दंगो के डर से ब्रिटिशो नें घुटने टेके और गांधीजी हुई रिहाई

सौ साल पहले सन 1919 के मार्च महिने में गांधीजी द्वारा रौलेक्ट एक्ट का विरोध एक देशव्यापी सविनय सवज्ञा के कार्यक्रम के रूप शुरू हुआ। काला कानून बताकर महात्मा गांधी ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया।

इस कानून से ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुआ था कि, किसी भी भारतीय नागरिक को बिना किसी अदालती मुकदमे के सालों तक जेलों में बंद किया जा सकता थां। सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता वाली सेडिशन समिति ने इसे बनाया था।

महात्मा गांधी ने इस कानून के खिलाफ देशव्यापी हडताल शुरू की। जिसकी शुरुआत फरवरी के 24 तारीख से हुई। 1 मार्च के बाद इस आंदोलन को गती मिली। गांधीजी ने इस कानून के बारे में अपनी आत्मकथा मे लिखा हैं। हम उसे कुछ भागों में आपके लिए दे रहे हैं। पेश हैं आज उसका तिसरा भाग…

लवल स्टेशन आने के पहले ही पुलिस अधिकारी ने मेरे हाथ पर आदेश-पत्र रखा। आदेश इस प्रकार का था: आपके पंजाब में प्रवेश करने से अशान्ति बढ़ने का डर है, अतएव आप पंजाब की सीमा में प्रवेश न करें। आदेश-पत्र देकर पुलिस ने मुझे उतर जाने को कहा। मैंने उतरने से इनकार किया और कहा: मैं अशान्ति बढ़ाने नहीं, बल्कि निमंत्रण पाकर अशान्ति घटाने के लिए जाना चाहता हूँ। इसलिए खेद है कि मुझसे इस आदेश का पालन नहीं हो सकेगा।

पलवल आया। महादेव मेरे साथ थें। उनसे मैंने दिल्ली जाकर श्रद्धानंदजी को खबर देने और लोगों को शान्त रखने के लिए कहा। मैंने महादेव से यह भी कहा कि वे लोगों को बता दें कि सरकारी आदेश का अनादर करने के कारण जो सजा होगी उसे भोगने का मैंने निश्चय कर लिया है। साथ ही लोगों को यह समझाने के लिए कहा कि मुझे सजा होने पर भी उनके शान्त रहने में ही हमारी जीत है।

मुझे पलवल स्टेशन पर उतार लिया गया और पुलिस के हवाले किया गया। फिर दिल्ली से आनेवाली किसी ट्रेन के तीसरे दर्जे के डिब्बे में मुझे बैठाया गया और साथ में पुलिस का दल भी बैठा। मथुरा पहुंचने पर मुझे पुलिस को बारक में ले गये। मेरा क्या होगा और मुझे कहाँ ले जाना है, सो कोई पुलिस अधिकारी मुझे बता न सका।

सुबह 4 बजे मुझे जगा दिया गया और बम्बई की ओर आनेवाली मालगाड़ी में बैठा दिया गया। दोपहर को मुझे सवाई माधोपुर स्टेशन पर उतारा गया। वहाँ बम्बई की हाल में लाहौर से इन्स्पेक्टर बोरिंग आया। उन्होंने मेरा चार्ज लिया।

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अब मुझे पहले बैठाया गया। साथ में साहब भी बैठ थें। अभी तक मैं एक साधारण कैदी था, अब जण्टलमेन कैदीमाना जाने लगा। साहब ने सर माइकल ओडवायर का बखान शुरू किया। उन्हें मेरे विरुद्ध तो कोई शिकायत से ही नहीं, किन्तु मेरे पंजाब जाने से उन्ह अशान्तिक पूरा भय है, आदि बात कहकर मुझे स्वेच्छा से लौट जाने और फिर पंजाब की सीमा पार न करने का अनुरोध किया।

मैंने उनसे कह दिया कि मुझसे इस आज्ञा का पालन नहीं हो सकेगा और मैं स्वेच्छा से वापस जाने को तैयार नहीं। अतएव साहब ने लाचार होकर कानूनी कारवाई करने की। बात कही। मैन पुछा, “लेकिन यह तो कहिए कि आप मेरा क्या करना। चाहते हैं?” वे बोले, “मुझे पता नहीं है। मैं दूसरे आदेश की राह देख रहा हूँ। अभी तो मैं आपको बम्बई ले जा रहा है।

