कैफी आजमी ने जब ‘उमराव जान’ फिल्म देखी, तो उन्होंने कॉस्ट्यूम डिजाइनर सुभाषिणी अली को अपना रद्दे अमल देते हुए कहा, “शौकत ने खानम के रोल में जिस तरह हकीकत का रंग भरा है,अगर शादी से पहले मैंने इनकी अदाकारी का यह अंदाज देखा होता, तो इनका शजरा(वंशावली) मंगवाकर देखता कि आखिर सिलसिला क्या है!”
डायरेक्टर मुजफ्फर अली की फिल्म ‘उमराव जान’ में शौकत कैफी ने ‘खानम’ के किरदार में वाकई कमाल कर दिखाया था। फिल्म में दीगर अदाकारों के साथ-साथ उनकी अदाकारी भी लाजवाब है।
निर्देशक मीरा नायर की ‘सलाम बाम्बे’ एक और ऐसी फिल्म है, जिसमें शौकत कैफी की अदाकारी के दुनिया भर में चर्चे हुए। ‘घर वाली’ के रोल की तैयारी के लिए शौकतआपा बकायदा तवायफों के बदनाम इलाके कमाठीपुरा गईं। जहां उन्होंने वेश्याओं की जिन्दगी का करीब से अध्ययन किया।
जब वे शूटिंग के लिए गई; तो उनकी अदाकारी को देखकर निर्देशक के साथ साथी कलाकार भी चौंक गए। फिल्म व्यावसायिक तौर पर काफी कामयाब हुई और अमेरिका के न्यूयार्क जैसे शहर में इसने सिल्वर जुबली मनाई।
‘हकीकत’, ‘हीर रांझा’, ‘लोफर’ आदि फिल्मों में शौकत कैफी ने छोटे-छोटे कैरेक्टर किरदार निभाए। निर्देशक एम.एस. सथ्यू और शमा जैदी ने साल 1971 में जब ‘गर्म हवा’ बनाने का फैसला किया, तो इस फिल्म के एक अहम रोल में उन्हें भी चुना।
सलीम मिर्जा (बलराज साहनी) की बीबी के किरदार में तो शौकत कैफी ने जैसे जान ही फूंक दी। उन्होंने इतना सहज और स्वभाविक अभिनय किया कि सत्यजीत राय जैसे विश्व प्रसिद्ध निर्देशक ने भी उनकी अभिनय प्रतिभा का लोहा मान लिया। उनकी तारीफ करते हुए उन्होंने यहां तक कहा, “शौकत को इस फिल्म में अदाकारी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिलना चाहिए था।’’
‘गर्म हवा’ में खास तौर पर बेटी की मौत पर कफन फाड़ने का जो उन्होंने सीन किया है, वह दिल को हिला देने वाला है। ‘लोरी’, ‘रास्ते प्यार के’, ‘बाजार’, ‘अंजुमन’ वे और फिल्में हैं, जिनमें शौकत आज़मी ने अपनी अदाकारी के अलेहदा रंग दिखलाए।
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एक्टिंग उनका शौक
तरक्कीपसंद तहरीक की हमसफर, मशहूर शायर-नगमानिगार कैफी आजमी की शरीके हयात, शानदार अदाकारा शौकत कैफी, जिन्हें उनके चाहने वाले शौकत आपा और उनके करीबी मोती के नाम से पुकारते थे, उनकी यादों की रहगुजर से यदि गुजरें, तो बहुत कुछ याद आता है।
20 अक्टूबर, 1928 को हैदराबाद में एक प्रगतिशील परिवार में शौकत खानम उर्फ शौकत कैफी की पैदाइश हुई। उनके पिता जदीद तालीम और खुले ख्यालों के तरफदार थे। लिहाजा उन्होंने परिवार में लड़का-लड़की में कोई फर्क न करते हुए, अपनी सभी लड़कियों को अच्छी तालीम दी। अपना फैसला खुद ले सकें, ऐसी तर्बीयत दी। जिसका असर, शौकत खानम की आगे की जिन्दगी और मुस्तकबिल पर पड़ा।
शौकत कैफी, अपने स्कूल के जमाने में ड्रामों में काम करती थीं। एक्टिंग उनका शौक था। लिहाजा उन्होंने एक्टिंग के ही क्षेत्र में उतरने का मन बना लिया। रेडियो के लिए ड्रामों में हिस्सा लेने के अलावा उन्होंने फिल्मी गीतों के कोरस में अपनी आवाज दी। मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि कुछ ही दिनों में उन्हें डबिंग वगैरह का काम मिलने लगा। परिवार की माली हालत सुधर गई।
