‘कॉम्रेड’ नामी अखबार से अपनी सियासी जिंदगी कि शुरुआत करनेवाले मुहंमद अली जौहर खिलाफत आंदोलन के प्रणेता के रुप में जाने जाते हैं। अलीगढ विश्वविद्यालय का विस्तार और जामिया मिल्लिया इस्लामिया कि स्थापना उनके जिन्दगी के चंद अहम कारनामें हैं। ‘हमदर्द’ नामी उर्दू अखबार के माध्यम से उन्होंने मुसलमानों मे सियासी बेदारी पैदा करने कि कोशिश की।
उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब मुसलमानों कि सियासत दम तोड चुकी थी और पॉलिटीकल इस्लाम के रहनुमा माने जानेवाले कई उलमाओं को सुली चढा दिया गया था।
उस समय कुछ मुस्लिम लिडरों नें मुसलमानों कि सियासी सोच में रुह फुंकने का काम किया। जिसमें सर सय्यद, मौलवी जकाउल्लाह, शिबली नोमानी, मौलाना आजाद और मौ. मुहंमद अली जौहर का नाम काबील ए जिक्र हैं।
सर सय्यद से लेकर मौलाना आजाद तक सबकी जिंदगी पर बहोत कुछ लिखा जा चुका है, मगर मौ. मुहंमद अली जौहर का इतिहास आज भी मोहक्कीक (संशोधक) के कलम कि मोहताज हैं।
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आयसीएस होना चाहते थे
मौलाना मुहंमद अली जौहर नें अंग्रजों कि औपनिवेशीक (नाओ आबादी) राजकीय धारणाओं का न सिर्फ विरोध किया बल्की उन्होंने शोषित मुस्लिम समाज के राजकीय अस्तित्व की भी जंग लडी। जब तक इस मुल्क से अंग्रेज बाहर नहीं जाएंगे तब तक यहां के किसी भी महरुमीन को न्याय नहीं मिल सकता, यह उनकी समाजी सोच थीं।
मौ. मुहंमद अली जौहर का जन्म सन 1878 को उत्तर प्रदेश में हुआ। इनके जन्म स्थान को लेकर काफी विवाद है, कुछ लोगों का मानना है की, वह मुरादाबाद में पैदा हुए थें और कुछ लोगों का दावा है की, वह बिजनौर में जन्मे।
बचपन में ही उनके सर से पिता का साया चला गया। इनकी माँ जिन्हे लोग ‘बी अम्मा’ के नामसे जानते हैं। उन्होंने मुहंमद अली जौहर के तालीम और तरबीयत में कोई कसर नहीं छोडी।
मुहंमद अली जौहर को घर पर रहकर ही उर्दू और फारसी भाषा का ज्ञान दिया गया। उसके बाद उन्हें बरेलवी के हायस्कुल में दाखिल किया गया। वहां से उच्च शिक्षा के लिए उन्हे अपने बडे भाई शौकतअली कि निगरानी में अलीगढ भेजा गया।
अलीगढ में जब वे एम.ए. कि शिक्षा ले रहे थें, तभी उनके तहिरिकी खयालात का उनके दोस्तों को अंदाज होने लगा था। बडे भाई शौकतअली चाहते थें, कि मुहंमदअली ‘आयसीएस’ (ICS) होकर खानदान का नाम रौशन करें। लेकिन इनके भाग्य में कुछ और ही लिखा था।
मुहंमद अली जौहर शुरुआती दौर में कम्युनिस्ट विचारधारा से जुडे थें। इसी विचारधारा के चलते उन्होंने बंगाल के बंटवारे का विरोध किया था। सय्यद सबाहुद्दीन अब्दुल रहमान जो मुहंमद अली जोहर के चरित्रकार हैं। उन्होंने अपनी किताब ‘मौलाना मुहंमद अली कि याद में’ लिखा है –
‘‘कॉम्रेड कि पत्रकारिता से मौ. मुहंमद अली की सियासी जिंदगी शुरु होती है। इनको अपने जमाने में बंगाल कि तक्सीम से बडा दुख हुआ। कॉम्रेड कि इस पत्रकारिता में इनकी इसके तआल्लुक से जो बेचैनी थी, उसका इजहार होता है।’’
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मौ. मुहंमद अली जौहर ने कुछ दिन ‘दि मैनचेस्टर गार्डियन’ और ‘टाइम्स’ जैसे युरोप के बडे अखबारों में भी लेख लिखे थें। 1913 में उन्होने ‘हमदर्द’ नाम से एक उर्दू अखबार शुरु किया।
राजनीति के साथ मौलाना नें मुसलमानों मे शिक्षा के प्रसार का काम भी किया। मुहंमद अली जौहर ने अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का विस्तार करने के लिए काफी कोशिशें की। 1920 में उन्होंने ‘जामिया मिल्लिया इस्लामिया’ विश्वविद्यालय कि स्थापना की।
जामिया के स्थापना के संदर्भ में मौ. मुहंमद अली ने अपनी भूमिका ‘हमदर्द’ में प्रकाशित की थीं। इसके संपादकीय में उन्होंने लिखा, ‘‘जामिया नें तालीम के बारे में सही नजरिया कायम किया हैं।
स्टुडंट के आंतरिक बल को बढाने का काम अपने हाथ में लिया है। इसका पहला मकसद यह है की, भारत के मुसलमानों को हकदोस्त (सत्यप्रिय) और खुदापरस्त बनाया जाए।
