शायर-ए-इंकलाब ‘जोश मलीहाबादी’ पाकिस्तान क्यों चले गए?

र्दू अदब में जोश मलीहाबादी वह आला नाम है, जो अपने इंकलाबी कलाम से शायर-ए-इंकलाब कहलाए। उनके तआरुफ और अज्मत को बतलाने के लिए उनके हजारों शेर काफी है। वरना उनके अदबी खजाने में ऐसे-ऐसे कीमती हीरे-मोती हैं, जिनकी चमक कभी कम नहीं होगी।

उत्तर प्रदेश में लखनऊ के नजदीक मलीहाबाद में 5 दिसंबर, 1898 में पैदा हुए शब्बीर हसन खां, बचपन से ही शायरी के जानिब अपनी बेपनाह मुहब्बत के चलते, आगे चलकर जोश मलीहाबादी कहलाए। शायरी उनके खून में थी। उनके अब्बा, दादा सभी को शेर-ओ-शायरी से लगाव था।

घर के अदबी माहौल का ही असर था कि वे भी नौ साल की उम्र से ही शेर कहने लगे थे और महज तेईस साल की छोटी उम्र में उनकी गजलों का पहला मजमुआ रूहे-अदबशाया हो गया था। जोश मलीहाबादी की जिंदगानी का शुरुआती दौर, मुल्क की गुलामी का दौर था। जाहिर है कि इस दौर के असरात उनकी शायरी पर भी पड़े।

हुब्बुलवतन (देशभक्ति) और बगावत उनके मिजाज का हिस्सा बन गई। उनकी एक नहीं, कई ऐसी गजलें-नज्में हैं, जो वतनपरस्ती के रंग में रंगी हुई हैं। मातमे-आजादी’, ‘निजामे लौ’, ‘इन्सानियत का कोरस’, ‘जवाले जहां बानीके नाम अव्वल नंबर पर लिए जा सकते हैं।

जूतियां तक छीन ले इंसान की जो सामराज

क्या उसे यह हक पहुंचता है कि रखे सर पे ताज

इंकलाब और बगावत में डूबी हुई जोश की ये गजलें-नज्में, जंग-ए-आजादी के दौरान नौजवानों के दिलों में गहरा असर डालती थीं। वे आंदोलित हो उठते थे। यही वजह है कि जोश मलीहाबादी को अपनी इंकलाबी गजलों-नज्मों के चलते कई बार जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपना मिजाज और रहगुजर नहीं बदली।

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तरक्कीपसंद शायरी

जोश मलीहाबादी को लफ्जों के इस्तेमाल पर महारत हासिल थी। अपनी शायरी में जिस तरह से उन्होंने उपमाओं और अलंकारों का शानदार इस्तेमाल किया है, उर्दू अदब में ऐसी कोई दूसरी मिसाल ढूंढे से नहीं मिलती।

अपनी शानदार गजलों-नज्मों-रुबाईयों से जोश मलीहाबादी देखते-देखते पूरे मुल्क में मकबूल हो गए। उर्दू अदब में मकबूलियत के लिहाज से वे इकबाल और जिगर मुरादाबादी की टक्कर के शायर हैं। यही नहीं तरक्की पसंद तहरीक के वे अहम शायर थे।

उन्होंने उर्दू में तरक्कीपसंद शायरी की दागबेल डाली। यही वजह है कि तरक्की पसंद तहरीक में जोश की हैसियत एक रहनुमा की है। उनके कलाम में सियासी चेतना साफ दिखलाई देती है और यह सियासी चेतना मुल्क की आजादी के लिए इंकलाब का आहृन करती है।

इन पाप के महलों को गिरा दूंगा मैं एक दिन

इन नाच के रसियों को नचा दूंगा मैं एक दिन

मिट जाएंगे इंसान की सूरत के ये हैवान

भूचाल हूं भूचाल हूं तूफान हूं तूफान

उर्दू अदब के बड़े आलोचक एहतेशाम हुसैन, अपनी किताब उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहासमें जोश मलीहाबादी की शायरी का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं, “जोश को प्राकृतिक, श्रंगार-पूर्ण और राजनीतिक कविताएं लिखने पर समान रूप में अधिकार प्राप्त है। भारत के राजनीतिक जीवन में कदाचित् ही कोई ऐसी घटना हुई होगी, जिस पर उन्होंने कविता न लिखी हो।

