उर्दू मॉडर्न कहानी के चार सतून रहे। तीन का भार मर्दाने कन्धों पर था। कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी और सदाअत हसन मंटो। चौथा कंधा जनाना था। इस अकेले सतून में इतनी ताक़त रही कि इन्हें ‘मदर ऑफ मॉडर्न स्टोरी इन उर्दू’ कहा गया।
वह चंगेज़ खाँ के खानदान से आती हैं। ननिहाल हजरत उस्मान गनी से मिलता है। 10 भाई-बहनों में 9वें नंबर पे थीं। तीन बड़ी ब्याही बहनों के बाद वह भाईयों के साथ बड़ी हुईं।
उन्हें गुड़िया नहीं खेलनी थी। क्रिकेट, गिल्ली-डंडा खेलना था। सीना-पिरोना, बुनाई-कढ़ाई से चिढ़ खाई बैठी उन्हें पेड़ों पर चढ़ना था। हर वक़्त पीठ पे धौल जमाने वाले भाईयों को पलट कर ना मार सकने की कसमसाहट थी। उन्हें रोना नहीं था। कहीं से कमज़ोर भी नहीं दिखना था।
कुछ बड़े भाई अज़ीम बेग़ की शह रही। कहते, खेल में हार जाती हो तो उनको पढ़ाई में हरा दो। तीन दर्ज़े आगे शमीम भाई हर क्लास में फेल होते रहे। हत्ता यह दिन भी आया कि होमवर्क में उनकी मदद करने लगीं। और इस तरह एक दिन वह अचानक शमीम भाई से बड़ी हो गईं।
बता दूं की वह इस्मत चुग़ताई हैं।
ज़िददी हैं। अड़ियल हैं। खरखरी। ज़बान दराज़। बेहद सवाल पूछ्ने वाली। खार खाए बैठी अम्मा जवाब के बजाय जूतियाँ फेंक मारती। निशाना हर बार चूकता। अम्मा निशानचीं नहीं थीं। वह भी हस्सास ना हुईं। बेशर्मी से हँस के भाग जातीं।
यही बेशर्मी उनके लिये संजीवनी बूटी बनी। ‘लिहाफ़’ (समलैंगिक रिश्तों पर उर्दू की पहली कहानी) छपने के बाद गाली भरे खतों का सिलसिला शुरु हुआ। तब तक शाहिद लतीफ़ (फिल्म डायरेक्टर) ‘मजाज़ी खुदा’ (शौहर) बन चुके थे।
लिहाफ़ पर अखबारों में मज़मून निकलने लगे। महफिल की बहसों में लिहाफ़ छा गया। लाहौर कोर्ट ने लिहाफ़ को फ़ुहश (अश्लील) करार देते हुए उन्हें सम्मन भेजा।
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लिहाफ में अन्य कहानियाँ दब गई
शाहिद मुक़द्दमों की ज़िल्लत और बदनामी से खाएफ़ (सहमे) थे। ससुर साहब के दर्द, बल्कि गुज़ारिश भरे खत में इस्मत के लिये ताक़ीद थी, “दुल्हन को समझाओ। कुछ अल्लाह-रसूल की बातें लिखें कि आक़बत दरुस्त हो। मुक़द्दमा और वह भी फ़ुहाशी पर। हम लोग बहोत परेशान हैं।”
परेशान तो वह भी थीं। कि इस एक कहानी से उनसे जुड़े सब लोग परेशान थे और यह भी कि उसी एक लिहाफ़ की तहों के नीचे उनकी तमाम कहानियाँ दब जातीं हैं। चूंकि वह कहीं, कभी, किसी से नहीं हारीं। मुक़द्दमा भी जीत गईं।
ज़िन्दगी में बज़ाहिर उतार-चढ़ाव कम रहे। या शायद हर बात पर तवज्जोह की ज़रूरत नहीं समझी। ए.एम.यू. (अलीगढ़) में पढ़ने की ज़िद्द की। कहा, ना पढ़ाया तो घर से भाग कर ईसाई हो जाऊंगी। एक आध दिन रूठी हुई हड़ताल पे रहीं। अब्बा मान गए।
