रज़िया दिलशाद उर्फ रज़िया सज्जाद जहीर को ज्यादातर लोग प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सदस्य सज्जाद जहीर की पत्नी के तौर पर जानते-पहचानते हैं। जबकि उनकी खुद की एक अलहेदा पहचान थी। वे एक बहुत अच्छी अफसानानिगार और आला दर्जे की अनुवादक थीं।
उन्होंने अपनी जिन्दगी के आखिरी वक्त तक लिखा और बहुत खूब लिखा। जिन्दगानी के संघर्ष उनके लेखन को रोक नहीं पाए। जब भी उन पर कोई मुसीबत आती, वे और भी ज्यादा मजबूत हो जातीं। अपने लेखन में निखरकर आतीं।
15 फरवरी, 1918 को राजस्थान के अजमेर में जन्मी रज़िया सज्जाद जहीर जब महज नौ साल की थीं, तब उनकी पहली कहानी लाहौर से निकलने वाली बच्चों की एक लोकप्रिय पत्रिका ‘फूल’ में छपी। यह कहानी खूब पसंद की गई और इसी के साथ वह पाबंदी से लिखने लगीं।
शादी के बाद कुछ अरसे तक पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते उनके लेखन में एक ठहराव आया, लेकिन यह ज्यादा वक्त तक नहीं रहा। पढ़ने-लिखने से वे अलग हो जातीं, यह मुमकिन भी नहीं था। क्योंकि उनकी जिन्दगी की डोर तो सज्जाद जहीर से बंध गई थी, जो खुद एक बड़े आंदोलनकर्ता, संगठनकर्ता और लेखक थे।
शादी के एक हफ्ते के बाद ही उन्हें अपने पति सज्जाद जहीर के साथ कलकत्ता जाना पड़ा, जहां प्रगतिशील लेखक संघ का दूसरा राष्ट्रीय अधिवेशन था। जाहिर है ऐसे माहौल में उनके लेखकीय व्यक्तित्व का विकास हुआ। उनके लेखन को निखारने-संवारने में सज्जाद जहीर ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
एक तरफ वे संजीदगी से अपनी पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियां संभालती रहीं, तो दूजी ओर इन सबके बीच जो भी समय मिलता, अदब की खिदमत करतीं। प्रगतिशील लेखक संघ की उनके घर में जो भी बैठकें होती, उनमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती। अनुवाद जैसा श्रमसाध्य काम करतीं।
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लिखी जज्बाती कहानीयां
साल 1952 तक आते-आते उनकी कहानियां, रेडियो पर पढ़ी जाने लगीं और उनके लिखे ड्रामे खेले जाने लगे। रेडियो के लिए उन्होंने फीचर और वार्ताएं भी लिखीं। ‘शमां’ और ‘बीसवीं सदी’ जैसी अपने समय की मशहूर पत्रिकाओं में उनकी कहानी और लेख छपते थे।
‘जर्द गुलाब’ और ‘अल्लाह दे, बंदा ले’, रज़िया के प्रमुख कहानी संग्रह हैं। वहीं ‘ये शरीफ लोग’, ‘अल्लाह मेघ दे’ ‘सुमन’, ‘सरेशाम’ और ‘कांटे’ उनके उपन्यास हैं। उपन्यास ‘अल्लाह मेघ दे’ लखनऊ में आए सैलाब पर केन्द्रित है। जिसमें उन्होंने बंटवारे का भी मार्मिक मंजर बयां किया है।
बंटवारे की असीम वेदना और उसके गहरे जख्म, उनकी जज्बाती कहानी ‘नमक’ में भी दिखाई देते हैं। जिसमें बंटवारे में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में बंट जाने के बाद भी अपनी सरजमीं से कहानी के अहम किरदारों का जी नहीं छूटता। जहां वे पैदा हुए, पले-बढ़े वही उनकी नजर में उनका वतन है।
रज़िया सज्जाद जहीर, कहानीकार के तौर पर भले ही रशीद जहां या इस्मत चुगताई की तरह मकबूल नहीं हुईं, लेकिन उनकी कहानियां पाठकों को सोचने को विवश करती हैं। पाठकों को उनसे एक नजरिया मिलता है। उनकी कहानियों में सामाजिक चेतना और वर्ग चेतना इस तरह से गुंथी हुई है कि उसे अलग नहीं किया जा सकता।
प्रगतिशील आलोचक डॉ. कमर रईस, रज़िया को प्रेमचंद की परंपरा का अफसानानिगार मानते थे। वहीं लेखक, पत्रकार, फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी कहानियों पर टिप्पणी करते हुए कहा था, “वह खुद तो औरत थीं, लेकिन उन्होंने मर्दाना समाज के चेहरे से नकाब उठाया और कई यादगार मर्द पात्र दिए।”
अब्बास की यह बात सही भी है। कहानी ‘अल्लाह दे बंदा ले’ का नायक ‘फखरु’ हो या फिर ‘सुतून’ कहानी का बूढ़ा नायक ‘अमीर खान’ ये किरदार अपनी बेमिसाल इन्सानियत और बेदाग ईमानदारी से लंबे समय तक पाठकों के जेहन में जिन्दा रहेंगे।
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एक उम्दा अनुवादक
