसे-तैसे अपना और अपने परिवार का गुजारा करती है। ‘रिक्शा का मजदूर’ नज्म में वे इन्सान से चौपाए का काम लेने की मुखालफत करते हैं।
एहसान दानिश हर ऐसे सिस्टम के खिलाफ हैं, जो इन्सान को इन्सान न समझकर उसे जानवर या मशीन समझता है। अपनी नज्मों में वे सब के लिए समान अधिकारों की बात करते हैं। सरमाएदारी की जानिब उनके दिल में इतना गुस्सा है कि अपनी नज्मों में वे सरमाएदारों के खिलाफ आग उगलते हुए कहते हैं,
मैं उसे साहिबे ईमान समझता ही नहीं
ओछे जरदार को इन्सान समझता ही नहीं।
ये तेवर कुछ इस तरह से हैं, जिस तरह से इकबाल अपने एक शे’र में कहते हैं,
जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोजी
उस खेत के हर खोशा-ए-गन्दुम को जला दो।
तरक्कीपसंद शायरी का एक बड़ा हिस्सा मजदूर, किसान और हाशिए से नीचे के तबके की जिन्दगी की तल्ख सच्चाईयों और उनकी उम्मीदों-नाउम्मीदी का आइना है। एहसान दानिश, अली सरदार जाफरी और सैयद मुत्तलबी फरीदाबादी जैसे शायरों ने अपनी शायरी में खुलकर इस तबके को अपनी आवाज दी। इस मामले में उर्दू अदब, दीगर जबानों के अदब से कहीं बहुत आगे है।
मजदूर और शोषित तबके के दर्दनाक हालात पर अपनी तवील नज्म ‘मजदूर की मौत’ में एहसान दानिश लिखते हैं, नीम शब जुल्फे सिहय खोले हुए है दोश पर
हैं सितारों की निगाहें जुल्मते-खामोश पर
…क्या नहीं तुझ तक रसाई नातवां आवाज की
क्या तुझे भाती नहीं लै आंसुओं के साज की
यह तेरी गैरत में जज्बे-बे-नियाजी हाय-हाय
क्या इसी का नाम है मुफलिस-नवाजी हाय-हाय?
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शायरी में इश्किया एहसास
विभाजन के पहले लाहौर एक बड़ा अदबी मरकज हुआ करता था। बहुत सारे उनकार, अदीब और मुसन्नीफ लाहौर में कयाम करते थे। या आया-जाया करते थे। लिहाजा एहसान दानिश का भी लाहौर से जुडाव था। बंटवारे के बाद वे लाहौर में ही रहे।
तरक्कीपसंद शायरों में सैयद मुत्तलबी फरीदाबादी के साथ एहसान दानिश उन गिने-चुने शायरों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी शायरी में कुदरत को अहमियत दी। कुदरत के बेमिसाल नजारों की तस्वीरें, उनकी नज्मों में मिलती हैं। ‘मसूरी की एक शाम’, ‘सुबहे बनारस’, ‘शामे अवध’, ‘देहात का जादू’, ‘बरसाती लम्हे’ वगैरह नज्मों में वे बड़े ही खूबसूरती से कुदरत के मंजरों की अक्काशी करते हैं।
मिसाल के तौर पर नज्म ‘सुबहे बनारस’ का यह अंश देखिए,
हर चीज में बेदारी झलकी, ख्वाबीदा नजारे चौंक उठे
कोठों की छतें, मंदिर के कलस, मस्जिद के कनारे चौंक उठे
पेड़ों की फुनंगें सुर्ख हुईं, जर्रों के शरारे चौंक उठे
यह सुबहे बनारस क्या कहिये
अफसोस की तुमसे दूर हूं मैं।
एहसान दानिश ने हिन्दी कविता भी लिखी और उनकी इन कविताओं को देखकर कहीं नहीं लगता कि ये किसी शायर की कलम से निकली हैं।
दीपक जागे, उदिन छिपा, घटा पवन को जोर
पनघट सूना हो गया, छायी घटा घनघोर
भूली बिसरी आ गयी फिर साजन की याद
नैनन से लागी झड़ी, कटे ना रैन कठोर।
एहसान दानिश के कलाम में सिर्फ इंकलाब और मजदूर-किसानों के ही किस्से ही नहीं हैं, बल्कि इश्क-मोहब्बत में डूबे नाजुक एहसास भी हैं। उनकी गजलों में दीगर शायरों की तरह आशिक-माशूक का रुठना-मनाना, शिकवे-शिकायत सब आता है।
