क़िताबीयत : इकबाल युरोप में
डॉ. मुहंमद इकबाल उर्दू के विख्यात दार्शनिक कवि हैं। गालिब के बाद उर्दू साहित्यविश्व पर सर्वाधिक जादू इकबाल के नजमों का ही हैं। इकबाल का उल्लेख किए बिना उर्दू साहित्य का इतिहास पुरा नही हो पाता। इकबाल दुनिया के उन दार्शनिकों में शामील है, जिन्होने दर्शनशास्त्र की अपनी धारणाओं को जाहीर करने के लिए कविताओं को माध्यम बनाया।
मुहंमद इकबाल मौलाना रुमी को अपना रुहानी उस्ताद मानते थे, यही वजह से इकबाल पर रुमी का प्रभाव स्पष्ट रुप से नजर आता है। साथ ही इकबाल पर पश्चिम के कई दार्शनिकों का भी प्रभाव था, जिनमें कांट, नित्शे, डंकेन और वर्डस्वर्थ का समावेश हैं।
इकबाल जब तक युरोप में रहे पश्चिम के इन दार्शनिकों के दर्शन का कष्टपूर्वक अध्ययन करते रहे। इकबाल कि जिंदगी का एक अध्याय युरोप में बिता। इकबाल का इतिहास बिना युरोप कि जिंदगी बयान किए पूर्ण नही हो सकता।
इकबाल कि युरोप की जिंदगी पर कई शोधकर्ताओं ने किताबें लिखी है, मगर अब तक इस विषय को लेकर पाठकों कि उत्कंठा अबाधित रही हैं। डॉ. सईद अख्तर दुर्रानी जो पाकिस्तान में इकबाल के दर्शन का अध्ययन करते है, उन्होंने 1985 में एक किताब लिखी है जिसका शिर्षक ‘इकबाल युरोप में’ हैं। इसकी प्रस्तावना डॉ. इकबाल के बेटे जावेद इकबाल ने लिखी हैं। इस किताब का भारतीय संस्करण 2004 में प्रकाशित हुआ हैं।
इस किताब में कुल 11 आलेख हैं, किताब काफी विस्तृत है, जिसमें कुल 539 पृष्ठ हैं। किताब में लेखक ने डॉ. इकबाल के द्वारा युरोप से मिस. इमादगे नास्ट को लिखे हुए कुछ खत शामील किए हैं, साथही इकबाल के होस्टेल की और अन्य तस्वीरें भी दि गयी हैं।
लेखक ने किताब के पहले अध्याय में इकबाल के पैदाईश की असल तारीख क्या हो सकती है, इस मौजू (विषय) पर बहस की है। इकबाल के पैदाईश की तारीख को लेकर हमेशा से इकबाल के अभ्यासकों में बहस होती रही हैं। लेखक ने इस विषय पर कुछ नई जानकारी देने की कोशिश की हैं।
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रुह की तरबियत
इकबाल के कई उस्ताद थे, जिनमें मिस. इमादगे नास्ट जर्मन भाषा की शिक्षिका थी और सर थॉमस अर्नाल्ड फिलॉसॉफी के शिक्षक थे। डॉ. सईद अख्तर दुर्रानी ने इन दोनो शिक्षकों के मुतालिक अहम जानकारी देने कि कोशीश की है। डॉ. सईद अख्तर दुर्रानी लिखते हैं,
‘‘इकबाल इस विश्वविद्यालय में अपने उस्ताद सर थॉमस अर्नॉल्ड के मशवरे पर आए थे, जो एक बहोत बडे प्रोफेसर थें। उन्होने लाहोर के गव्हर्मेंट कॉलेज में सन 1898 से 1904 तक प्रोफेसर कि नौकरी की थी, उस दौरान इकबाल पर इनका बहोत प्रभाव था।
इकबाल ने उनके संदर्भ में लिखा है की, यह इन्ही के सोहबत का नतीजा था के जिसकी वजह से मेरे रुह की तरबियत हुई और इसी वजह से मै इल्म की राह पर चल सका। प्रोफेसर अर्नॉल्ड यहां से चले गए तो कुछ दिन तक इकबाल उनकी जगह पर 1902 से 1905 तक दर्शनशास्त्र पढाते रहे। बहरहाल इकबाल अपने उस्ताद के पिछे केम्ब्रिज पहुंचे और वहां उन्होने दर्शनशास्त्र कि शिक्षा हासिल की।’’
डॉ. इकबाल ने दर्शनशास्त्र में जो कुछ सिखा और दर्शनशास्त्र से जुडी जिन धारणाओं को लिखने कि कोशिश की इसमें केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की अहम भूमिका रही। जिसको इकबाल नें इस फारसी कविता में बयान किया है-
खिर्द ए अफरोज मिरा दर्स ए हकिमाने फरहंग
सिना ए अफरोख मिरा सोहबत ए साहिब ए नजरां
