शायर जब जिन्दा होता हैं तो वह लोगों के लिए मरा हुआ होता हैं। और जब वह मर जाता हैं तो लोगों के लिए वह जिन्दा हो जाता हैं। जो लोग उससे मुँह फेरते थें वही उसके मरने के बाद उसपर कसिदे गढते हैं, मर्सिया गाते हैं।
शायद दुनिया का हर शायर यहीं मुफलिसी कि विरासत में लेकर जनम लेता होगा। 1957 में गुरुदत्त की ‘प्यासा’ आयी। जिसके बाद लोगों ने कहा कि उन्हे एहसास हुआ हैं कि शायर कि जिन्दगी क्या होती हैं। उन्हे समझना चाहिए, उन्हे इज्जत बख्शनी चाहीए।
इसी साल, यानी 19 फरवरी को प्यासा को रिलीज होकर 63 साल मुकम्मल हो गए। पर क्या आज भी शायर कि मुफलिसी में कोई तब्दिली आई हैं? लोगों के सिकुडते दिलों मे कोई गर्माहट आई हैं? इसका जवाब शायद नही में होंगा।
निगाहों में उलझन दिलों में उदासी….
यहाँ एक खिलौना है इंसान की हस्ती
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समाज को सरोकार नहीं
हमारे साहित्य में एक कवि, शायर और अदबी रुक्न पर कई इबारते लिखी गई। सेकडों कहानिया गढी गई। हजारों फिल्मों ने करोडों का कारोबार किया पर क्या उन लेखकों, कवियों और साहित्यिको की जिन्दगी में कुछ बदलाव आया!
मैंने जज्बात निभाये हैं उसुलो कि जगह
अपने अरमान पिरो लाया हूँ फुलो कि जगह
गुलजार नें कभी कहां था.. “मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पडा हैं।” हां साहिर का बहुत किमती सामान बीते साल मुंबई एक कबाडी के दुकान पर मिला। जिसके बाद साहिर के चाहनेवालों में हलचलें पैदा हुई।
कई लोगों ने साहिर कि इस बेबसी पर लेख गढें तो कईयों ने टीवी पर दुखभरे इंटरव्यू दिए। मुझे थोडासा असहज लगा पर बिलकूल बुरा नही लगा। क्योंकि आज भी लोगों को साहिर से कोई सरोकार नही हैं। बस मीडिया वाले हर साल उन्हे अपने कॉलम भरने के लिए याद करते हैं।
पाँच साल पहले एक काम सें मैं लुधियाना यानी साहिर साहब के शहर में था। वहां एक पुरानी सी गली में मैं साहिर के तलाश में कई देर तक फिरता रहा। कई लोगों से पुछताछ की, “भई, मशहूर शायर साहिर कहां रहते थें।”
लोगों को कंधें उचका कर उसका जवाब नही में दिया। साहिर कि खोज नें मुझे उतना परेशान नही किया उससे कही अधिक संकरी गलीयों में लोगों द्वारा मुझपर आँख सेंकने से हुआ।
यही मामला मेरे साथ दक्षिण मुंबई में मंटो को तलाशते हुआ। लोगों को याद भी नही कि ऐसा कोई बन्दा यहा रहता भी था। हां कुछ बुजुर्गो ने कहां, “मंटो का नाम तो सुना हैं पर वह यहां रहता था, इस बारे में खबर नही।”
हमारा इरादा तो कुछ भी न था
तुम्हारी खता खुद सजा हो गई
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साहिर लुधियानवी के नग्मे आए दिन हम सुनते हैं। रेडिओ के सेंकडों चैनलों पर तो एक लम्हा भी नही गुजरता जब साहिर कि नजमें हम सुनते नही। जबकि रेडिओ और विविध भारती वाले चिख-चिख कर उसका नाम पुकारते हैं।
व्यक्तिगत तौर पर कहूं तो, साहिर मेरे जिन्दगी के बुरे और अच्छे दौर के साथिदार रहे हैं। मैंने उन्हे घंटो सुना हैं। शायद इसे जोड दूँ तो हजारों हो जाएगे। कभी मेरी टेलरिंग का पाईडल बिना साहिर के गीतों के घुमता नही था।
मैने साहिर के साथ कई राते अकेले में काटी हैं। साहिर मेरे तन्हाईयों का, मेरे बेबसी का, मेरे मुफलिसी का और मेरे धडकते दिल का गवाह रहे हैं।
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
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कभी खुद पे कभी हालात पर..
