अतीत के इतिहास को एक खास आइने से देखना-दिखाना, सांप्रदायिक ताकतों का सबसे बड़ा हथियार होता है। ‘दूसरे’ समुदायों के खिलाफ नफरत की जड़ें, इतिहास के उन संस्करणों में हैं, जिनका कुछ हिस्सा हमारे अंग्रेज़ शासकों ने निर्माण किया था और कुछ फिरकापरस्त ताकतों ने।
सांप्रदायिक ताकतें इतिहास के इस फिरकापरस्त संस्करण में से कुछ घटनाओं को चुनती हैं और फिर उन्हें इस तरह से तोड़ती-मरोड़ती हैं जिससे उनका हित साधन हो सके।
कई बार एक ही घटना की प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिक ताकतें, परस्पर विरोधाभासी व्याख्याएं करती हैं। सांप्रदायिक इतिहास अपने धर्म के राजाओं का महिमामंडन और दूसरे धर्म के राजाओं को खलनायक साबित करने की पूरी कोशिश करता है।
उदाहरणार्थ, इन दिनों, ‘राणा प्रताप’ को महान बनाने का अभियान चल रहा है। कोई राजा क्यों और कैसे महान बनता है? ज़ाहिर है, इसके कारण और प्रतिमान अलग-अलग होते हैं।
कई बार एक ही क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग, उस क्षेत्र के राजा को अलग-अलग नजरिये से देखते हैं।
यह बात महाराष्ट्र के शिवाजी महाराज के बारे में बिलकुल सच है। कुछ के लिए वे गायों और ब्राह्मणों के प्रति समर्पित राजा थे तो अन्य लोग उन्हें रैय्यत (किसानों) के कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध शासक बताते हैं।
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क्यों होता है दानवीकरण?
राजाओं को धर्म के चश्में से देखने से उनकी एकाधिकारवादी शासन व्यवस्था और सामंती शोषण पर से ध्यान हट जाता है।
इससे आम लोग ये भी भूल जाते हैं कि राजाओं-नवाबों के शासनकाल में न तो नागरिकता की अवधारणा थी और ना ही राष्ट्र-राज्य की। राष्ट्रवाद का उदय, संबंधित धर्म के पहले राजा के काल से माना जाने लगता है।
उदाहरणार्थ, मुहंमद बिन कासिम को इस्लामिक राष्ट्रवाद का संस्थापक बताया जाता है और हिन्दू संप्रदायवादी दावा करते हैं कि भारत, अनादिकाल से हिंदू राष्ट्र-राज्य है।
उन्हें इस बात से कोई लेनादेना नहीं है कि उस समय का सामाजिक ढांचा कैसा था और उस समय के लोगों की वफादारी राष्ट्र-राज्य के प्रति थी या अपने कबीले, कुल या राजा के प्रति।
इस तरह, कुछ राजाओं को अच्छा और कुछ को बुरा बना दिया जाता है। सच यह है कि सभी राजा किसानों का खून चूसते थे और उनके राज में पुरुषी व्यवस्था और जातीयता के रिवाजों का बोलबाला था।
हिन्दू सांप्रदायिक ताकतें मुस्लिम राजाओं का दानवीकरण करती आई हैं और औरंगज़ेब को तो दानवराज के रूप में प्रचारित किया जाता है।
इसी तरह की मानसिकता से ग्रस्त एक भाजपा सांसद ने 2015 में दिल्ली की औरंगज़ेब रोड को एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर करने की मांग की थी।
औरंगज़ेब रोड का नया नामकरण सभी स्थापित नियमों और परंपराओं का उल्लंघन कर किया गया है। भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के स्वघोषित मसीहा अरविंद केजरीवाल ने भी इसका समर्थन किया।
