नये नागरिकता कानून देश को बांटने का का काम कर रहा हैं। इसलिए जामिया के छात्र CAA और NRC ने के खिलाफ खडे हुए हैं। इस विरोधी आंदोलन के चलते विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय निष्ठा पर संदेह किया जा रहा हैं।
पिछले महिनेभर से विश्वविद्यालय बीजेपी द्वारा चलाये जा रहे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का विरोध कर रहा हैं। छात्र शांतिपूर्ण और संवैधानिक ढांचे में कानून के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। जिसके बाद उत्तर भारत, पश्चिम बंगाल में कानून को खारिज करने के लिए एक बडा जनांदोलन खडा हुआ हैं।
जामिया इस्लामिया के छात्र बीते साल 13 दिसंबर कि वह ठंडी और अँधेरी रात कभी नही भूल पायेंगे, जिस रात उनपर पुलिसियाँ बर्बरता का कहर टुट पडा। उस रात छात्र विश्वविद्यालय के गेट पर शांति से प्रदर्शन कर रहे थे, तब पुलिस नें उनपर गोलियाँ बरसाई।
इतना ही नही यूनिव्हर्सिटी के रिडिंग रुम मे घुसकर पढ रहे छात्रों को बुरी तरह से पिटा। लायब्ररी में रखी किताबो को नुकसान पहुँचाया। यह बर्बरता और दहशत का खेल देर रात जारी था। अगले दिन फिर पुलिस ने छात्रों पर लाठीयाँ और गोलियाँ बरसाई जिसमें गोली लगने से एक छात्र कि मृत्यू हुई। इस घटना के बाद देशभर में सरकारविरोधी प्रदर्शन का दौर शुरु हुआ।
स्थापना के 100 साल पुरे होने पर आज फिर एक बार जामिया राष्ट्रवाद कि कठिण परीक्षा के गुजर रहा हैं। उल्लेखनीय हैं कि जामिया इस्लामिया स्थापना ब्रिटिशों द्वारा चलाई जा रही सांप्रदायिक राजनीति के विरोध में हुई। जिसके संस्थापक कई गनमाण्य लोग थें। इस विश्वविद्यालय के स्थापना का उद्देश्य स्वतंत्रता आंदोलन को मजबुती प्रदान करना था।
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राष्ट्रवाद कि परीक्षा
सर सय्यद अहमद खान एक बडे समाजसेवी थें। जिन्होंने सामाजिक कुरितीयाँ तथा उलेमाओं के धर्मवादी राजनीति के खिलाफ खुलकर बोलने की मुहीम शुरु कर दी थी। वे धर्म के नाम पर चल रहे पोंगापंछ तथा परंपरावादीओं के खिलाफ वे मुलाहिजा नही रखते थें और उसके खिलाफ कृति करते थें। धार्मिक उलेमाओ के खिलाफ उनकी मुहीम जोर से चल रही थीं। जिसके चलते उलेमा तथा अन्य धार्मिक नेतृत्व नें उनका प्रखर विरोध शुरु किया। यहां तक कि उन्हे काफिर भी घोषित किया गया।
सर सय्यद मुसलमानों को आधुनिक दिलाने के लिए धार्मिक उलेमा के खिलाफ खडे थें। उलेमा का मानना था कि मुसलमानों को कुरआनी शिक्षा मिले जिससे उन्हें इस्लामी तत्त्वज्ञान कि जानकारी हो।
जबकी सर सय्यद का चाहते थे कि धार्मिक शिक्षा के साथ मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा भी मिले। खासकर अंग्रेजी शिक्षा के वे हिमायती थें। इसी उद्देश के चलते पहले उन्होंने 1875 में ‘मोहमेडन एंग्लो ओरिएंटल कालेज’ (Muhammadan Anglo Oriental College) कि स्थापना की थी। जो आगे चलकर ‘अलीगढ़ विश्वविद्यालय’ बना।
ब्रिटिश सरकार के सहायता से उन्होंने भारतीय मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा से जोडना चाहा। उनका उद्देश मुसलमानों में सामाजिक सुधार तथा शिक्षा के प्रति जागरुकता पैदा करना था।
