सआदत हसन मंटो, हिंद उपमहाद्वीप के बेमिसाल अफसाना निगार थे। प्रेमचंद के बाद मंटो ही ऐसे दूसरे रचनाकार हैं, जिनकी रचनाएं आज भी पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं। 43 साल की छोटी सी जिन्दगानी में उन्होंने जी भरकर लिखा। गोया कि अपनी उम्र के बीस-बाईस साल उन्होंने लिखने में ही गुजार दिए।
लिखना उनका जुनून था और जीने का सहारा भी। मंटो एक जगह खुद लिखते हैं, “मैं अफसाना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफसाना मुझे लिखता है।” उन्होंने जो भी लिखा, वह आज उर्दू अदब का नायाब सरमाया है।
मंटो ने डेढ़ सौ से ज्यादा कहानियां लिखीं, व्यक्ति चित्र, संस्मरण, फिल्मों की स्क्रिप्ट और डायलॉग, रेडियो के लिए ढेरों नाटक और एकांकी, पत्र, कई पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम लिखे, पत्रकारिता की।
उर्दू अदब का ये बेमिसाल अफसानानिगार 11 मई, 1912 को अविभाजित भारत में लुधियाना के छोटे से गांव में जन्मा था। पढाई मुकम्मल करने के बाद उन्होंने कई तरह कि छोटी-मोटी नौकरीयां की। साथ ही लिखना भा जारी रखा।
मंटो की कलम से कई शाहकार अफसाने निकले। उनके कई अफसाने आज भी मील का पत्थर हैं। उसमें किस अफसाने का जिक्र करें और किसको छोड़ दें? ये कल भी उतना आसान नहीं था और आज भी। मंटो का हर अफसाना, दिलो दिमाग पर अपना गहरा असर छोड़ जाता है।
मसलन-ठंडा गोश्त, खोल दो, यजीद, शाहदोले का चूहा, बापू गोपीनाथ, नया कानून, टिटवाल का कुत्ता और टोबा टेकसिंह। हिंदोस्तान के बंटवारे पर मंटो ने कई यादगार कहानियां, लघु कथाएं लिखीं लेकिन उनकी कहानी ‘टोबा टेकसिंह’ का कोई दूसरा जवाब नहीं। ‘टोबा टेकसिंह’ में मंटो ने बंटवारे की जो त्रासदी बतलाई है, वह अकल्पनीय है।
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बेबाक नजरिया
उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं पर जमकर लिखा। हिंदी-उर्दू अदब में प्रेमचंद के बाद जिस अदीब पर सबसे ज्यादा लिखा गया, वह भी सआदत हसन मंटो ही हैं। मंटो की हर विधा, हर रचना पर खूब बात हुई।
फिर भी मंटो के पत्र जो उन्होंने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन और उसके बाद आइजनहावर के नाम लिखे, जो पाकिस्तान के अखबारों में सिलसिलेवार शाया हुए, उन पर कम ही बात होती है। इन पर आलोचकों का ध्यान कम ही गया है।
जबकि ये खत ऐसे हैं, जिन पर बात होनी ही चाहिए। खास तौर पर अमेरिका और पाकिस्तान के उस दौर, उनके आपसी संबंधों को अगर समझना है, तो मंटो के यह खत बहुत मददगार साबित हो सकते हैं। उन्होंने बड़े ही बेबाकी और तटस्थता से अपने मुल्क और दुनिया की एक बड़ी महाशक्ति अमेरिका के हुक्मरानों की जमकर खबर ली है।
उन्होंने किसी को भी नहीं बख्शा। ईमानदारी से वह लिखा, जो कि देखा। ये खत कितने बेबाक और सख्त हैं, ये एक छोटी सी मिसाल से जाना जा सकता है, “अमरीकी लेखक लेसली फ्लेमिंग ने ‘जर्नल आफ साउथ एशियन लिटरेचर’ के मंटो विशेषांक में ‘लैटर टोपिकल एसेज’ के तहत मंटो के मजामीन पर एक सफ्हा लिखा है। ..क्या ये तअज्जुब की बात नहीं है, कि वह ‘अंकल सैम’ के नाम लिखे गए नौ खतों के बारे में एक जुमला तो क्या, एक लफ्ज तक न लिख सकीं।’’
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साम्राज्यवाद की आलोचना
मंटो के ये खत बड़े मानीखेज हैं। अंकल सैम को खत लिखने के पीछे मंटो का जाहिर मकसद, अप्रत्यक्ष तौर पर साम्राज्यवाद की आलोचना पेश करना था। मंटो के खतों के मजमून से गुजरकर, न सिर्फ अमेरिका और पाकिस्तान के सियासी-समाजी हालात जाने जा सकते हैं, बल्कि बाकी दुनिया के जानिब अमेरिका की नीति का भी कुछ-कुछ खुलासा होता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम मंटो ने अपना पहला खत दिसम्बर, 1951 में लिखा और आखिरी खत अप्रैल, 1954 में। तीन साल के अरसे में कुल जमा नौ खत। खत क्या, पाकिस्तान और अमेरिका दोनों ही मुल्कों के अंदरूनी हालात की बोलती तस्वीर!