उर्दू की मशहूर अफसानानिगार इस्मत चुगताई का लिखा ‘धानी बांके’, उनका पहला नाटक था, जिसमें उन्होंने अभिनय किया। कथाकार-नाटककार भीष्म साहनी द्वारा निर्देशित इस नाटक में उनके साथ जुहरा सहगल, अजरा बट्ट और दीना पाठक ने भी अहम रोल किए। पहला ही नाटक बेहद कामयाब रहा।
इसके बाद भीष्म साहनी के ही निर्देशन में उन्होंने ‘भूतगाड़ी’ नाटक किया। जिसमें उनके सह कलाकार जाने-माने अभिनेता बलराज साहनी थे। ‘धानी बांके’ की तरह इस नाटक में भी उनका केंद्रीय किरदार था। जिसे उन्होंने बहुत ही उम्दा तरीके से निभाया। नाटक और उनका अभिनय दोनों ही खूब पसंद किया गया। इस तरह से शौकत कैफी की अभिनेत्री के तौर पर एक पहचान बन गई। उनको जिन्दगी के लिए एक नई राह मिल गई।
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थियेटर में बढ़ती मांग
पृथ्वीराज कपूर की एक्टिंग को लेकर कही बातों को याद करते हुए उन्होंने अपनी आपबीती ‘याद की रहगुजर’ में लिखा है, “जब तुम कोई किरदार पेश करो, तो उसमें इस तरह समा जाओ कि कोई तुम्हारा दिल चीर कर भी देखे, तो उसको उसी तरह धड़कता हुआ पाए, जिस तरह उस किरदार का दिल धड़कता है।”
शौकत कैफी ने पृथ्वी थियेटर के कई चर्चित नाटक मसलन ‘शकुंतला’, ‘दीवार’, ‘पठान’, ‘गद्दार’, ‘आहुति’, ‘कलाकार’, ‘पैसा’ और ‘किसान’ में काम किया। अलबत्ता इन नाटकों में उनका ओरिजनल रोल कोई नहीं था। अंडरस्टडी (थियेटर में अंडरस्टडी उस अदाकार को कहते हैं, जो एक ऐसा रोल तैयार करके रखे, जिसे स्टेज पर कोई दूसरा अदाकार कर रहा है और जरूरत पड़ने पर उसकी जगह यह रोल कर सके) उन्होंने कई रोल किए।
पृथ्वी थियेटर के अलावा उन्होंने ऐलीक पदमसी के ‘थियेटर ग्रुप’ के वन एक्ट ड्रामे ‘नौकरानी की तलाश’ (निर्देशक-अमीन सयानी), ‘सारा संसार अपना परिवार’, ‘शायद आप भी हँसें’ और ‘शीशों के खिलौने’ में भी अभिनय किया। कमोबेश सभी नाटक कामयाब रहे।
थियेटर की दुनिया में अभिनेत्री के तौर पर उनकी मांग बढ़ती चली गई। इप्टा के साथ-साथ वे व्यावसायिक थियेटर भी करती थीं। ताकि परिवार के लिए जरूरी मदद हो सके। चरित्र अभिनेता सज्जन के साथ उनके थियेटर ग्रुप ‘त्रिवेणी रंगमंच’ के लिए उन्होंने ‘पगली’ और ‘अंडर सेक्रेटरी’ नाटक में काम किया। महाराष्ट्र स्टेट ड्रामा कॉम्पिटीशन में ‘पगली’ को पहला इनाम, तो शौकत कैफी को बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड मिला।
थियेटर में एक्टिंग कर शौकत कैफी को जहां रचनात्मक सुकून मिलता था, समाज के प्रति जिम्मेदारी पूरी होती थी, तो वहीं थोड़ी आर्थिक मदद भी हो जाती थी। लेकिन यह मदद अस्थाई थी। जब नाटक खेले जाते, तब उन्हें पैसा मिलता। बाकी वक्त उन्हें खाली बैठना पड़ता।
यही वजह है कि आल इंडिया रेडियो में जब विविध भारती की शुरुआत हुई, तो उन्होंने अनाउंसर की नौकरी के लिए अपनी दरख्वास्त भेज दी। जिसमें उनका चयन हो गया। विविध भारती का पहला प्रोग्राम ‘मन चाहे गीत’ उन्हीं की आवाज में ब्रॉडकास्ट हुआ। जिसे आगे चलकर खूब मकबूलियत हासिल हुई।
विविध भारती में आज जो गीत बजते हैं, उसमें फिल्म के साथ-साथ उस गीत के गायक, संगीतकार और गीतकार का नाम अनाउन्स होता है। लेकिन शुरुआत में ऐसा नहीं था। सिर्फ फिल्म और गायक का नाम अकेले अनाउन्स होता था।