इस तरह की बातें की गईं मानों एक सड़क का नाम बदल देने से इतिहास में जो कुछ ‘गलत’ हुआ है वह ‘सही’ हो जायेगा।
इतिहास में क्या गलत हुआ और क्या सही, यह खत्म न होनेवाली बहस का विषय है और इसका जवाब अक्सर इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति समाज के किस तबके से आता है।
जो चीज़ किसी अमीर के लिए गलत हो सकती है वह गरीब के लिए सही हो सकती है; जो चीज पुरुषों के लिए सही हो सकती है वह महिलाओं के लिए गलत हो सकती है।
जो चीज किसानों के लिए सही हो सकती है वह ज़मींदारों के लिए गलत हो सकती है; जो चीज़ ब्राह्मणों के लिए सही हो सकती है वह दलितों के लिए गलत हो सकती है।
जिन राजाओं ने समाज के दबे-कुचले वर्गों की ओर मदद का हाथ बढ़ाया, उन्हें छोड़कर, अन्य किसी भी राजा के महिमामंडन पर गंभीर सवाल खडे किये जा सकते हैं।
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गलत तथ्य
औरंगजे़ब का इस हद तक दानवीकरण कर दिया गया है कि उसका सिर्फ नाम लेने से लोग नफरत और गुस्से से भर जाते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि औरंगजे़ब सत्ता का इतना भूखा था कि उसने बादशाहत हासिल करने के लिए अपने भाई दारा शिकोह का कत्ल कर दिया था। निःसंदेह ऐसा हुआ होगा, पर क्या हम यह नहीं जानना चाहते कि सम्राट अशोक ने भी गद्दी हासिल करने के लिए अपने भाईयों की जान ली थी।
जब नेपाल के राजा ज्ञानेन्द्र ने अपने भाई बीरेन्द्र सिंह की हत्या कर दी। पूरी दुनिया में राजघरानों में षड़यंत्र और कत्ल आम थे।
फिर, यह कहा जाता है कि औरंगजे़ब ने तलवार की नोंक पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का अभियान चलाया। पहली बात तो यह है कि भारत में इस्लाम, मुस्लिम बादशाहों के कारण नहीं फैला।
अधिकांश मामलों में शोषण और जाति व्यवस्था के चंगुल से बचने के लिए बड़ी संख्या में शूद्रों ने इस्लाम ग्रहण किया। स्वामी विवेकानंद (कलेक्टेड वर्क्स, खंड-8, पृष्ठ 330) ने कहा था कि इस्लाम में धर्मपरिवर्तन, जाति व्यवस्था के अत्याचारों से बचने के लिए हुआ। मेवाड़ और मलाबार तट के इलाकों में सामाजिक मेलजोल के कारण इस्लाम फैला हैं।
औरंगजे़ब ने गुरू गोविंद सिंह के लड़कों के सिर कटवा दिये। यह धर्मपरिवर्तन करवाने का प्रयास था या हारे हुये राजा को अपमानित करने का? पराजित राजा ने क्षमादान मांगा और माफ करने के लिए यह अपमानित करने वाली शर्त रखी गई थी।
एक ब्रिटिश इतिहासविद् एलेक्जेंडर हेमिल्टन ने औरंगजे़ब के 50 साल के शासन के अंतिम सालों में पूरे देश का सफर किया था। उन्होंने लिखा है कि औरंगजे़ब के साम्राज्य में प्रजाजन अपने-अपने तरीके से ईश्वर की आराधना करने के लिए आज़ाद थे।
अगर औरंगज़ेब व अन्य मुस्लिम राजाओं का लक्ष्य लोगों को मुसलमान बनाना होता तो 800 सालों के अपने राज में वे क्या देश की पूरी आबादी को मुसलमान न बना देते? और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उनके दरबारों में कई बड़े ओहदेदार हिन्दू थे। क्या बादशाह उन्हें ऊँचा ओहदा देने के पहले यह शर्त नहीं रखता कि वे मुसलमान बनें?