मिसाल के तौर पर उनकी कुछ गजलों के बेहतरीन अशआर हैं,
कभी मुझको साथ ले कर, कभी मेरे साथ चल के
वो बदल गए अचानक, मिरी जिन्दगी बदल के
हुए जिस पे मेहरबां तुम, कोई खुशनसीब होगा
मिरी हसरतें तो निकलीं, मिरे आंसुओं में ढल के।
ये उड़ी-उड़ी सी रंगत, ये खुले-खुले से गेसू
तेरी सुब्ह कह रही है, तेरी रात का फसाना।
एहसान दानिश का समूचे कलाम पर नजर डालें, तो उनकी शायरी में क्लासिकी और रिवायती रुझान के अलावा मौजू की नई कैफियत दिखाई देती है। उनको अपने फन और जबान पर कुदरत हासिल थी।
तनकीद निगारों ने उन्हें महज एक जज्बाती शायर बतलाया, मगर जिन्दगी पर उनका अपनी एक अलग सोच, नजरिया था। और अपने उसी नजरिए को वे बार-बार कलाम में लेकर आए।
जिन्दगी ने उन्हें जो तजुर्बे दिए, उन्हीं तजुर्बों को उन्होंने अपनी शायरी में ढाला। तनकीद निगार एहतेशाम हुसैन अपनी किताब ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में एहसान दानिश के कलाम के मुताल्लिक लिखते हैं,
“उनकी बहुत सी कविताएं मजदूर-जीवन का चित्रण बड़े करुणाजनक रूप में करती हैं, अलबत्ता उनमें चेतना कम और भावुकता ज्यादा है। उनकी नजर में गहराई नहीं है, लेकिन वे वाकियात की तस्वीर खींचने और साधारण जिन्दगी की शक्ल पेश करने में काफी कामयाब हुये हैं।”
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एशिया में शायरी के दीवाने
एहसान दानिश की शायरी के बारे में कमोबेश ऐसी ही बात फिराक गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में कही है, “एहसान की शायरी टेकनीक के लिहाज से बहुत ही मंजी और सुथरी होती है और जज्बात की नजर से बेहद इंकलाबी। हां, उसमें बौद्धिक पर्यवेक्षण की कमी जरूर दिखाई देती है।”
एहसान दानिश की इब्तिदाई जिन्दगी भले ही संघर्षों में गुजरी, लेकिन बाद में हालात साजगार हो गए। लाहौर में उनका अपना खुद का एक पब्लिकेशन ‘मकतबा-ए-दानिश’ था और इसी से उनकी ज्यादातर किताबें शाया हुईं।
‘जहां-ए-दानिश’, एहसान दानिश की आत्मकथा है। जिसमें उन्होंने अपनी संघर्षमय जिन्दगी की पूरी दास्तां बयां की है। ‘तशरीह-ए-गालिब’ और ‘मिरास-ए-मोमिन’ उनकी आलोचनात्मक किताबें हैं। जो गालिब और मोमिन की शायरी पर केन्द्रित हैं।
‘नवाए-कारगर’, ‘चिरागां’, ‘आतशे-खामोश’,‘जख्मों-मरहम’, ‘मुकामात’, ‘जहां-ए-दीगर’, ‘ताज्किर-ओ-तानिश’, ‘इब्लागाह-ए-दानिश’, ‘आवाज से अल्फाज तक’, ‘फसल-ए-सलासिल’, ‘जंजीर-ए-बहारां’, ‘उर्दू मुतारादिफत’, ‘दर्द-ए-जिन्दगी’, ‘हदीस-ए-अदब’, ‘लुगत-उल-इस्लाह’, ‘दस्तूरे-उर्दू’, ‘रोशनियां’, ‘तबकात’, ‘नफिर-ए-फितरत’ और ‘उर्दू जबान का लिसानी सफर’ उनकी दीगर अहम किताबें हैं।
एहसान दानिश को अवाम की खूब मोहब्बत मिली। समूचे दक्षिण एशिया में उनकी शायरी के दीवाने थे। पाकिस्तान हुकूमत ने एहसान दानिश की उर्दू अदब की आला खिदमतों के लिए अपने आला एजाज ‘सितारा-ए-इम्तियाज’ से सरफराज किया।
उनको जितनी भी उम्र मिली, उन्होंने पढ़ने-लिखने, अदब की खिदमत करने में गुजार दी। नज्म, नस्र और तनकीद अदब के हर हलके में उन्होंने अपनी कलम चलाई। मरते दम तक वे काम करते रहे। 22 मार्च, 1982 को शायर-ए-मजदूर एहसान दानिश ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।