इन दिनों भारत में संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ बडा आंदोलन चल रहा हैं। बहुत सालों बाद युवा वर्ग रास्ते पर उतरकर धर्म को बांटने वाले इस कानून को रद्द करने कि माँग कर रहा हैं। आंदोलन में हबीब जालिब और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ इन दो क्रांतिकारी शायरों कि कविताए जोर शोर से गाये जा रही हैं।
आमतौर पर कहा जाए तो भाजपा और संघ परिवार साम्यवाद का विरोधी रहा हैं। ऐसे में कम्युनिस्टो को गीतों का इस्तेमाल उन्हे गैरत में डालने के लिए किया जा रहा हैं तो बीजेपी का झल्लाना लाजमी हैं। बहरहाल आईआईटी कानपूर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होने भारत के नई पिढी को फ़ैज़ से रुबरु करवाया हैं। चलिए इसी बहाने फ़ैज़ से जानने का मौका मिला।
फ़ैज़ बीसवीं शताब्दी के उर्दू के सबसे रूमानी और क्रांतिकारी शायरों मे गिने जाते हैं, जिन्होंने तानाशाही सरकारों को खुला चॅलेंज किया था। जिसके ऐवज में उन्हे अपने वतन से दरबदर होना पड़ा। फ़ैज़ नें अपने रुमानी अंदाज से हर पिढी के युवा वर्ग को मुरीद बनाये रखा।
फ़ैज़ का जन्म 13 फरवरी 1911 के सियालकोट पंजाब में हुआ। एक बात बताता चलू कि सियालकोट के ही मुहंमद इकबाल बहुत ज्यादा लोकप्रिय शायर थें। इकबाल के शहर जन्मे फ़ैज़ भी दूसरे लोकप्रिय शायर रहे हैं। जिनको डॉ. इकबाल जैसी लोकप्रियता नसीब हुई। वैसे यह भी बताता चलू कि फ़ैज़ के अब्बू इकबाल के मुरीद थे, उन दोनो में अच्छी दोस्ती भी थी, वे फ़ैज़ के घर आया-जाया करते थे।
जिस से जलती हैं नजर बोस-ए-लब की सुरत
इतना रौशन की सर मौज-एजर हो जैसे
फ़ैज़ के पिता बैरिस्टर थें और उनका परिवार रुढीवादी मुस्लिम कहलाता था। फ़ैज़ कि आरंभिक शिक्षा उर्दू, अरबी तथा फारसी में हुई। इन विषयों मे सियालकोट में ही उन्होने बी. ए. किया। उसके बाद उन्होने मिशनरी स्कूल और लाहौर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और अरबी में एम.ए. किया। इन्ही दिनों वे लाहौर शहर से उन्हे प्यार हुआ और यही रहने का निर्णय लिया।
शुरुआती दौर में फ़ैज़ अमृतसर के एक कॉलेज में लेक्चरर भी रहे। इसके बाद उन्होंने दो साल लाहौर के ‘हेली कॉलेज’ में भी व्याख्याता के रुप में सेवाए दी। साथ ही उन्होंने उर्दू पत्रिका ‘अदब ए लतीफ’ का संपादन भी किया।
फ़ैज़ मार्क्सवादी विचारधारा से बहुत ज्यादा प्रभावित थें। उहोंने लाहौर में पार्टी कि शाखा भी शुरु की थी। 1936 में बने प्रगतिशील लेखक संघ से भी वे जुडे रहें। बाद में वह इंग्लैंड गए और जहां उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से कानून की डिग्री हासिल की। इसके बाद वह सियालकोट वापस आ गए और वकालत शुरु की।
1941 में उन्होंने एक ब्रिटिश कम्युनिस्ट महिला एलिना से शादी की। दुसरे विश्वयुद्ध में उनमें वतन के लिए कुछ करने का जज्बा पैदा हुआ तो उन्होंने लेक्चरर कि नौकरी छोड कर सेना ज्वाउन कर ली। 1942 में ब्रिटिश भारतीय सेना के सूचना विभाग में भर्ती हुए और 1942 से 1947 तक कर्नल बनकर सेवाएं दी। विभाजन के समय उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दिया और अपने घर लाहौर लौट गये। वहां जाकर उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का काम संभाला। साथ ही उन्होंने ‘इमरोज़’ और ‘पाकिस्तान टाइम्स’ का संपादन किया।
उधर एक हर्फ कि कुश्तनी यहाँ लाख उज्र था गुफ्तनी
जो कहा तो सून के उडा दिया, जो लिख तो पढ के मिटा दिया