डॉ. शारिब रूदोलवी का मानना है कि “रज़िया सज्जाद जहीर, पहले अपनी कहानियों को खुद जीती हैं, तब कागज पर उतारती थीं।” ‘बड़ा सौदागर कौन?’, ‘बीजों की पपड़ी’, ‘बादशाह’, ‘तली ताल से चैना माल तक’, ‘रईस भाई’, ‘सच और सिर्फ सच, सच के सिवा कुछ नहीं’, ‘निगोड़ी चले आवे है’, ‘अब पहचानो’, ‘लावारिस’, ‘सूरजमल’, ‘राखी वाले पंडित जी’ आदि कहानियां यदि हम गौर से पढ़ें, तो उनकी यह बात सही भी नजर आती हैं।
‘इंतजार खत्म हुआ, इंतजार बाकी है’ रज़िया की निजी जिन्दगी से जुड़ा एक शानदार संस्मरण है, जिसमें वे अपने पति सज्जाद जहीर को अलग-अलग तरह से याद करती हैं।
अंग्रेजी भाषा की प्रसिद्ध रचनाकार सूजी थारो द्वारा संपादित किताब ‘वूमेन राइटिंग इन इंडिया, भाग दो : द ट्वेन्टी सेंचुरी’ में रशीद जहां की कहानी ‘वह’, इस्मत चुगताई की ‘लिहाफ’ के साथ-साथ रज़िया सज्जाद जहीर की ‘नीच’ कहानी को भी शामिल किया गया है। यही नहीं ‘बीसवीं सदी में ख्वातीन का उर्दू अदब’ नामक उर्दू की एक किताब में उनकी कहानी ‘जर्द गुलाब’ को लिया गया है।
रज़िया सज्जाद जहीर ने गद्य की अन्य विधाओं में भी अपने हाथ आजमाए। उन्होंने कुछ रिपोर्ताज और सफरनामा भी लिखा। बच्चों के लिए एक उपन्यास ‘नेहरू का भतीजा’ लिखा। नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए उन्होंने उर्दू कहानियों का एक संकलन भी संपादित किया, जो काफी पसंद किया गया। यही नहीं कुछ नाटकों के अनुवाद के साथ-साथ, नाटक भी लिखे।
रज़िया ने अफसानों के अलावा कई अहमतरीन किताबों का अंग्रेजी और हिन्दी से उर्दू जबान में अनुवाद भी किया। उन्होंने इंसान के विकास पर रूसी भाषा की एक साइंस की किताब का ‘इन्सान का उरूज’ नाम से शानदार अनुवाद किया, तो कई दूसरी विदेशी भाषाओं के बेहतरीन उपन्यास उनकी वजह से ही भारतीय पाठकों तक पहुंचे।
मसलन मैक्सिम गोर्की का क्लासिक उपन्यास-‘मां’ (साल 1938), ‘माइ चाइल्डहुड’, ‘माइ अप्रेंटिसशिप’, ‘माइ यूनिवर्सिटीज’, बर्तोल्त ब्रेख्ट-‘लाइफ ऑफ गैलिलियो गलिली’ (साल 1939), रसूल गम्जतोव-‘माई दागिस्तान’ (साल 1970), चंगेज ऐत्मतोव-‘अमीला’ (साल 1974), चंगेज ऐत्मतोव-‘फेयरवेल गुल्सरी’ (साल 1975), ब्रूनो अपित्ज के ‘नेकेड अमंग वूल्वस’, सिंज की किताब ‘राइडर्स टु द सी’ वगैरह-वगैरह।
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प्रगतिशील विचारधारा में आस्था
रज़िया का अनुवाद का यह काम यहीं तक महदूद नहीं रहा, बल्कि अपने यहां के बड़े लेखकों की भी कई अच्छी किताबों के अनुवाद का जिम्मा उन्होंने उठाया। मसलन डॉ. मुल्कराज आनंद के उपन्यास ‘कुली’, भगवती चरण वर्मा के ‘भूले बिसरे चित्र’ और अमृत लाल नागर के उपन्यास ‘बूंद और समुद्र’ का उन्होंने उर्दू में अनुवाद किया।
रज़िया सज्जाद जहीर को ‘सोवियत लैण्ड नेहरू अवार्ड’ के अलावा अन्य कई अवार्ड मिले, जिसमें ‘अखिल भारतीय लेखिका संघ पुरस्कार’ भी शामिल है।
अपने पति सज्जाद जहीर की तरह रज़िया की भी प्रगतिशील विचारधारा में गहरी आस्था थी। अदब में कला से ज्यादा वे कथ्य पर जोर देती थीं। उनका ये स्पष्ट मानना था कि यदि किसी कहानी में समाजी, सियासी चेतना नहीं है, तो वो कहानी कोई काम की नहीं है। उनकी कहानियों के केन्द्र में हमेशा आम आदमी रहा। उसके सुख-दुःख, उम्मीदें-नाउम्मीदें रहीं।
18 दिसम्बर, 1980 को रज़िया सज्जाद जहीर ने इस दुनिया से अपनी आखिरी विदाई ली। अदब में उनके योगदान को पाठक, आलोचक अलग-अलग तरह से याद करते हैं और आगे भी करते रहेंगे, लेकिन जिस जज्बाती अंदाज में उनकी छोटी बेटी नूर जहीर ने उन्हें अपनी किताब ‘मेरे हिस्से की रौशनाई’ में याद किया है, वह जैसे उनकी पूरी बावकार हस्ती का निचोड़ है,
“चार सौ बरस पहले मेवाड़ में एक मीरा का जन्म हुआ था, जिसने समर्पण में कितना वकार, कितनी इज्जत है……..इसकी मिसाल कायम की थी। मेवाड़ से कोई सौ मील दूर, मीरा के चार सदी बाद, अजमेर में एक रज़िया हुई, जिसने मुस्तकिल इंतजार को अपना अकीदा मान लिया, जिसने अपने वजूद को अपने साथी के रंग में ऐसे ढाल लिया था, जैसे गिरधर में मीरा समां गई थी..”
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।