आज से ठिक 100 साल पहले सन 1919 के मार्च महिने में महात्मा गांधी द्वारा रौलेक्ट एक्ट का विरोध किया था। इस कानून से ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुआ था कि, किसी भी भारतीय नागरिक को बिना किसी अदालती मुकदमे के सालों तक जेलों में बंद किया जा सकता था।
सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता वाली ‘सेडिशन समिति’ ने इसे बनाया था। इसीलिए इसका नाम रोलेट पडा। महात्मा गांधी ने इस कानून के खिलाफ देशव्यापी हडताल शुरू की। जिसकी शुरुआत 24 फरवरी से हुई। 1 मार्च के बाद इस आंदोलन को गती मिली। गांधीजी ने इस कानून के बारे में अपनी आत्मकथा मे लिखा हैं। हम उसे दो भागों में आपके लिए दे रहे हैं। पेश हैं दूसरा भाग..
दक्षिण भारत में थोड़ी यात्रा करके संभवतः 4 अप्रैल को मैं बम्बई पहुँचा। शंकरलाल बैंकर का तार था कि छठी तारीख मनाने के लिए मुझे बम्बई में मौजूद रहना चाहिए। पर इससे पहले दिल्ली में तो हड़ताल 30 मार्च के दिन ही मनाई जा चुकी थी। दिल्ली में स्व. श्रद्धानंदजी और मरहूम हकीम अजमलखान साहब की दुहाई फिरती थी।
7 अप्रैल तक हड़ताल की अवधि बढ़ाने की सूचना दिल्ली देर से पहुंची थी। दिल्ली में उस दिन जैसी हड़ताल हई वैसी पहले कभी न हुई थी। ऐसा जान पड़ा मानो हिन्दू और मुसलमान दोनों एकदिल हो गए हैं। श्रद्धानंदजी को जामा मस्जिद में निमंत्रित किया गया और वहाँ उन्हें भाषण करने दिया गया।
अधिकारी यह सब सहन नहीं कर पाये। रेलवे स्टेशन की तरफ जाते हुए जुलूस को पुलिस ने रोका और गोलियां चलाई। कितने ही लोग घायल हुए। कुछ जान से मारे गये। दिल्ली में दमन दौरदौरा शुरू हुआ। श्रद्धानन्दजी ने मुझे दिल्ली बुलाया। मैंने तार दिया कि बम्बई में छठी तारीख मनाकर तुरन्त दिल्ली पहुँचूँगा।
जो हाल दिल्ली का था, वही लाहौर-अमृतसर का भी रहा। अमृतसर से डॉ. सत्यपाल और किचलू के तार आये थे कि मुझे वहाँ तुरन्त पहुँचना चाहिए। इन दो भाइयों को मैं उस समय बिलकुल जानता नहीं था। पर वहाँ भी इस निश्चय की सूचना भेजी थी कि दिल्ली होकर अमृतसर पहुँचूँगा।
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सात अप्रैल के दिन बम्बई में सवेरे-सवेरे हजारों लोग चौपाटी पर स्नान करने गये और वहाँ से माधवबाग जाने के लिए जुलूस रवाना हुआ। उसमें स्त्रियाँ और बच्चे भी थें। जुलूस में मुसलमान भी अच्छी संख्या में शामील हुए थे। इस जुलूस में से मुसलमान भाई हमें एक मस्जिद में ले गए। वहाँ श्रीमती सरोजिनीदेवी से और मुझसे भाषण कराये।
वहाँ श्री विठ्ठलदास जेराजाणी ने स्वदेशी और हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतिज्ञा लिवाने का सुझाव रखा। मैंने ऐसी उतावली में प्रतिज्ञा कराने से इनकार किया और जितना हो रहा था उतने से संतोष करने की सलाह दी। की हुई प्रतिज्ञा फिर तोड़ी नहीं जा सकती। स्वदेशी का अर्थ हमें समझना चाहिए।
हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतिज्ञा की जिम्मेदारी का खयाल हमें रहना चाहिए-आदि बातें कहीं और यह सूचना की कि प्रतिज्ञा लेने का जिसका विचार हो, वह चाहे तो अगले दिन सवेरे चौपाटी के मैदान पर पहुँच जाए।
