जब बेनाम ख़ौफ़ से पिछा करती हैं ‘मौत की परछाईं !’

ज़िन्दगी में तीन बार मुझे लगा है कि मौत परछाईं की तरह बहुत पास से निकल गयी। आप यह भी कह सकते हैं कि मैं जिंदगी में तीन बार बहुत डरा हूं ।

इनमें से एक घटना में बारे में बताता हूँ।

ये सब

यहाँ क्लिक करें

हर दूसरा पाकिस्तानी भारत आने के लिए हैं बेताब

र्दी इतनी बढ़ गई थी कि मैं कूपे में टहलने पर मजबूर हो गया था। एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी। बाहर प्लेटफार्म से चाय चायकी आवाजें आने लगीं। मैंने चाय वाले को आवाज दी लेकिन कोई नहीं आया। मैंने कुछ और

यहाँ क्लिक करें

पाकिस्तानी में ट्रेन का सफ़र और जासूस होने का डर

2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में पाकिस्तान जाना हुआ था। लौटकर मैंने 40 दिन की सघन यात्रा पर एक किताब लिखी थी जो रवींद्र कालिया ने ज्ञानोदय में छापी थी और उसे ज्ञानपीठ ने किताब की शक्ल

यहाँ क्लिक करें

मणि कौल ने फिल्मों से पैसा नहीं बल्कि नाम कमाया

पुराने दोस्तों की याद किसी भी चोर दरवाजे से अंदर आ जाती है। कुछ ही दिन पहले फिल्मकार मणि कौल (1944-2011) की याद आ गई। उनकी याद उनके सुनाए एक किस्से से आई। मणि कौल राजस्थान में किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे

यहाँ क्लिक करें

भावों को व्यक्त करना हैं ग़ज़ल लिखने की चुनौती

ग़ज़ल का फार्म हिन्दी, उर्दू, फारसी, तुर्की आदि एशियाई भाषाओं के कवियों को ही नहीं पश्चिमी भाषाओं के कवियों को भी आकर्षित करता है। इसका कारण क्या है? संक्षेप में कह सकते हैं कि ग़ज़ल का फॉर्म  एक विचार,

यहाँ क्लिक करें

कवि नही दर्द की जख़िरा थे सय्यद मुत्तलबी फ़रीदाबादी

र्दू शायरी के बारे में एक आम राय यह है कि वह ऊंचे तबके के शहरी लोगों की शायरी है जिसका गांव के जीवन और ग़रीब लोगों से कोई ताल्लुक नहीं है। लेकिन उर्दू में ऐसे शायरों की कमी नहीं है जिन्होंने अवाम की

यहाँ क्लिक करें

‘रोमन’ हिन्दी खिल रही है, तो ‘देवनागरी’ मर रही है

मुंबई से फिल्म निर्देशक का फोन आया कि फिल्म के संवाद रोमन लिपि में लिखे जाएं। क्यों? इसलिए कि अभिनेताओं में से कुछ हिन्दी बोलते-समझते हैं लेकिन नागरी लिपि नहीं पढ़ सकते। कैमरामैन गुजरात का है। वह भी हिन्दी समझता-बोलता है लेकिन पढ़ नहीं सकता। …

यहाँ क्लिक करें

अनुवाद में कठिन शब्दों को निकालने कि ‘आज़ादियां’ है

पंडित रतन नाथ सरशार’ (1846-1903) उर्दू के एक विलक्षण लेखक थे जिनकी सबसे बड़ी रचना तीन हज़ार पृष्ठों में फैला उपन्यास फ़सान-ए-आज़ादहै जिसे 19वीं शताब्दी के सामाजिक – सांस्कृतिक इतिहास का एक प्रामाणिक दस्तावेज भी माना जाता है।

यहाँ क्लिक करें
अनुवाद में मूल भाषा का मिज़ाज

अनुवाद में मूल भाषा का मिज़ाज क्यों जरुरी हैं ?

रसरी तौर पर देखने से लगता है की उर्दू टेक्स्ट का हिन्दी अनुवाद एक बहुत सरल काम है क्योंकि भाषा एक है। इसलिए केवल लिप्यंतरण से काम चल जाएगा। माना भी यही जाता है की उर्दू-हिन्दी और हिन्दी-उर्दू का अनुवाद लिप्यंतरण तक सीमित रहना

यहाँ क्लिक करें