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एक रुमानी शायर
ज़ाहिद खान अपनी किताब ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ में लिखते है, “फैज की सारी जिंदगी को यदि उठाकर देखें, तो उनकी जिंदगी कई उतार-चढ़ाव और संघर्षों की मिली-जुली दास्तान है। बावजूद इसके उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा।”
फ़ैज़ ने आधुनिक उर्दू कविता को उंचे मकाम पर पहुँचाया था। मिर्झा गालिब और असगर गोंडवी के तरह फ़ैज़ ने भी कम ही लिखा हैं। पर जो भी उसे लिखा लोगों ने बहुत सराहा। उन्होंने केवल तीन कवितासंग्रह लिखे, जिसमें ‘नक्शे फरियादी’, ‘दस्तेसबा’ और ‘जिन्दा नामाँ’ (जेल अनुभव) शामिल हैं।
इतना तारीक कि शमशान की शब हो जैसे
लब पे लाऊं तो मेरे होंट सियह हो जाये
फिराख गोरखपुरी कहते हैं, “फ़ैज़ गालिब कि तरह अपने कलामों को छाँट छाँट कर उसे प्रकाशित करते। इसलिए उनकी जो कविता हैं, वह बोलती हुई हैं। जो पंक्ति हैं, वह पत्थर कि लकिर बन जाती हैं।”
बकौल ज़ाहिद खान “भारत और पाकिस्तान के तरक्कीपसंद शायरों की फेहरिस्त में ही नहीं, बल्कि समूचे एशिया उपमहाद्वीप और अफ्रीका के स्वतंत्रता और समाजवाद के लिए किए गए संघर्षों के संदर्भ में भी फैज सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रासंगिक शायर हैं। उनकी शायरी जहां इंसान को शोषण से मुक्त कराने की प्रेरणा देती है, तो वहीं एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना का सपना भी जगाती है।”
फ़ैज़ जितने क्रांतिकारी और विद्रोही थे वे उतने ही रुमानी भी थें। फ़िराक़ गोरखपुरी इस बारे में लिखते हैं, “फ़ैज़ कि अभिव्यक्ति की विशेषत: उनका भावनात्मक यथार्थवाद हैं। सीधे-साधे शब्दो के प्रयोग के आधार पर वे अद्वितीय प्रभाव पैदा करते हैं।”
फ़ैज़ की नज़्म ‘रक़ीब से’ के बारे में फ़िराक़ लिखते है कि “यह नज़्म ऐसी है कि इससे मेरे दिल का चोर निकलता है। ये चोर यह है कि काश ये नज़्म मैं लिखता। उस नज़्म में रक़ीब का पूरा तसव्वुर ही फ़ैज़ ने बदल दिया।”
फिर कोई आया, दिले जार! नही, कोई नहीं
राह रौ होगा, कहीं और चला जायेगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लडखडाने लगे आवानों में ख्वाबिदा चराग
इतिहासकार डॉ. मिर्झा ए. बी. बेग फ़ैज़ के कविताओ पर कहते हैं, “प्रेम और क्रांति के अलावा मुझे लगता है कि निराशा की जो अभिव्यक्ति जो उनके ग़ज़लों में की हैं वो बिलकुल अलग हैं।”
कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, निदा फाजली, फ़िराक़ गोरखपुरी उनके समकालीन शायरों में गिने जाते हैं। इन शायरों ने विद्रोह के साथ रुमानी रचनाए भी की हैं। जो बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुई हैं। रवीन्द्रनाथ टागोर, निराला, नजरुल इस्लाम, तमिल कवि श्रीश्री से लेकर दिनकर तक सभी नें क्रांतिकारी कविताओ के साथ प्रेम की कविता भी उतने ही अच्छे से लिखी हैं।
आज हर मौजे हवा सेे हैं सवाली खिलकत
ला कोई नगमा, कोई सौत, तेरी उम्र दराज
मिर्झा आगे कहते हैं, “जब वे ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मिरे महबूब न मांग’ लिखते हैं तो लगता है कि इसमें एक विरोधाभास सा है। और जब वे ‘कुए यार से चले सूए दार को चले’ लिखते हैं तो लगता है कि ऐसा वे ही लिख सकते थे।”
यह बताना जरुरी हैं कि, फ़ैज़ को दुनियाभर में पसंद किया जाता हैं। जहां जुल्म होता, वहां वे अपने अलफाजों के जरीये पहुंच जाते थे। वे एक आलमी शायर थे। जिनकी मकबुलीयत आज भी दुनिया के कोने कोने में पायी जाती हैं। एक इंकलाबी शायर के तौर पर उन्होंने शोहरत हासिल कर ली हैं।