सर सय्यद उन दिनों मुसलमानों में सामाजिक सुधार के पक्षधर बने थे। जिस तरह राजा राममोहन राय और महात्मा फुले नें ब्रिटिश सरकार के सहायता सामाजिक सुधार कार्यक्रम चलाये थे और अंग्रेजों की मदद से समाज में चेतना पैदा करने का काम किया था, उसी तरह सर सय्यद ब्रिटिशो कि सहायता से सामाजिक और शैक्षिक सुधार चाहते थें। सर सय्यद के इस भूमिका का आज तक लोग विरोध करते हैं। जबकि ज्योतिबा फुले और राजा राममोहन राय इस आरोप से बेदाग हैं।
पर दुर्भाग्यवश सर सय्यद के प्रामणिक हेतू का ब्रिटिशों ने गलत फायदा उठाया। अंग्रेजी शिक्षा के आड में ब्रिटिशो नें सर सय्यद के साथ विषैली राजनीति की। इसपर सर सय्यद की चुप्पी कई राष्ट्रवादी नेताओं को परेशान कर रही थी। सर सय्यद के जाने के बाद कॉलेज में ब्रिटिशों कि हिमायत बडे पैमाने पर शुरु हुई और स्वाधीनता आंदोलन को समाप्त करने कि साजिशे चलने लगी।
जिसमें एक के बाद एक तीन अंग्रेज प्रोफेसर शामिल थें। जिनका काम छात्रों तथा युवाओं को अंग्रेज सरकारविरोधी आंदोलनो को रोकना तथा उन्हे स्वतंत्रता संग्राम से दूर रखना था। जिसमें प्रो. थियोडोर बेक, प्रो. मॉरिसन और प्रो. आर्ची बोल्ड यह तीन प्रिन्सिपल प्रमुखता से शामील थें।
उन्होंने अलीगढ विश्वविद्यालय में अलगाववाद कि राजनीति शुरु की। इन तीनों ने अलीगढ कॉलेज को पूरी तरह अपने नियंत्रण में कर लिया। और छात्रों को स्वतंत्रता संग्राम से दूर रखने में भूमिका निभाई।
हसरत मोहानी अलीगढ़ कॉलेज में थे, वे वहां स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थें। मोहानी कानूनी शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय छात्रवृत्ति चाहते थें। परंतु ब्रिटिश विरोधी तत्त्वो के चलते प्रशासन ने उन्हे स्कॉलरशीप से वंचित रखा। इतना ही नही अंग्रेजो ने हसरत मोहनी के शिक्षा के सभी दरवाजे बंद कर दिए। अंग्रेजो के खिलाफ उठने वाली हर आवाज इसी तरह दबा दी जाती, या मुँह खोलने वालों को जेल में भेज दिया जाता।
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राष्ट्रवादी विचारों कि नींव
सन 1920 के मध्य में महात्मा गांधी द्वारा चलाया जा रहा ‘असहयोग आंदोलन’ जोरो पर था। ब्रिटिशों को भारत खदेडने कि मुहीम में आम लोगों का सहयोग प्राप्त करने नें देशभर में दौरे कर रहे थें। इसी के चलते महात्मा गांधी मौलाना मुहंमद अली के साथ अलीगढ विश्वविद्यालय पहुँचे थें। यूनिव्हर्सिटी परिसर में एक सभा हुई।
जिसमेंं गांधीजी और मौलाना मुहंमद अली ने छात्रों के सामने भावूक भाषण दिया। कुछ छात्रों ने सभा का विरोध कर मेहमानों से दुर्व्यवहार किया। इस खबर से राष्ट्रवादी छात्र और स्टाफ आग बबुला हुए। उस समय जाकिर हुसैन वहा नही थें। पर जैसे ही उन्हें इस दुर्व्यवहार कि खबर मिली उन दोनो से मिलने शहर में वे जहां रुके थे वहां पहुँचे।
अगले दिन फिर से जाकिर हुसैन ने दोनो मेहमानों विश्वविद्याल आमंत्रित किया। वहा गांधीजी कि सभा हुई। जाकिर हुसेन उस सभा में मौजूद थें। उन्होंने गांधीजी का समर्थन किया।
जाकिर हुसैन स्टाफ के हैसियत से नही बल्कि एक राष्ट्रवादी भारतीय के तौर पर मौजूद थें। उस सभा मे जाकिर हुसैन ने एक दमदार भाषण दिया। अपनी नौकरी और स्कॉलरशीप का त्याग कर वे भी असहयोग आंदोलन में शामील हुए। जिससे उपस्थित छात्रों का हौसला और अधिक बुलंद हुआ।
आगे चलकर बरतानिया हुकूमत के खिलाफ एक बडी मूव्हमेंट अलीगढ़ विश्वविद्यालय से शुरु हुई। जिसने अंग्रेज़ी सरकार को हिलाकर रख दिया। जाकिर हुसैन, हकिम अजमल खान, मुहंमद अली जौहर, महमूद-उल-हसन, शौकत अली और महात्मा जैसे राष्ट्रवादी नेता अंग्रेजो द्वारा सताये गये।