शौकत कैफी ही थीं, जिन्होंने एक मीटिंग में संगीतकार और गीतकार का नाम अनाउन्स करने की मांग रखी और यह मांग मान ली गई। तब से रेडियो में इनके नाम बताए जाने लगे।
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इप्टा से गहरा नाता
शादी के कुछ अरसे बाद ही शौकत खानम ने अपने आप को कैफी के रंग में ढाल लिया। वे अपने शौहर के संग प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की मीटिंगे और प्रोग्रामों में बढ़-चढ़कर शिरकत करने लगीं। वे लगभग चार दशक तक मुंबई इप्टा से जुड़ी रहीं। उन्होंने इप्टा के कई अहमतरीन नाटकों में अपने अभिनय के जौहर दिखलाए।
‘डमरू’, ‘अफ्रीका जवान परेशान’, ‘तन्हाई’, ‘इलेक्शन का टिकट’, ‘आज़र का ख़्वाब’, ‘लाल गुलाब की वापसी’, ‘आखिरी सवाल’, ‘सफेद कुंडली’ और ‘एंटर ए फ्रीमैन’ आदि नाटकों में उनका अभिनय खूब सराहा गया। ज्यादातर नाटक में उन्होंने केन्द्रीय किरदार निभाया। ए. के. हंगल, आर.एम. सिंह, रमेश तलवार, रंजीत कपूर जैसे आला दर्जे के निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया।
‘याद की रहगुजर’ शौकत कैफी की आपबीती है। इस किताब में उन्होंने जिस किस्सागोई से कैफी आजमी, अपने परिवार और खुद के बारे में लिखा है, वह पढने वालों को एक उपन्यास का मजा देता है। जिसके सारे किरदार, असल जिन्दगी के हैं। किताब पढ़कर, जैसे पूरा बीता दौर जिन्दा हो जाता है।
भाषा की रवानगी ऐसी कि दरिया बह रहा हो। कृश्न चंदर की शरीके हयात, अफसानानिगार सलमा सिद्दीकी ने इस किताब की भूमिका लिखी है। ‘याद की रहगुजर’ को उन्होंने मुहम्मदी बेगम, नज्र सज्जाद हैदर, कुर्रतुल ऐन हैदर, हमीदा सलीम जैसी उर्दू की अव्वलतरीन लेखिकाओं की आपबीती और सवानेहउम्री (आत्मकथा) के समकक्ष रखा है।
किताब की अहमियत बतलाते हुए, वे अपनी भूमिका में लिखती हैं, “मुझे यकीन है कि ‘याद की रहगुजर’ अक्सरो-बेश्तर लोगों को अपनी और अपने जैसों की जिंदगी के शबो-रोज (दिन और रात) में झांकने पर मजबूर कर देगी। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि हर जिन्दगी एक किताब होती है, किरदार और हालात और अहद (जमाना) मुख्तलिफ हो सकते हैं, लेकिन किस्मत की बालादस्ती (श्रेष्ठता) से किसी को मफ़र (बचाव) नहीं।”
वाकई सलमा सिद्दीकी ने बज़ा फरमाया है। हर जिन्दगी एक किताब होती है और किस्मत किसी के वश में नहीं। लेकिन शौकत कैफी उन हिम्मती औरतों में शामिल हैं, जिन्होंने अपनी तकदीर खुद लिखी। आगे बढ़कर अपनी तारीख का उनवान बदला।
सिद्दीकी लिखती हैं,
तोड़कर रस्म के बुत बन्दे-क़दामत (प्राचीनता का बंधन) से निकल
ज़ोफ़े-इशरत (आनंद की कमी) से निकल, वहम-ए-नज़ाकत (कोमलता का भ्रम) से निकल
नफ़स (अस्तित्व) के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत (महानता का घेरा) से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे।
बीते साल 22 नवम्बर को इस दुनिया से शौकत आपा हमेशा के लिए छोड़ गईं। अपने पीछे छोड़ गई, उनकी बेहतरीन अदाकारी कि उम्दा फिल्मे और उनकी ‘याद की रहगुजर।’ डेक्कन क्वेस्ट की ओर से उन्हें खिराजे अकीदत…!
जाते जाते :
- और चल निकली भारतीय रंगमंच में ‘हबीब तनवीर’ शैली
- पारसी रंगमंच के शेक्सपीयर ‘आगा हश्र काश्मीरी’
- उर्दू और हिन्दी तरक्की पसंद साहित्य का अहम दस्तावेज़
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।