पाकिस्तान का संकीर्ण वातावरण और अमेरिका की पूंजीवादी स्वच्छंदता। पाकिस्तान की बदहाली और अमेरिका का दोगलापन। पाकिस्तान की बेचारगी और अमेरिका की कुटिल शैतानी चालें। खत को लिखे, आधी सदी से ज्यादा गुजर गई, मगर दोनों ही मुल्कों की न तो तस्वीर बदली और न ही किरदार। इन दोनों मुल्कों पर मंटो का आकलन आज भी पूरे सौ आने खरा उतरता है।
अपने मुल्क के हालात का जिक्र करते हुए मंटो न तो पाकिस्तानी हुक्मरानों से डरते हैं और न ही मजहबी रहनुमाओं का मुलाहिजा करते हैं। पाकिस्तानियों के जो अंतर्विरोध हैं, उनका मजहब के प्रति जो अंधा झुकाव है, मंटो इसकी भी खुर्दबीनी करने से बाज नहीं आते।
धार्मिक कट्टरता और पोंगापंथ पर वे बड़े ही निर्ममता से अपनी कलम चलाते हैं। मंटो अपने खतों में अमरीकी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद पर जमकर चुटकियां लेते हैं। अमरीकी साम्राज्यवाद को प्रदर्शित करने के लिए वे बार-बार अमेरिका के राष्ट्रपति को सात आजादियों के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में मुखातिब करते हैं।
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बंटवारे पर खूब लिखा
‘टोबा टेकसिंह’ उनकी एक लाजवाब रचना हैं। इस कहानी का कालक्रम बंटवारे के दो-तीन साल बाद यानी, 1949-50 का बतलाया है। मंटो ने बंटवारे का दर्द खुद सहा था। वे जानते थे कि बंटवारे के जख्म कैसे होते हैं? लिहाजा उनकी इस कहानी में बंटवारे का दर्द पूरी शिद्दत के साथ आया है।
मंटो मुल्क के बंटवारे से इत्तेफाक नहीं रखते थे। वे इसके खिलाफ थे, लेकिन किस्मत के आगे मजबूर। बंटवारे के खिलाफ उनका गुस्सा कहानी के कई प्रसंगों में देखा जा सकता है। बंटवारे से सारी इन्सानियत लहूलुहान है। लेकिन हुकूमतों को इसकी जरा सी भी परवाह नहीं। वे संवेदनहीन बनी हुई हैं।
इस हद तक कि साधारण कैदियों की तरह वे पागलों का भी तबादला करना चाहती हैं। हुकूमतों के इस तुगलकी फरमान को पागलों को भी मानना होगा। टोबा टेकसिंह को यह बात मंजूर नहीं। वह नहीं चाहता कि उसे अपनी जमीन से दूर कर दिया जाए। उसके लिए भारत-पाकिस्तान का कोई मायने नहीं।
उसकी जन्मभूमि और कर्मभूमि ही उसका मुल्क है। वह ऐसे किसी भी बंटवारे के खिलाफ है, जिसमें उसे अपनी जमीन से बेदखल होना पड़े। टोबा टेकसिंह को जब यह मालूम चलता है कि उसे जबरदस्ती उसके गांव से दूर भारत भेजा जा रहा है, तो वह जाने से इंकार कर देता है। मंटो ने कहानी का जो अंत किया, वह अविस्मरणीय है।
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मुंबई के गलियों में रहा मन
मंटो भारत छोड़कर, पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे। लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ा। वे पाकिस्तान चले गए, पर उनका दिल भारत में, मुंबई के गलियों में, फिल्मसिटी में ही रहा।
अमेरिकी राष्ट्रपति ‘अंकल सैम’ के नाम लिखे अपने पहले खत में मंटो अपने दिल का दर्द कुछ इस तरह बयां करते हैं, ‘मेरा मुल्क कटकर आजाद हुआ, उसी तरह मैं कटकर आजाद हुआ और चचाजान, यह बात तो आप जैसे हमादान आलिम (सर्वगुण संपन्न) से छिपी हुई नहीं होनी चाहिए कि जिस परिंदे को पर काटकर आजाद किया जाएगा, उसकी आजादी कैसी होगी?’
पाकिस्तान जाने के बाद, मंटो सिर्फ सात साल और जिन्दा रहे। 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में उनकी मौत हो गई। मंटो जिस्मानी तौर पर भले ही पाकिस्तान चले गए, मगर उनकी रूह भारत के ही फिल्मी और साहित्यिक हल्के में भटकती रही।
उन्होंने अपने बारे में एक जगह लिखा हैं, “ऐसा होना मुमकिन है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो ज़िन्दा रहे।” बिलकुल इसी तरह उनके लिखे अफ़साने आज तक हमारे दिलों दिमाग पर हावी हैं।
मंटो की मौत पर अफसानानिगार कृश्न चन्दर ने उन्हें याद करते हुए क्या खूब लिखा है,
“गम उन अनलिखी रचनाओं का है, जो सिर्फ मंटो ही लिख सकता था। उर्दू साहित्य में अच्छे से अच्छे कहानीकार पैदा हुए, लेकिन मंटो दोबारा पैदा नहीं होगा और कोई उसकी जगह लेने नहीं आएगा। यह बात मैं भी जानता हूं और राजेन्द्र सिंह बेदी भी, इस्मत चुगताई भी, ख्वाजा अहमद अब्बास भी और उपेन्द्रनाथ अश्क भी।”
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।