शौक़त खानम (कैफ़ी आज़मी की बीवी) ने भी पसंद की शादी का इज़हार किया था। वहां भी अब्बा मान गये। ऐसे वालिदैन ही उनकी शख्सियत की नींव बनते हैं। तब जा के इस्मत देश की पहली मुस्लिम बी.ए., बी.एड. करने वाली मुस्लिम महिला बन पाती हैं।
(हमारे पिढ़ी के अब्बाओं को इनके अब्बाओं से कुछ सीखना चाहिए। वरना साइंस को अब्बा रिप्लेस करने की तरक़ीब एजाद कर देनी थी।)
खुद-मुख्तारियत (आत्मनिर्भरता) की ख्वाहिश थी। बरेली में प्रिंसिपल की पोस्ट पर लगीं।
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बंटवारे की त्रासदी
अम्मा से मिलने आईं। मुल्क़ के बंटवारे में आधा खानदान पाकिस्तान जा चुका था। 10 बच्चों को जनने वाली अम्मा तन्हा थीं। हवेली पर फौज़ का क़ब्ज़ा था। अम्मा उसी हवेली के सामने एक छोटे से कमरे में शाहजहाँ की तरह अपने ताजमहल को निहारा करतीं।
बेटी को देखा तो लिपट कर ज़ार ओ कतार रो पड़ी। अम्मा के थप्पड़ों, घूँसों की आदी इस्मत यूँ उनका रोना देख कर सिहर गईं। अम्मा के आखिरी दिनों में वे ही उनका सहारा बनीं।
रिश्तेदार जी का जंजाल थे लेकिन मुसंन्निफ़ों (लेखकों) से रिश्तेदारी कमाल कर गयी। हार्डी, ब्रांटी, चार्ल्स डिकेंस, ओलिवर ट्विस्ट, चेखव, टॉलस्टाय, दास्तायेव्स्की और बर्नार्ड शा को तो जैसे घोलकर पी गई हों।
जितना उन्होंने पढ़ा, उससे ज़्यादा बतियाया। दुकानदारों, टैक्सीवालों यहां तक की भिखारियों से भी। जचगी (डिलीवरी) के बाद अस्पताल में बाईयों से की गयी बतकही ही तो है ‘मुट्ठी मालिश’।
इस्मत चुन्नी के रूप में एक curious बच्चा हैं। वह अपने कोचवान से शबरी के झूठे बेरों का क़िस्सा पूछती हैं। शेख़ानी बुआ से पूछती हैं, अली असगर को हलक़ में तीर क्यूँ मारा? वह साँवले श्रीकृष्ण पर मोहित हैं। पड़ोसी के घर जन्माष्टमी पर विराजे भगवान को लेकर उनमें हीन भावना है। सोचती हैं, उनके भगवान क्या मज़े से आते जाते हैं। एक हमारे अल्लाह मियाँ हैं, ना जाने कहां छिपकर बैठे हैं।
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निम्न वर्गीय औरतों की जुबान
इस्मत की ज़्यादातर कहानियां मध्य-निम्न वर्गीय औरतों को केंद्र में रखकर बुनी गयी हैं। यह आज़ादी से पहले और बाद का दौर है,जब मीना कुमारी का tragic approach appealing था। लेकिन उनकी नायिकाएं मीना कुमारी नहीं हैं। वे सड़क पे कुलांचे मारती, दूधवाले-सब्ज़िवाले को गरियाती रखैले हैं।
ब्लत्कृत किशोरियां हैं। सास को चकमा दे मियाँ से लप-झप करती होशियार बहुएं हैं। और कभी पति की मार से तंग आकर पलटवार करती बीवियाँ हैं।
कोई औरत मार खाकर आती तो वे कहती मियाँ से तलाक़ लो या पलट के तुम भी मार दो। फिज़ूल रो धो के मेरा मूड ना खराब करो।
हमदर्दियों से चिढ़न खाए बैठी इस्मत की भाषा में फिज़ूल फलसफ़े का दखल नहीं, फिर भी संजीदा है। ज़बान दाल चावल जैसी सादी लेकिन बीच बीच में आम के अचार का चटखारापन है।
बक़ौल जावेद अख्तर, “उनकी कहानियों को पढ़ो तो लगता है इस्मत आपा बात कर रही हैं। इस्मत आपा को सुनो तो लगता है उनके क़िरदार बोल रहे हैं।”