इस इंकलाबी शायर की अपनी जिंदगानी में पंद्रह से ज्यादा किताबें प्रकाशित हुईं। उनकी कुछ अहम किताबें हैं, ‘नकशोनिगार’, ‘अर्शोफर्श’, ‘शोला-ओ-शबनम’, ‘फिक्रो-निशात’, ‘हर्फो-हिकायत’, ‘रामिशो-रंग’, ‘सुंबुलो-सलासिल’, ‘सरोदो-खरोशऔर सुमूमोसबाआदि।

जोश मलीहाबादी ने मुल्क की आजादी से पहले कलीमऔर आजादी के बाद आजकलमैगजीन का संपादन किया। फिल्मों के लिए कुछ गाने लिखे, तो एक शब्दकोश भी तैयार किया, लेकिन उनकी मुख्य पहचान एक शायर की है।

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यादों की बरात

जोश का अदबी सरमाया जितना शानदार है, उतनी ही जानदार-जोरदार उनकी जिन्दगी थी। जोश साहब की जिन्दगी में गर हमें दाखिल होना हो, तो सबसे बेहतर तरीका यह होगा कि हम उन्हीं के मार्फत उसे देखें-सुने-जाने, क्योंकि जिस दिलचस्प अंदाज में उन्होंने यादों की बरातकिताब में अपनी कहानी बयां की है, उस तरह का कहन बहुत कम देखने-सुनने को मिलता है।

बुनियादी तौर पर उर्दू में लिखी गई इस किताब का पहला एडिशन साल 1970 में आया था। तब से इसके कई एडिशन आ चुके हैं, लेकिन पाठकों की इसके जानिब मुहब्बत और बेताबी कम नहीं हुई है।

यादों की बरातकी मकबूलियत के मद्देनजर, इस किताब के कई जुबानों में तजुर्मे हुए और हर जुबान में इसे पसंद किया गया। बहरहाल, बात यादों की बरातकी। जोश मलीहाबादी ने यह किताब अपनी जिन्दगी के आखिरी वक्त में लिखी थी।

सरशार हूं सरशार है दुनिया मिरे आगे

कौनैन है इक लर्ज़िश-ए-सहबा मिरे आगे

जोशउठती है दुश्मन की नज़र जब मिरी जानिब

खुलता है मोहब्बत का दरीचा मिरे आगे

आज हम इस किताब के गद्य पर फिदा हैं, लेकिन शायर-ए-इंकलाब के लिए यह काम आसान नहीं था। खुद किताब में उन्होंने यह बात तस्लीम की है, अपने हालाते-जिन्दगी कलमबंद करने के सिलसिले में उन्हें छह बरस लगे और चौथे मसौदे में जाकर वे इसे मुकम्मल कर पाए।

हांलाकि, चौथे मसौदे से भी वे पूरी तरह से मुतमईन नहीं थे, लेकिन जब किताब आई, तो उसने हंगामा कर दिया। अपने बारे में इतनी ईमानदारी और साफगोई से शायद ही किसी ने इससे पहले लिखा हो। अपनी जिन्दगी के बारे में वे पाठकों से कुछ नहीं छिपाते। यहां तक कि अपने इश्क भी, जिसका उन्होंने अपनी किताब में तफ्सील से जिक्र किया है।

अलबत्ता जिनके इश्क में वे गिरफ्तार हुए, उनके नाम जरूर उन्होंने कोड वर्ड में दिए हुए हैं। मसलन एसएच, एनजे, एम बेगम, आर कुमारी। पांच सौ दस पेज की यह किताब पांच हिस्सों में बंटी हुई है।

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जोश पाकिस्तान क्यों गए?

अक्सर यह सवाल पूछा जाता है। सिर्फ इस एक बिना पर कुछ अहमक और जाहिल लोग उनकी वतनपरस्ती पर सवाल उठाने से भी बाज नहीं आते। वे पाकिस्तान क्यों गए?

