सर सय्यद अहमद खान ने 1875 में ‘मोहम्मेडन अँग्लो ओरिएंटल कॉलेज’ कि स्थापना की थी। जो आगे चलकर 1920 में ‘अलीगढ मुस्लिम युनिव्हर्सिटी’ बनी।
मुसलमानों के लिए स्वतंत्र रूप से कॉलेज स्थापन करने के बाद सय्यद अहमद पर हिंदू और मुसलमानों की ओर से कई आरोप लगाए गए। सर सय्यद ने सन 1884 और 1889 में दो भाषण दिए थें। जिसमें उन्होने इन सारे आरोपो का जवाब दिया था।
भारत के मुसलमानों का सामाजिक इतिहास जिन महानुभावों की कुर्बानियों से भरा पडा है, उनमें एक नाम सर सय्यद का भी हैं। सर सय्यद मुसलमानों में शिक्षा के प्रसार का आंदोलन लेकर उस समय खडे हुए जब मुसलमान हर तरह से तरक्की से महरुम थें।
सन 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमानों को प्रशासन से हटाया जाने लगा था। उनके सेंकडो मदरसे बंद कर दिए गए। मक्तब और मदरसों में शिक्षा देनेवाले शिक्षकों को पकडकर जेलों में ठुसा गया या फिर फांसी दि गयी थी।
अंग्रेजों द्वारा बरपाई गई इस मुसिबत के बाद सारा समाज डर के माहोल में जी रहा था। मुसलमानों कि शिक्षाप्रणाली, उस प्रणाली से बिलकुल अलग थी जिसे ब्रिटिश सरकार लाना चाहती थी, उससे बिलकुल अलग थी।
सारी दुनिया में अंग्रेजी शिक्षा कि नयी सोच सामने आ रही थी। ऐसे समय में मुसलमान अपनी तंगनजरी की वजह से इस बदलाव को समझ नहीं पा रहे थे। उस समय सर सय्यद अहमद खान ने मुसलमानों को बदलते हालात को समझने कि अपील की।
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ब्रिटिशों के समर्थक?
सन 24 मई 1875 में ‘मोहम्मेडन अँग्लो ओरिएंटल कॉलेज’ कि स्थापना की। जिसके बाद उन्हे खुद मुसलमानों ने ब्रिटिशों के समर्थक, धर्म से दूर एक गाफील व्यक्ति या काफीर कहना शुरु कर दिया था। इसके बावजूद सर सय्यद अपने मिशन से हटे नहीं। इसी तरह उन्होंने कभी इसकी लोगों के बातो के तरफ ध्यान भी नहीं दिया।
मगर जब उनपर संगीन आरोप लगने लगा की वह धर्मांध हैं और हिंदू और मुसलमानों में भेद करते हैं। तब उन्होंने इसका जवाब देना जरुरी समझा। 3 फरवरी, 1884 को सर सय्यद एक समारोह में शामील होने के लिए लाहोर गए थे। उस समारोह में उन्होने एक भाषण दिया था और अफने उस भाषण में उन्होंने उन सारे आरोपों को गलत ठहराया।
सर सय्यद ने उस तकरीर में कहा था –
‘‘मेरे दोस्तों, आपने अपने तकरीर में मोहम्मेडन अँग्लो ओरिएंटल कॉलेज अलीगढ का जिक्र किया है। मुझको अफसोस होगा कि अगर कोई शख्स यह खयाल करे की, यह कॉलेज हिंदुओं और मुसलमानों के दरमियान फर्क करने कि गरज से बनाया गया हैं।
खास सबब जो इस कॉलेज कि बुनियाद रखने का यह था कि, जैसा की मैं यकीन करता हूं और आप भी वाकिफ है की, मुसलमान रोज बरोज अपमानित और लाचार होते जा रहे थे। इनकी तंगनजरी ने इन्हे एज्युकेशन का फायदा उठाने से दूर रखा था, जो सरकारी कॉलेजो और मदरसों में मिल रहा था।”
सर सय्यद आगे कहते हैं, ‘‘इसी वजह से यह बात जरुरी खयाल कि गयी की, इनके वास्ते कोई खास इंतजाम किया जाए। इसकी मिसाल इस तरह दि जा सकती है, कल्पना किजीए की, दो भाई ऐसे हैं, जिनमें से एक बिलकुल ताकतवर और तंदुरुस्त है और दूसरा बिमार, और इसकी तंदुरुस्ती अब आखरी हदों का पार कर चुकी है।