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वतन में हुए दरबदर
फ़ैज़ ने 1951 में लियाकत अली खान की सरकार के खिलाफ मौर्चा खोला। जिसे ‘रावलपिंडी षडयंत्र’ के नाम से जाना जाता हैं। लियाकत सरकार ने उन पर तख्तापलट के साजिश का आरोप लगाया और जेल भेज दिया। जेल में रहकर ही उन्होने कई क्रांतिकारी नज्मे लिखी, जो बाद में पाकिस्तान के साथ भारत में भी बेहद लोकप्रिय रही।
नौहिए गम ही सही, शोरे शहादत ही सही
सूरे मशहर ही सहीं, बांगे कयामत ही सही
फ़ैज़़ 1955 में जेल से रिहा हुए बाहर आकर उन्होंने अपना लेखन जारी रखा और इसी बीच उन्हें देश से निकाल बाहर कर दिया गया। उन्होंने कई साल लंदन में निर्वासित जीवन में बिताये। जहाँ वे अपनी नज्मे सुनाने लोग ढुंढा करते। जुल्फिकार अली भुट्टो जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री बने तो फ़ैज़़ को वापस लाया गया। भुट्टो की सरकार में उन्हें कल्चरल एडवाइज़र बनाया।
जुलै 1977 में तत्कालीन आर्मी चीफ ज़िया-उल-हक़ ने पाकिस्तान में तख्ता पलट किया। 1979 में जिया के शासन का विरोध करते हुए फ़ैज़ ने उनकी बहुचर्चित नज्म ‘हम देखेंगे’ लिखी। जिसके बाद उन्हे देश निकाला हुआ। फ़ैज़ ने बेरुत (लेबनान) चार साल तक फिर एक बार निर्वासन मे बिताए।
आज हर सूर से हर अक राग से नाता टुटा
ढुंढती फिरती हैं मुतरिब को फिर उसकी आवाज
1985 में पाकिस्तान के फौजी शासक ज़िया-उल-हक़ ने देश नये से कुछ और पाबंदियां लगा दी। जिनमें औरतों का साड़ी पहनना और शायर फैज़ अहमद फैज़ के कलाम गाना शामिल था।
अदबी जगत से इसका विरोध हुआ। पर सरकार ने इस विरोध को दबाया। जनरल जिया ने साड़ी को ग़ैर-इस्लामिक क़रार दिया था। प्रसिद्ध गायिका इक़बाल बानो ने इस तानाशाही का विरोध करते हुए सफ़ेद साडी पहन कर फ़ैज़ कि ‘हम देखेंगे’ नज़्म गाई। उसी प्रोग्राम की रिकॉर्डिंग चोरी छुपे पाकिस्तान से स्मगलिंग कर पूरी दुनिया तक पहुंचाई गई।
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एक घोषित कम्युनिस्ट
फ़ैज अहमद फ़ैज का नाम दुनिया के महानतम शायरों और कवियों में गिना जाता है। फिडेल, मुजीबूर रहमान, पाब्लो नेरुदा उनके प्रशंसक थे। 1962 में फ़ैज़ को सोव्हियत संघ ने लेनिन शांति पुरस्कार से नवाज़ा। कहते हैं फ़ैज़़ को दिल का दौरा पड़ने से विमान प्रवास प्रतिबंधित था, तब वह कराची से नेपल्स पानी के जहाज़ से गए थे और फिर वहां से तीन दिनों का ट्रेन का सफ़र करते हुए मॉस्को पहुंचे।
उठ्ठो अब माटी से उठ्ठो
जागो मेरे लाल
अब जागो मेरे लाल
घर घर बिखरा भोर का कुन्दन
फ़ैज़ अपने आप को खुले तौर पर कम्युनिस्ट कहते थे। वे खुले वे विचारों से साम्यवादी थे। एक घोषित कम्युनिस्ट की एक सैन्य तानाशाह के विरोध में लिखी कविता को आज भारत में कुछ लोग हिंदू विरोधी बता रहे हैं। जिसे फ़ैज़ कि बेटी सलीमा हाशमी ने ‘मज़ाक़िया’ कहा हैं। सलीमा कहाती हैं, रचनात्मक लोग ‘तानाशाहों के प्राकृतिक दुश्मन’ होते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें ख़ुशी है कि इस नज़्म के ज़रिए उनके पिता क़ब्र के बाहर लोगों से बात कर रहे हैं।