बम्बई की हड़ताल संपूर्ण थी। यहाँ कानून की सविनय अवज्ञा की तैयारी कर रखी थी। जिनकी अवज्ञा की जा सके ऐसी दो-तीन चीजें थी। जो कानून रद्द किये जाने लायक थें। और जिनकी अवज्ञा सब सरलता से कर सकते थे, उनमें से एक का ही उपयोग करने का निश्चय था। नमक-कर का कानून सबको अप्रिय था।
उस कर को रद्द कराने के लिए बहुत कोशिशे में हो रही थीं। अतएव मैंने एक सुझाव यह रखा था कि सब लोग बिना परवाने के अपने घर में नमक बनायें।
दूसरा सुझाव सरकार द्वारा जब्त की हुई पुस्तकें छपाने और बेचने का था। ऐसी दो पुस्तकें मेरी ही थीं: ‘हिन्द स्वराज्य’ और ‘सर्वोदया’ इन पुस्तकों का छपाना और बेचना सबसे सरल सविनय अवज्ञा मालूम हई। इसीलिए ये पुस्तकें छपाई गई और शाम को उपवास छूटने के बाद और चौपाटी की विराट सभा के विसर्जित होने के बाद इन्हें बेचने का प्रबंध किया गया।
शाम को कई स्वयंसेवक ये पुस्तकें बेचने निकल पड़े। एक मोटर में श्रीमती सरोजिनी नायडू निकलीं। जितनी प्रतियाँ छपाई गयी थीं उतनी सब बिक गयीं। इनकी जो किमत वसूल होती, वह लड़ाई के काम में ही खर्च की जानेवाली थी।
एक प्रति का मूल्य चार आना रखा गया था। पर मेरे हाथ पर अथवा सरोजिनीदेवी के हाथ पर शायद ही किसीने चार आने रखे होंगे। अपनी जेब में जो था सो सब देकर किताबें खरीदनेवाले बहुत निकल आए। कोई-कोई दस और पाँच के नोट भी देते थे। मुझे स्मरण है कि एक प्रति के लिए 50 रूपये के नोट भी मिले थे।
लोगों को समझा दिया गया था कि खरीदनेवाले के लिए भी जेल का खतरा है। लेकिन क्षणभर के लिए लोगों ने जेल का भय छोड़ दिया था।
सात तारीख को पता चला कि जिन किताबों के बेचने पर सरकार ने रोक लगाई थी, सरकार की दृष्टि से वे बेची नहीं गयी हैं। जो पुस्तकें बिकी हैं वे तो उनकी दूसरी आवृत्ति मानी जाएँगी। जब्त की हुई पुस्तकों में उनकी गिनती नहीं हो सकती। सरकार की ओर से यह कहा गया था कि नई आवृत्ति छपाने, बेचने और खरीदने में कोई गुनाह नहीं है। यह खबर सुनकर लोग निराश हुए।
उस दिन सवेरे लोगों को चौपाटी पर स्वदेशी-व्रत और हिंदू-मुस्लिम एकता का व्रत लेने के लिए इकट्ठा होना था। विठ्ठलदास जेराजाणी को यह पहला अनुभव हुआ कि हर सफेद चीज दूध नहीं होती। बहुत थोड़े लोग इकट्ठा हुए थे। इनमें से दो-चार बहनों के नाम मेरे ध्यान में आ रहे हैं। पुरुष भी थोड़े ही थे।
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मैंने व्रतों का मसविदा बना रखा था। उपस्थित लोगों को उनका अर्थ अच्छी तरह समझा दिया गया और उन्हें व्रत लेने दिए गए। घोड़ी उपस्थिति से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ; दुःख भी नहीं हुआ। परन्तु मैं उसी समय से धूम-धड़ाके के काम और धीमे तथा शान्त रचनात्मक काम के बीच का भेद तथा लोगों में पहले काम के लिए पक्षपात और दूसरे के लिए अरूचि का अनुभव करता आया हूँ।
पर इस विषय के लिए एक अलग प्रकरण देना पड़ेगा।
सात अप्रैल की रात को मैं दिल्ली-अमृतसर जाने के लिए रवाना हुआ। 8 को मथुरा पहुंचने पर कुछ ऐसी भनक कान तक आई कि शायद मुझे गिरफ्तार करेंगे। मथुरा के बाद एक स्टेशन पर गाड़ी रूकती थी। वहाँ आचार्य गिडवानी मिले। उन्होंने मेरे पकड़े जाने के बारे में पक्की खबर दी। और जरूरत हो तो अपनी सेवा अर्पण करने के लिए कहा। मैंने धन्यवाद दिया और कहा कि जरूरत पड़ने पर आपकी सेवा लेना नहीं भूलूंगा।
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