दुसरा मकसद यह है की, इनमें देशप्रेम की भावना को जागृत कर इन्हे सच्चा हिन्दूस्तानी बनाया जाए। मुसलमानों के मजहब की मुख्तसर तारीख यही है और रसुलउल्लाह इस तालीम के लिए ही नबी बनाए गए थें। जिन्होंने
‘अज कलीद बीं दर दुनिया कुशाद’
इसलिए इस्लाम इन्सानों के इस बंटवारे को कभी मान्यता नहीं दे सकता के, इनका सिर्फ एक हिस्सा दिनदार (धर्मावलंबी) हो, और बाकी दुनियादार हो। एक हिस्सा तो सिवाए मस्जिद के पेशइमाम और मदरसे के मौलवी होने के बजाए कोई दुसरा काम न कर सकें।
दुसरा दुनिया के धंदो में इस कदर मश्गुल हो जाए के दिन से बे बहरा न रहे, और यह समझने लगे की धर्म का इस दुनिया से कोई संबंध नहीं, बल्की वह एक दुसरी दुनिया से तआल्लुक रखता है। और सिर्फ इसी दुनिया के विशेषज्ञों के लिए सिमित है। अगर गंभीरता से देखा जाए तो मुसलमानों की तबाही इसी बंटवारे के जरिए होती है।’’
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जामिया की भूमिका
सन 1928 में मौ. मुहंमद अली जौहर ने दुबारा जामिया को लेकर अपना नजरिया सामने रखा। ‘हमदर्द’ में छपे इस दुसरे लेख में मौलाना ने कहा, ‘‘दिन और दुनिया को इसी तरह मिला देना जिस तरह रसुल ए अकरम ने इन्हे मिलाया था।
दिनदारी (धर्मावलंब) को ही सही दुनियादारी समझना, दुनिया को सही तरीके से परखनेही को दिन समझना, और इसी अतिउच्च ध्येय कि प्राप्ती के लिए हर तलबा (छात्र) को लाजमी तौर पर अरबी सिखाना और कुरआन ही को अरबी जुबान को सिखने का माध्यम बनाना।
और मातृभाषा को ज्ञानधारणा का माध्यम बनाकर एक गैरजुबान को जिससे स्टुडंट वाकीफ नही हैं, उसके जरिए शुरु हो चुकी ज्ञानसाधना में सहुलत दी जा सके। और उर्दू जुबान में लेखन, संशोधन और अध्ययन के जरिए बढावा देना।’’
सन 1912 में बाल्कन का युद्ध शुरु हुआ और तुर्कों की शिकस्त की खबरें आने लगी तो मौ. मुहंमद अली जौहर बहोत दुखी हुए। उन्होंने खुदकुशी करने का भी फैसला किया था। मगर वक्त ने उनका हाथ थामा और वह आगे बढते गए। तुर्की से उनको बेइन्तहा मुहब्बत थी।
यहीं से खिलाफत के खात्मे कि शुरुआत हुई तो, मौ. मुहंमद अली जौहर ने खिलाफत कि हिमायत करते हुए ‘खिलाफत आंदोलन’ की शुरुआत की। इन्होंने सन 1920 में खिलाफत आंदोलन का घोषणापत्र प्रकाशित कर अपनी भूमिका भारतीय समाज के सामने रखी। जिसकी वजह से महात्मा गांधी जैसे बडे नेता भी इस आंदोलन से जुड गए।
1930 में सायमन कमिशन कि योजनाओं के चलते तिसरी गोलमेज कॉन्फरन्स का आयोजन किया गया। इस कॉन्फरन्स में शामिल होने के लिए मौ. मुहंमद अली जौहर लंदन चले गए। वहां उन्होंने अंग्रेजो के सामने ‘सम्पूर्ण स्वराज’ कि भूमिका रखी। उन्होंने कहा, “जबतक तुम अंग्रेज मेरे मुल्क को आजाद नहीं करोगे, तो मैं वापस अपने मुल्क को नहीं जाउंगा।”
इत्तेफाक कि बात यह है की, मौलाना मुहंमद अली जौहर कि तबियत लंदन में काफी बिगडती गई। और 4 जनवरी 1931 में उनका इन्तकाल हो गया। उन्हें जेरुसलेम कि पवित्र ‘मस्जिद ए अक्सा’ के परिसर में उन्हे दफनाया गया।
उस समय मि. बिन जो भारत के एक मंत्री थें, उन्होंने मौलाना का गौरव करते हुए कहा “मुहंमद अली एक महान देशभक्त थें। और मानवतावादी विचारधारा के प्रचारक थे।”
मुहंमद इकबाल ने भी उनकी याद में लिखा “खाक ए खदस औ राबा आगोश ए तमन्ना दरगिरफ्त सु ए गर्दुं रफ्त रा हैं, के पैगंबर गुजीश्त।” मुहंमद अली जोहर मुसलमानों में सियासी बेदारी के लिए झगड रहे थे। उसी लिए इकबाल ने यह शेर लिखकर उनका गौरव किया।
जाते जाते :
* जाकिर हुसैन वह मुफलिस इन्सान जो राष्ट्रपति बनकर भी गुमनाम रहा
* राष्ट्रवाद कि परिक्षा में स्थापित हुआ था जामिया मिल्लिया
सोलापूर निवासी वाएज दकनी इतिहास के संशोधक माने जाते हैं। उर्दू और फारसी ऐतिहासिक ग्रंथो के अभ्यासक हैं। दकन के मध्यकाल के इतिहास के अध्ययन में वे रूची रखते हैं। उन्होंने हैदराबाद के निजाम संस्थान और महाराष्ट्र के मराठा राजवंश पर शोधकार्य किया हैं। कई विश्वविद्यालयों में उनके शोधनिबंध पढे गए हैं। वे गाजीउद्दीन रिसर्च सेंटर के सदस्य हैं।