यही अवहेलना केवल 17 दिनों मे जामिया बुनियाद बनी। परिणामस्वरूप, सभी नेताओं ने अलीगढ़ कॉलेज और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया और विश्वविद्यालय परिसर में ‘जामिया’ (Jamia Millia Islamia) की स्थापना की। वह दिन था 29 अक्टूबर, 1920 और दिन था शुक्रवार।
इस प्रकार एक ‘राष्ट्रवादी मुस्लिम विश्वविद्यालय’ का जन्म हुआ। जिसके संस्थापक डॉ. हकीम अजमल खान, डॉ. एम. ए. अन्सारी, जाकिर हुसैन, शौकत अली, मुहंमद अली जौहर तथा महात्मा गांधी थें। स्वतंत्रता सेनानी और मुस्लिम धर्मज्ञ, मौलाना महमूद हसन ने इसकी नींव रखी। हकीम अजमल ख़ान जामिया के पहले चांसलर बने। नए विश्वविद्यालय के पास एक मेज, एक ब्लॅक बोर्ड, और कुछ युवा छात्र थे, जो स्वतंत्रता और आंदोलन में काम करना चाहते थें।
जामिया को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ चुनौती के रुप में देखा जाने लगा। जामिया आंदोलन राष्ट्रवादी शिक्षा पॉलिसी को बनाना और दूसरा मकसद स्वाधीनता आंदोलन के लिए कार्यकर्ता तयार करना था।
‘जामिया मिल्लिया इस्लामिया’ के स्थापना के बाद भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को नई चेतना और दिशा मिली। असहयोग आंदोलन के बीच राष्ट्रवादी विचार को लेकर नया विश्वविद्यालय वजूद मे आया जो आगे चलकर स्वतंत्रता आंदोलन का सबसे बडा केंद्र बनकर उभरा।
1924 में खिलाफत आंदोलन के समाप्ती के बाद कमिटी कि ओर से मिलने वाली मदद बंद हो गई। जिसके बाद विश्वविद्यालय को आर्थिक तंगी का सामना करना पडा। तब सभी राष्ट्रवादी नेताओ ने लोगों से भीक मांगकर जामिया को चलाया।
‘जामिया और गांधी’ किताब लिखने वाले जामिया के पूर्व छात्र अफरोज आलम साहिल के मुताबिक, ‘‘1922 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था और मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने 1924 में खिलाफत आंदोलन के अंत की घोषणा कर दी। इसके बाद जामिया को मिलने वाली आर्थिक मदद बंद हो गई थी।
28 और 29 जनवरी 1925 को दिल्ली के करोल बाग स्थित शरीफ मंजिल में फाउंडेशन कमेटी का जलसा हुआ, जिसमें तय हुआ कि जामिया को चलाते रहना है। दूसरे दिन जलसे में महात्मा गांधी भी मौजूद थे। पैसों की तंगी को लेकर कहा कि जामिया को चलाना ही होगा, भले ही इसके लिए मुझे भीख ही क्यों न मांगनी पड़े।’’
उस समय जाकिर हुसैन पीएचडी के लिए जर्मनी गये थे। वे भले ही विदेश में थे पर उनके दिलो दिमाग में हमेशा ‘जामिया’ छाया रहता। हर समय वे जामिया के तरक्की के बारे में सोंचते। जर्मनी में उनकी मुलाकात मुहंमद मुजीब से हुई। जो आगे चलकर जामिया के पालनहार बने। 1926 में अपने दोनों दोस्त आबिद हुसैन व जकिर हुसैन के साथ भारत लौटे और जामिया की सेवा में लग गए। जाकिर हुसेन ने बेहम कम मेहताना लेकर काम शुरु किया।
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इस्लामिया शब्द का विरोध
1925 में विश्वविद्यालय दिल्ली के जामिया नगर में स्थानांतरित हो गया। इस विश्वविद्यालय स्वतंत्रता के बाद कई बार विवादों में घिरा रहा। कई बार उसके अल्पसंख्याक दर्जा हटाने के लेकर साजिशे चलती रही। कई दफा यूनिव्हर्सिटी से ‘इस्लामिया’ शब्द हटाने को लेकर आंदोलन चले। आपको याद दिलाता चलूँ के जब जामिया से इस्लामिया नाम हटाने सबसे पहला विरोध महात्मा गांधी ने किया था।