बस तब इसके तमाम भाईयों का यह फर्ज होगा के इस बिमार भाई कि सेहत की तदबीर करे और उसे मदद पहुंचाए। यही खयाल था जिसने मुझको, ‘मोहम्मडन अँग्लो ओरिएंटल कॉलेज’ कि बुनियाद रखने पर मजबूर किया।”
सर सय्यद आगे कहते हैं, “मगर मैं इस बात के बयान करने से खुश हुँ के, इस कॉलेज में दोनो भाई एक ही तालीम पाते हैं। कॉलेज के तमाम हुकुक (अधिकार) जो शख्स से जुडे हुए हैं, जो खुद को हिंदू कहता हैं। हिंदुओं और मुसलमानों के दरमियान जरा भी फर्क नहीं किया जाता।
इस कॉलेज में हिंदू और मुसलमान दोनो बराबर, स्कॉलरशिप का फायदा उठाते हैं। दोनों के साथ एक जैसा बर्ताव किया जाता है। मैं हिंदुओं और मुसलमानों को बराबर समझता हूं।’’
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हिन्दुओ ने दिया पैसा
इसके पाँच साल बाद सर सय्यद 26 जनवरी 1889 अमृतसर गए थें। वहां उन्होने दिए हुए भाषण में, कॉलेज कि स्थापना मुसलमानों के साथ हिंदुओं का पैसा भी लगने कि बात कही। उन्होंने सामाजिक तौर पर पिछडों के लिए इस कॉलेज कि बुनियाद रखी जाने की बात कही थी।
इस तकरीर में सर सय्यद कहतें हैं –
‘‘इल्म का मदरसा कौमी तरक्की का एक जरीया है। यहां पर कौम से मेरी मुराद सिर्फ मुसलमान ही से नहीं है, बल्की हिंदू और मुसलमान दोनों से है।
इसमें कोई शक नहीं कि, इल्मी मदरसे मुसलमानों कि बदहाली को दुरुस्त करने के लिए है और जो अफसोसनाक महरुमीन (वंचितों) कि युरोपियन सायन्स और लिट्रेचर की पढाई हासील करने की भूक थी उसे मिटाने के लिए इस ‘मोहम्मडन कॉलेज’ कि बुनियाद रखी गयी है। इसमें हिंदु मुसलमान दोनो पढते हैं। और तरबीयत दोनों को दी जाती है।”
“हम लोग आपस में किसी को हिंदू किसी को मुसलमान कहें, मगर गैरमुल्क में हम सब हिंदुस्थानी कहलाए जाते हैं। और यही सबब है कि हिंदुओं की जिल्लत मुसलमानों कि और मुसलमानों की जिल्लत से हिंदुओं की जिल्लत है।
फिर ऐसी हालत में जब तक यह दोनो भाई एक साथ परवरीश ना पाएं, साथ–साथ यह दोनों दुध न पिएं, एक साथ तालीम न पाएं, इनकी तरक्की के लिए एक हि तरह के तरक्की के सामान मौजूद न किए जाएं, हमारी इज्जत नहीं हो सकती।”
“मदरसे को कायम करनें में मेरा यही इलम था कि मैं इसको अंजाम दे सकुंगा। मैं उन लोगों का शुक्रगुजार हूं जिन्होंने इसमें मदद की, इस मदद में मुसलमानों का उस तरह शुक्रगुजार नहीं हूं जिस कदर हिंदुओं का हूं, जिन्होने बतौर ए खैरात अपने भाईयों कि मदद की।
मदरसे कि इमारत की दिवारों और महेराबों पर बहोत से हिंदुओं के नाम लिखे हुए हैं। जिससे हमेशा से यह यादगार कायम रहेगी के हिंदुओं ने अपने मुसीबत में फसे मुसलमान भाईयों कि किस तरह से मदद कि थी।’’
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सोलापूर निवासी वाएज दकनी इतिहास के संशोधक माने जाते हैं। उर्दू और फारसी ऐतिहासिक ग्रंथो के अभ्यासक हैं। दकन के मध्यकाल के इतिहास के अध्ययन में वे रूची रखते हैं। उन्होंने हैदराबाद के निजाम संस्थान और महाराष्ट्र के मराठा राजवंश पर शोधकार्य किया हैं। कई विश्वविद्यालयों में उनके शोधनिबंध पढे गए हैं। वे गाजीउद्दीन रिसर्च सेंटर के सदस्य हैं।