सूरत पहुँचने पर किसी दूसरे अधिकारी ने मुझे अपने कब्जे में लिया। उसने मुझे रास्ते में कहा: आप रिहा कर दिये गए हैं। लेकिन आपके लिए मैं ट्रेन को मरीन लाइन्स स्टेशन के पास रूकवाऊँगा। आप वहाँ उतर जाएँगे, तो ज्यादा अच्छा होगा। कोलाबा स्टेशन पर बड़ी भीड़ होने की संभावना है। मैंने उससे कहा कि आपका कहा करने में मुझे प्रसन्नता होगी।

वह खुश हुआ और उसने मुझे धन्यवाद दिया। मैं मरीन लाइन्स पर उतरा।। वहाँ किसी परिचित की घोडागाड़ी दिखायी दी। वे मुझे रेवाशंकर झवेरी के घर छोड़ गये। उन्होंने मुझे खबर दी: आपके पकड़े जाने की खबर पाकर लोग क्रुद्ध हो गए हैं और पागल-से बन गये हैं। पायधनी के पास दंगे का खतरा है। मजिस्ट्रेट और पुलिस वहाँ पहुँच गई है।

मैं घर पहुँचा ही था कि इतने में उमर सोबानी और अनसूयाबहन मोटर में आए और उन्होंने मुझे पायधूनी चलने को कहा। उन्होंने बताया, “लोग अधीर हो गये हैं और बड़े उत्तेजित हैं। हममें से किसीके किये शान्त नही हो सकते। आपको देखेंगे तभी शान्त होंगे।

मैं मोटर में बैठ गया। पायधूनी पहुँचते ही रास्ते में भारी भीड दिखाई दी। लोग मुझे देखकर हर्षोन्मत्त हो उठे। अब जुलूस बना। वन्दे मातरम् और अल्लाहो अकबरके नारों से आकाश गूंज उठा।

पायधूनी पर घुड़सवार दिखाई दिए। ऊपर से इंटों की वर्षा हो रही थी। मैं हाथ जोड़कर लोगों से प्रार्थना कर रहा था कि वे शान्त रहें। पर जान पड़ा कि हम भी इंटों की इस बौछार से बच नहीं पायेंगे।

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अब्दुर्रहमान गली में से क्राफड़ मार्केट की ओर जाते हुए जुलूस को रोकने के लिए घुड़सवारों की एक टुकड़ी सामने से आ पहुँची। वे जुलूस को किले की ओर जाने से रोकने की कोशिश कर रहे थे। लोग वहाँ समा नहीं रहे थे। लोगों ने पुलिस की पाँत को चीरकर आगे बढ़ने के लिए जोर लगाया। वहाँ हालत ऐसी नहीं थी कि मेरी आवाज सुनाई पड़ सके।

यह देखकर घुड़सवारों की टुकड़ी के अफसर ने भीड़ को तितर-बितर करने का हुक्म दिया और अपने भालों को घुमाते हुए इस टुकड़ी ने एकदम घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए। मुझे डर लगा कि उनके भाले हमारा काम तमाम कर दें तो आश्चर्य नहीं। पर मेरा वह डर निराधार था।

बगल से होकर सारे भाले रेलगाड़ी की गति से सनसनाते हए दूर निकल जाते थे। लोगों की भीड़ में दरार पड़ी। भगदड़ मच गई। कोई कुचले गये। कोई घायल हुए। घुड़सवारों को निकलने के लिए रास्ता नहीं था। लोगों के लिए आस पास बिखरने का रास्ता नहीं था। वे पीछे लौटे तो उधर भी हजारों लोग ठसाठस भरे हुए थे। सारा दृश्य भयंकर प्रतीत हुआ।

घुड़सवार और जनता दोनों पागल-जैसे मालूम हुए। घुडसवार कुछ देखते ही नहीं थे अथवा देख नहीं सकते थे। वे तो टेढे होकर घोड़ों को दौड़ाने में लगे थे। मैंने देखा कि जितना समय इन हजारों के दल को चीरने में लगा, उतने समय तक वे कुछ देख ही नहीं सकते थें।

इस तरह लोगों को तितर-बितर किया गया और आगे बढ़ने से रोका गया। हमारी मोटर को आगे जाने दिया गया। मैंने कमिश्नर के कार्यालय के सामने मोटर रूकवाई और मैं उससे पुलिस के व्यवहार की शिकायत करने के लिए उतरा।

जाते जाते :

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