डॉ. सईद अख्तर का कहना है की, यह शेर इकबाल ने केम्ब्रिज में लिखा था। डॉ. अख्तर इकबाल और केम्ब्रिज इस विषय पर अधिक जानकारी देते हुए लिखते हैं, ‘‘इकबाल ने बी.ए. ‘दर्शन और नीतिशास्त्र के विषय पर एक शोधनिबंध लिखा था, जिसे केम्ब्रिज युनिव्हर्सिटीने बी.ए. की सनद के लिए मंजूर किया और यह डिग्री इन्हे 13 जून 1907 को दि गयी।’’
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‘सर’ का खिताब
इकबाल नें केम्ब्रिज में इस्लाम का इतिहास, फारसी साहित्य, सुफी दर्शन और तसव्वूफ का भी अध्ययन किया। केम्ब्रिज में इस के संदर्भ सेकडों किताबें मौजूद थी। यही वजह थी कि, केम्ब्रिज से लौटते ही इकबाल एक दार्शनिक के रुप में उभर कर सामने आए। इकबाल जिस तरह भारत में दार्शनिक कवी के तौर पर जाने जाते रहे उसी तरह पश्चिम में भी उनकी लोकप्रियता थी।
इकबाल जब केम्ब्रिज में पढ रहे थे उसी वक्त युरोप में उनका दार्शनिक काव्य ‘असरारे खुदी’ मशहूर हो चुका था। डॉ. सईद अख्तर दुर्रानी लिखते हैं, ‘‘अल्लामा इकबाल के मुतालिक इनका बेहद अहम काम इनकी मसनवी ‘असरारे खुदी का अंग्रेजी में अनुवाद है। जो डॉ. निकल्सन ने 1920 में लंडन से प्रकाशित (शाया) किया, यह इकबाल के पहले युरोपी अनुवादक थें। इसी अनुवाद के बदौलत अल्लामा इकबाल का नाम शुरु-शुरु में पश्चिमी देशों में मशहूर हुआ। निकल्सन केम्ब्रिज में इकबाल के शिक्षक थे।’’
डॉ. इकबाल का बेहद अहम योगदान उनके वह लेक्चर हैं, जो आज ‘रिकंस्ट्रशन ऑफ रिलिजीयस थॉट ऑफ इस्लाम’ के नामसे मशहूर हैं। इस किताब कि मुल हस्तलिखित प्रत आज भी केम्ब्रिज में मौजूद है, जो इकबाल नें उनके दोस्त सर मॉन्टेग्यु बटलर को दि थी।
डॉ. सईद अख्तर दुर्रानी नें इस किताब में बटलर का एक खत दिया हुआ है, जिसमें बटलर लिखते हैं, ‘‘इकबाल से मेरे बडे दोस्ताना रिश्ते खासतौर पर मेरे लाहौर में निवास के दौरान यह रिश्ते काफी गहरे बने।
मैने हि हुकुमत हिंद को शिफारीस की थी के इकबाल को कोई खिताब दिया जाए। मै चाहता था, की इनके लिए कोई फारसी खिताब दिया जाए। लेकीन हुकुमत ए हिंद को आशंका थी की, कहीं यह खिताब परंपरा को रुप न धारण करे। उसी वजह से इकबाल को ‘सर’ का खिताब दिया गया।’’
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इकबाल की यादगार तख्ती
केम्ब्रिज और इकबाल अलावा डॉ. सईद अख्तर दुर्रानी कि इस किताब में कई अहम विषयों पर भी बहस की गयी है। जिसमें, ‘इंग्लिस्तान में इकबाल की चंद दस्ती तहरीरें’, ‘बर्मिंगहॅम से एक खत’, ‘मुहंमद इकबाल और जर्मनी’, ‘फलसफा ए अजम के असल मसुदे कि दरयाफ्त’, ‘हिस्पानिया में अल्लामा इकबाल के नक्शे कदमपर’ शामील हैं।
डॉ. सईद अख्तर दुर्रानीने अन्य भाषा में प्रकाशित लेखों का अनुवाद भी दिया है, किताब के दुसरे हिस्से में दिया है। जिसमें ‘मुहंमद इकबाल कि तारिख ए विलादत’, ‘इकबाल चंद यादें’, ‘केम्ब्रिज में इकबाल की यादगार तख्ती’, ‘ब्रिटिश म्युजिअम और अल्लामा इकबाल’ लेख शामील हैं।
दार्शनिक इकबाल को समझने के लिए डॉ. दुर्रानी कि यह किताब बडी मददगार हैं। विशेष रूप से इकबाल पर जर्मन फिलॉसॉफर के प्रभाव का सफर यह किताब अलग अंदाज में बयान करती है। जिस तरह डॉ. जावेद इकबाल इस किताब को इकबाल के अभ्यासकों के लिए एक महत्वपूर्ण शोधकार्य बताते हैं, वह इस किताब की हकीकी शक्ल है।
जाते जाते :
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लेखक युवा इतिहासकार तथा अभ्यासक हैं। मराठी, हिंदी तथा उर्दू में वे लिखते हैं। मध्यकाल के इतिहास में उनकी काफी रुची हैं। दक्षिण के इतिहास के अधिकारिक अभ्यासक माने जाते हैं। वे गाजियोद्दीन रिसर्स सेंटर से जुडे हैं। उनकी मध्ययुगीन मुस्लिम विद्वान, सल्तनत ए खुदादाद, असा होता टिपू सुलतान, आसिफजाही इत्यादी कुल 8 किताबे प्रकाशित हैं।