वे औरत को अपने पैरों पे खड़ा और खुद अपनी हिफाज़त करते हुए देखना चाहती थीं। शायद इसीलिए क़ुर्रतुल ऐन हैदर ने उन्हें ‘लेडी चंगेज़ खाँ’ कहा। उन्होंने फेमिनिस्म की शुरुआत उस वक़्त की थी, जब लोग इसका ‘एफ़’ भी नहीं जानते थे।
दफ़नाने से खौफज़दा इस्मत ने मरने के बाद जिस्म को जलवाने की ख्वाहिश का इज़हार किया। उनकी ख्वाहिश का एहतराम हुआ। हालांकि रिश्तेदारों ने काफी विरोध किया।
अपनी आत्मकथा ‘कागज़ी है पैरहन’ में बचपन से लेकर एएमयू में एडमिशन, आगे की जारी तालीम और नौकरी का ज़िक्र किया है। आलोचक मानते हैं, ये ईमानदार आत्मकथा नहीं है।
हां, काफी हद तक.. या शायद ज़िन्दगी के इतने ही हिस्से में वह असल इस्मत रहीं हों। कौन जानता है!
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ईमान अलहदा, तहजीब अलहदा
वे बौद्ध धर्म से प्रभावित थीं। अलमारी में कृष्ण की मूर्ति (गिफ्टेड) भी थी। मैं समझती हूँ कृष्ण से की उनकी गुफ्तगू को ‘साहिब ए मसनद’ को सुनवाया जाना चाहिए। और पूछना चाहिए जिस भारतीय संस्कृति/सभ्यता की ट्रम्प द्वारा सराहना सुनते हुए वे गौरान्वित महसूस करते हैं, उसमें मुसलमान इस्मत आपाओं का क्या कोई रोल नहीं?
“मैं मुसलमान हूं। बुत परस्ती शिर्क है। मगर देवमाला (पुराण) मेरे वतन का विरसा (धरोहर) है। इसमें सदियों का कल्चर और फलसफा समोया हुआ है। ईमान अलहदा है। वतन की तहजीब अलहदा है। इसमें मेरा बराबर का हिस्सा है। जैसे उसकी मिट्टी, धूप और पानी में मेरा हिस्सा है। मैं होली पर रंग खेलूं, दिवाली पर दीए जलाऊं तो क्या मेरा इमान मुतज़लज़ल (हिल जाना) हो जाएगा। मेरा यकीन और शऊर क्या इतना बोदा है, इतना अधूरा है कि रैज़ा रैज़ा हो जाएगा?”
और मैंने पर परस्तिश की हदें पार कर ली। तब अलमारी में रखे हुए बाल कृष्ण से पूछा, क्या तुम वाकई किसी मनचले शायर का ख्वाब हो? क्या तुमने मेरी जन्मभूमि पर जन्म नहीं लिया? बस एक वहम, एक आरजू से ज्यादा तुम्हारी हकीकत नहीं। किसी मजबूर और बंधनों में जकड़ी हुई अबला के तखययुल की परवाज़ हो कि तुम्हें रचने के बाद उसने जिन्दगी का जहर हंस-हंस के पी लिया?
क्या तुम धरती के हलक में अटका हुआ तीर नहीं निकाल सकते? मगर पीतल का भगवान मेरी हिमाक़त पर हँस भी नहीं सकता कि वह धात के खोल मुंजमिद (अचल) हो चुका है। सियासत के मैदान में एक दूसरे की नाअहली साबित करने के लिए इन्सानों को कुत्तों की तरह लड़ाया जाता है।
क्या एक दिन पीतल का यह खोल तोड़कर खुदा बाहर निकल आएगा? इसका जवाब ना इस्मत आपा को मालूम था ना मुझे।
जाते जाते :
- मुल्क की सतरंगी विरासत के बानी थे राहत इंदौरी
- नौजवां दिलों के समाज़ी शायर थे शम्स ज़ालनवी
- बशर नवाज़ : साहित्य को जिन्दगी से जोड़नेवाले शायर
लेखिका लखनऊ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लेखन करती हैं।