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औरंगज़ेब ने मंदिर भी बनवाये
मध्यकालीन इतिहास के अध्येता प्रो. हरबंस मुखिया के अनुसार, औरंगज़ेब ने 1669 में जजि़या लगाया। यह उसके शासनकाल का 21वां साल था। राजाओं की कर संबंधी नीतियां समय-समय पर बदलती रहती थीं।
जहां स्वस्थ हिन्दू पुरुषों को ‘जजि़या’ देना होता था वहीं मुसलमानों पर ‘ज़कात’ नाम का कर लगाया जाता था। ऐसे भी कई कर थे जिनकी वसूली औरंगज़ेब ने बंद कर दी थी। पर जजि़या, आमजनों के दिमाग में इस हद तक बैठ गया है कि वे उसे औरंगजे़ब के हिन्दू-विरोधी होने का अकाट्य (जो काटा ना जा सके) सबूत मानने लगे हैं।
ये सही है कि औरंगज़ेब ने वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर तोड़ा और उसके स्थान पर मस्जि़द बनवा दी। इसमें कोई संदेह नहीं कि औरंगजे़ब ने कई मंदिर गिराये पर उसने कई मंदिरों को जगह और अनुदान भी दिये हैं।
चित्रकूट के उत्तर में स्थित ऐतिहासिक बालाजी या विष्णु मंदिर में एक शिलालेख है, जिससे यह पता चलता है कि इस मंदिर की तामीर बादशाह औरंगजे़ब ने खुद की थी।
औरंगज़ेब ने महाराष्ट्र के पंढरपुर स्थित विठोबा मंदिर को एक बड़ी राशि दान के रूप में दी थी। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर, गुवाहाटी के उमानंद मंदिर, शत्रुंजई के जैन मंदिर व उत्तर भारत के कई गुरुद्वारों को औरंगजे़ब के शासनकाल में शाही खज़ाने से अनुदान मिलता था। इनसे संबंधित फरमान 1659 से 1685 के बीच जारी किये गये थे।
डॉ. विशंभरनाथ पाण्डे ने औरंगजे़ब के कई ऐसे फरमानों को संकलित किया है, जिसमें उसने हिन्दू मंदिरों को अनुदान देने का आदेश दिया है। यह विरोधाभास क्यों?
इसका जवाब आसान है। सत्ता संघर्ष के चलते कुछ मंदिरों को गिराया गया और जनता को खुश करने के लिए कुछ मंदिरों को अनुदान दिया गया। कई मौकों पर ऐसे मंदिरों को ढहाया गया जहां बादशाह के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाने वाले योद्धा शरण लिए हुये थे।
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अंग्रेजो ने रचा झुठा इतिहास
हमारे अंग्रेज़ शासकों कि कोई कोशिश सफल हुई हो या नहीं पर सिर्फ धर्म के आधार पर राजाओं की पहचान स्थापित करने के लिए उन्होंने इतिहास का जो पुनर्लेखन किया, वह पूरी तरह से सफल रहा।
हिन्दू व मुस्लिम सांप्रदायिक धाराओं ने इसे अपना लिया और सांप्रदायिक आधार पर देश का ध्रुवीकरण करने के अपने राजनैतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए इसका इस्तेमाल किया।
अंग्रेज़ों ने सांप्रदायिक आधार पर इतिहास लेखन इसलिए भी किया क्योंकि उन्हें जनता की वफादारी हासिल करनी थी। उन्होंने इतिहास को इस रूप में प्रस्तुत किया मानो अंग्रेज़ों ने देश को क्रूर मुस्लिम शासन से मुक्ति दिलाई हो।
अंग्रेज़ों ने इस देश के साथ क्या किया, यह तो शशि थरूर के कुछ समय पहले (निचे देख़े) वायरल हुये आक्सफोर्ड लेक्चर से ज़ाहिर है।
हमारे इन ‘उद्धारकों’ ने, जो ‘पूर्व को सभ्य बनाने’ आये थे, हमारे देश को किस कदर लूटा-खसोटा यह किसी से छिपा नहीं है। अकबर हों या औरंगजे़ब या फिर दारा शिकोह-सबके व्यक्तित्व अलग-अलग थे परंतु अंततः वे थे तो बादशाह ही।
ये शासक पूंजीपतीयो और सामंती व्यवस्था के शीर्ष पर विराजमान थे और वह व्यवस्था कमरतोड़ मेहनत करने वाले किसानों और दिन-रात खटने वाले कारीगरों के शोषण पर आधारित थी।
इतिहास पुरुषो के नामस्थल बदलने का खेल विघटनकारी राष्ट्रवाद के सांप्रदायिक एजेण्डे का भाग है। वे शायद यह मानते हैं कि जिस बादशाह ने इस उपमहाद्वीप पर आधी सदी तक शासन किया, उसके नाम पर एक सड़क भी नहीं हो सकती।
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लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे मानवी अधिकारों के विषयो पर लगातार लिखते आ रहे हैं। इतिहास, राजनीति तथा समसामाईक घटनाओंं पर वे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। सन् 2007 के उन्हे नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका हैं।