मुझे आज भी याद हैं मैं पढने के लिए जब औरंगाबाद में था, तब आज से ठिक नौ साल पहले, याने 10 फरवरी 2011 को देव साहब कि कलरवाली ‘हम दोनों’ देखने मल्टिप्लेक्स में बैठा था।
मेरे साथ देव और साहिर को चाहनेवाले केवल आठ-दस लोंग बैठे थें। मैं इतने कम प्रेक्षकों में फिल्म शुरु होंगी या नही इस उधेडबुन में था। दिल में बैचेनी और डर था। आज अगर फिल्म नही देख पाऊंगा तो इस उम्र में शायद ही कभी देव साहब को बडे पर्दे पर देख पाऊंगा। देव-साधना के अलावा साहिर के लिए मैं वह फिल्म देख रहा था।
साहिर कि नज्म ‘कभी खुद पे कभी हालात पर रोना..’ सुनाकर मेरे आंसू निकले थें। मुझे उस समय पता भी नही था कि मुझे क्या गम हैं। पर अनायस मेरा दिल भर आया और आँखो से आँसू फूट पडे।
साहिर रोमण्टिक शायरी के साथ क्रांतिकारी और सामाजिक कवि भी थें। प्रगतिशील लेखक संघ ने कई नामी गिरामी लोग और कलाकार दिए हैं। जिसमे सआदत हसन मंटो, रशिद जहाँ, सज्जाद जहीर, इस्मत चुगताई, कृष्ण चंदर, निदा फाजली, हसरत जयपुरी आदी कवि लेखक इस संघटन कि ही देन हैं।
तुम मुझे भूल भी जाओ, तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है, मैंने तो मोहब्बत की है
साहिर ने कई बेहतरीन नग्मे दिए है जिसमें मेरे पसंदिदा – रंग और नूर कि बारात.., अभी न जाओ छोड़ कर.., आप आए तो ख़्याल-ए-दिल-ए-नाशाद.., किसी पत्थर की मूरत से.., क्या मिलिए ऐसे लोगों से.., गैरों पे करम.., चलो इक बार फिर से.., छू लेने दो नाज़ुक होठों.., जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग.., जाने वो कैसे लोग थे जिनके…
ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात.., तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले.., तुम्हारी नज़र क्यों खफ़ा हो गई.., तू हिन्दू बनेगा ना.., तोरा मन दर्पण.., दिल जो न कह सका वही राज़-ए-दिल.., न तू ज़मीं के लिए है.., न तो कारवाँ की तलाश.., मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता… न जाने कि कितने गीत है जो मेरे दिल के काफी करीब हैं। सारे तो नही गिना सकता।
शायद इन्हीं गीतो के लफ्जो और उसके फिलोसफी ने मुझे पुराने गीतो का शौकीन बनाया होंगा। दूसरी एक वजह यह भी हैं कि मुझे अतीत में खोए रहना अच्छा लगता हैं।
शायद यही वजह हैं की मैं पुराने नग्मो का कायल रहा हूँ। यही से मुझे हसरत जयपुरी, शकिल बदायुँनी, आनंद बक्षी, निदा फाजली, कैफी आजमी, जावेद अख्तर जैसे शायरों के नग्मो का पता चला।
मैंने जज्बात निभाये हैं उसुलो कि जगह
अपने अरमान पिरो लाया हूँ फुलो कि जगह
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लुधियाना से मुंबई
साहिर के जीवनी कि बात करे तो इस शायर ने जीवन की वास्तविकता अपने शब्दो के उन धागे में पिरोया था, जहाँ से मानवता, प्यार, जिने की जुस्तजूँ, रोटी का संघर्ष और एकता आदी चीजे निकलकर बाहर आती हैं।
उनका जन्म 8 मार्च 1921 में पंजाब के लुधियाना शहर में हुआ। उनका पुरा नाम अब्दुल हई था। जबकि ‘साहिर’ उनका तख्खलुस था। वह एक जागीरदार घराने से थे। लाहौर और उसके बाद मुंबई उनकी कर्म भूमी रही।
कहा जाता हैं कि माता-पिता के अलगाव ने साहिर को अंदर से तोड-मरोड दिया था। अपने दुख और संघर्ष को साहिर ने गीतो के जरीए बयां किया। उनका नाम अमृता प्रीतम के साथ जुडा जिसे एक अमर प्रेम कहानी कहा जा सकता हैं।
जो मिल गया उसे ही मुकद्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भूलाता चला गया
अपनी असफल प्रेम कहानी बाद महज 49 साल की उम्र में 25 अक्टूबर 1980 साहिर का निधन हो गया। कहते हैं अमृता प्रितम को को इस बात का गहरा सदमा लगा। पर अफसोस…
साहिर के चले जाने के बाद उनके जीवन कि एक और दुखद घटना यह रही कि उन्हे अमृता प्रितम के संबंधो के अलावा बहुत कम याद किया जाता हैं। इस प्रेम कहानी क अलावा इन दिनो वह स्मरण नही किए जाते। जो कि सरासर नाइन्साफी हैं कही जा सकती हैं।
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हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।