कीताब के कुछ अध्यायों मुबारकबाद! कांटों का जंगल फिर’, ‘जाना, शाहजादा गुलफाम का, चौथी तरफ और घिर जाना उसका आसेबों के घेरे मेंमें जोश मलीहाबादी ने इस सवाल का तफ्सील से जवाब दिया है। उनके करीबी दोस्त सैयद अबू तालिब साहब नकवी चाहते थे कि वे भारत छोड़कर पाकिस्तान आ जाएं। जब भी जोश मुशायरा पढ़ने पाकिस्तान जाते, वे उनसे इस बात का इसरार करते।

आखिरकार, उन्होंने जोश मलीहाबादी के दिल में यह बात बैठा ही दी कि भारत में उनके बच्चों और उर्दू जुबान का कोई मुस्तकबिल नहीं है। अपनी इस उलझन को लेकर वे मौलाना अबुल कलाम आजाद के पास पहुंचे और उनसे इस संबंध में राय मांगी। तो उनका जवाब था, नकवी ने यह सही कहा है कि नेहरू के बाद आपका यहां कोई पूछने वाला नहीं रहेगा। आप तो आप, खुद मुझे कोई नहीं पूछेगा।

फिर भी उन्होंने उनसे पंडित नेहरू से मिलकर, अपना आखिरी फैसला लेने की बात की। नेहरू ने जब जोश की पूरी बात सुनी, तो वे बेहद गमगीन हो गए और उन्होंने उनसे इस मसले पर सोचने के लिए दो दिन की मोहलत मांगी।

दो दिन के बाद जब जोश उनके पास पहुंचे, तो उन्होंने कहा, “जोश साहब, मैंने आपके मामले का एक ऐसा अच्छा हल निकाल लिया है, जिसे आप भी पसंद करेंगे। क्यों साहब, यही बात है न कि आप अपने बच्चों की माली हालात और तहजीबी भविष्य को संवारने और उर्दू जबान की खिदमत करने के वास्ते पाकिस्तान जाना चाहते हैं?”

मैंने कहा, “जी हां, इसके सिवा और कोई बात नहीं हैं।उन्होंने कहा, “तो फिर आप ऐसा करें कि अपने बच्चों को पाकिस्तानी बना दें, लेकिन आप यहीं रहें और हर साल पूरे चार महीने आप पाकिस्तान में ठहर कर उर्दू की खिदमत कर आया करें। सरकारे-हिंद आपको पूरी तनख्वाह पर हर साल चार महीने की रुखसत दे दिया करेगी।

नेहरू का यह बड़ा दिल था, जो अपने दोस्त और मुल्क के महबूब शायर को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते थे, लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरानों और वहां उनके चाहने वालों को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई और उन्होंने जोश से एक मुल्क चुनने को कहा और इस तरह से साल 1955 में जोश मलीहाबादी मजबूरी में पाकिस्तानी हो गए।

क्या हिंद का ज़िन्दां कांप रहा है गूंज रही हैं तक्बीरें

उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें

क्या उन को ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे

इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें

संभलों कि वो ज़िंदां गूंज उठा झपटो कि वो क़ैदी छूट गए

उट्ठो कि वो बैठीं दीवारें दौड़ो कि वो टूटी ज़ंजीरें

जोश पाकिस्तान जरूर चले गए, मगर इस बात का पछतावा उन्हें ताउम्र रहा। जिस सुनहरे मुस्तकबिल के वास्ते उन्होंने अपना वतन छोड़ा था, वह ख्वाब चंद दिनों में ही टूट गया। उन्होंने पाकिस्तान में जिस पर भी एतबार किया, उससे उन्हें धोखा मिला और उर्दू की जो पाकिस्तान में हालत है, वह भी सबको मालूम है।

पाकिस्तान जाने का फैसला चूंकि खुद जोश मलीहाबादी का था, लिहाजा वे खामोश रहे। वहां घुट-घुटके जिये, मगर शिकवा किसी से न किया। पाकिस्तान में रहकर वे भारत की मुहब्बत में डूबे रहते थे। वे चाहकर भी अपने पैदाइशी मुल्क को कभी नहीं भुला पाए।

पाकिस्तान में उनकी बाकी जिन्दगी नाउम्मीदी और गुमनामी में बीती। मेरे दौर की चंद अजीब हस्तियांकिताब के इस हिस्से में जोश मलीहाबादी ने उन लोगों पर अपनी कलम चलाई है, जो अपनी अजीबो-गरीब हरकतों और न भुलाई जाने वाली बातों से उन्हें ताउम्र याद रहे और जब वे कलम लेकर बैठे, तो उनको पूरी शिद्दत और मजेदार ढंग से याद किया। 22 फरवरी, 1982 को यह जोशीला इंकलाबी शायर इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गया।

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