हाशमी कहती हैं, “यह दुखी करने वाला नहीं बल्कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ‘हम देखेंगे’ को हिंदू विरोधी कहना मज़ाक़िया है। एक समूह इस नज़्म के संदेश की जाँच कर रहा है जो दुखी करने वाला नहीं है। इसको दूसरे तरीक़े से भी देखा जाना चाहिए कि शायद उनकी उर्दू शायरी और इसके रूपकों में दिलचस्पी पैदा हो जाए। फ़ैज़ की ताक़त को कम मत समझिए।”
फ़ैज़ ही नहीं पाकिस्तान के एक और दूसरे बड़े शायर हबीब जालिब (1928-1993) भी हिन्दुस्तान में बहुच चर्चा में हैं। हबीब जालिब की एक नज़्म ‘दस्तूर’ इन दिनों भारत में ख़ूब गाई जा रही है। 1962 में पाकिस्तान के तानाशाह जनरल अय्यूब ख़ान ने जब नया संविधान लागू किया था। उसके विरोध में हबीब जालिब ने ये नज़्म लिखी थी। जिसके लिए वे कई बार जेल भेजे गए।
अपने बेख्वाब किवाडों को मुकफ्फल कर लो
अब यहाँ कोई नही, कोई नही आयेगा
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फ़ैज़ और जालिब प्रासंगिक हैं
फ़ैज़ और हबीब जालिब आज दुनिया भर में प्रासंगिक बने हैं। विश्व भर में कई जगह लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाये रखने के पक्ष में खडे हुए है। जहा वह नही हैं वहां हजारों लोग रास्ते पर उतकर तानाशाही शासन प्रणाली का विरोध कर रहे हैं। भारत में भी यही सुरतेहाल हैं। बीते तीन हप्तो से संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ लाखो लोग सडकों पर प्रदर्शन कर रहे हैं।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उर्दू के महान कवि है। जो किसी देश के सीमा से कोई सरोकार नही रखते। आईआईटी कानपूर वाले घटना से यह साबीत हुआ हैं कि पाकिस्तान हो या चाहे हिंदुस्तान दोनों देशो कि सरकारे फ़ैज़ से डरती हैं। कानपूर आईआईटी को शक हैं कि फ़ैज़ की एक मशहूर कविता ‘हम देखेंगे’ हिंदू विरोधी हैं। इस शक कि जाँच करने के लिए एक कमिटी का गठन किया गया हैं।
दरअसल, उनके कुछ छात्रों ने 17 दिसंबर को अपने परिसर में फ़ैज़ की नज्म गाकर विरोध प्रदर्शन किया था। जिसे आईआईटी प्रशासन ने हिंदू विरोधी कदम समझ लिया। यूँ कहो तो फ़ैज़ को हिंदू विरोधी कहना बीजेपीशासित राज्य में गलत नही कहा जा सकता। क्योंकि आजकल भारत में आये दिन कोई भी मामला यहाँ झट से हिंदू विरुद्ध मुस्लिम हो जाता हैं, इसीलिए इसमें संदेह करने कि कोई बात नही हैं। खैर इसी बहाने फ़ैज़ कि यह चर्चित नज्म नई पिढी को परिचित हुई हैं।
जाते जाते इस कविता पर नजर दौडाते हैं।
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि (क़यामत का) जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल (विधि के विधान) में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां (बड़े पहाड़)
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों (शासितों) के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम (सत्ताधीश) के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत (मूर्ति यहां सत्ता का प्रतीक) उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा (साफ़-सुथरे लोग) मरदूद-ए-हरम (प्रवेश से वंचित लोग)
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र (दृश्य) भी है नाज़िर (दर्शक) भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ (मैं सत्य हूं) का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा (आम जनता)
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।
जाते जाते :
* …और बगावत बन गई साहिर के मिजाज का हिस्सा!
* अमर शेख कैसे बने प्रतिरोध की बुलंद आवाज?
हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।