इस बारे जामिया के प्राध्यापक मुहंमद मुजीब 1969 मे उर्दू पत्रिका ‘जामिया’ मे लिखते हैं, ‘‘विश्वविद्यालय के इतिहास में एक ऐसा समय आया जब इसके नाम से ‘इस्लामिया’ शब्द हटाने की बात सामने आई। वजह यह थी कि ऐसा होने के बाद गैर मुस्लिम स्रोतों से फंड लाने में आसानी होगी। जब यह बात महात्मा गांधी को पता चली तो उन्होंने इसका विरोध किया।’’
सय्यद मसरूर अली अख्तर हाशमी ने अपनी किताब में लिखते है, ‘‘गांधी ने न सिर्फ जामिया मिलिया के साथ ‘इस्लामिया’ शब्द बने रहने पर जोर दिया बल्कि वह ये भी चाहते थे कि इसके इस्लामिक चरित्र को भी बरकरार रखा जाए।’’
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उज्ज्वल शैक्षिक परंपरा
आज, आज जामिया भारतीय राष्ट्रवाद का एक ओजस्वी प्रतीक हैं। जामिया ने देशभर में अन्य विश्वविद्यालयों कि तुलना में अपनी उज्ज्वल शैक्षिक परंपरा को बनाए रखी हैं। यह उच्च गुणवत्ता और मॅन पावर देनेवाला महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय माना जाता है। इस विश्वविद्यालय ने छात्रों को चिकित्सक दृष्टि और राजनीतिक समझ को व्यापकता प्रदान कर उसे विकसित किया है।
विश्वविद्यालय ने आधुनिक भारत के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं। यहां के कई नेता आजादी के लडाई में अपनी जान गंवा चुके हैं। जामिया के लिए अनगिनत कुर्बानियां दीं गई। कईयों ने बिना तनख्वाह काम किया। कई लोगों ने अपनी जमीन-जायदाद जामिया के नाम कर दी। घर-परिवार का त्याग कर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अभियान चलाए गए हैं। भारत निर्माण में विश्वविद्यालय का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा हैं।
महात्मा गांधी के अलावा रवीन्द्रनाथ टागोर, मुंशी प्रेमचंद, बिरला, जमुना लाल बजाज जैसी हस्तियों का जामिया से करीबी रिश्ता रहा। इसलिए, जाहीर हैं कि देश को तोडने वाले प्रयासों से इस विश्वविद्यालय को के आत्मा को चोट लगनी लाजमी हैं।
नये नागरिकता कानून देश को बांटने का का काम कर रहा हैं। इसलिए जामिया के छात्र #CAA और #NRC ने के खिलाफ खडे हुए हैं। इस विरोधी आंदोलन के चलते विश्वविद्यालय की राष्ट्र निष्ठा पर संदेह किया जा रहा हैं। पिछले महिनेभर से विश्वविद्यालय बीजेपी द्वारा चलाये जा रहे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का विरोध कर रहा हैं।
छात्र शांतिपूर्ण और संवैधानिक ढांचे में कानून के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। जिसके बाद उत्तर भारत, पश्चिम बंगाल में कानून को खारिज करने के लिए एक बडा जनांदोलन खडा हुआ हैं।
बीते 31 दिसंबर को देशभर को लोग नये साल का जश्न मना रहे थे उस समय जामिया के छात्र सीएए के खिलाफ राष्ट्रीय भावना प्रकट कर रहे थे। परंतु दिल्ली पुलिस ने यहां के छात्रों के खिलाफ बर्बरता का प्रदर्शन करते हुए 100 साल पुराने जालियाँवाला बाग हत्याकांड कि याद दिलाई हैं।
भाजपा सरकार की विनाशकारी नीति के खिलाफ इस विश्वविद्यालय में सभी जाति-समुदायों के छात्र एक साथ खडे हैं। विश्वविद्यालय को इस प्रयास कि हौसला अफजाई और सर्थमन करने की आवश्यकता है। यदि आप आज उनका समर्थन नहीं करते हैं, तो आपकी चुप्पी और उसके होनेवाले घातक परिणामों कि जिम्मेदारी आप कि हो सकता हैं। जिसकी दखल समय के इतिहास में दर्ज हो जायेंगी।
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हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।