हैदराबाद कि ‘उस्मानिया युनिव्हर्सिटी’ नें दक्षिण भारत कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक विकास में बडा योगदान दिया हैं। इतिहास, समाजशास्त्र और तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में संशोधन में इस युनिव्हर्सिटी ने नई दिशाएं खोजी हैं।
इस युनिव्हर्सिटी से देश के इतिहास कि यादें जुडी हुई हैं। यह देश के उन सात युनिव्हर्सिटी में आती हैं जो सबसे पुरानी हैं। 100 साल पुरे कर चुके इस विश्वविद्यालय की स्थापना का इतिहास बेहद रोचक है। प्रस्तुत लेख में उसकी स्थापना से जुडी कुछ यादें।
हैदराबाद में युनिव्हर्सिटी शुरु करने के लिए जो तहरीक शुरु हुई थी, उसका जायजा लेना जरुरी है। सर निजामत जंग के पिता रफत यार जंग (प्रथम) नें सालारजंग (प्रथम) के दौर में सामान्य जनता के नाम फारसी भाषा में एक अपिल जारी कि थी।
जिसमें उन्होने राज्य के मंत्री और अधिकारीयों के सामने हैदराबाद में एक ऐसे मदरसे की कल्पना पेश कि जहां उर्दू भाषा में सभी विषयों कि शिक्षा मिल सके।
इस मदरसे में अंग्रेजी बस इतनी सिखाई जाए कि विद्यार्थी बस उस भाषा से परिचित हो सकें। कुछ शोधकर्ताओं ने रफत यार जंग कि इस अपील को ‘युनिव्हर्सिटी’ के स्थापना के आंदोलन का आगाज कहा हैं। मगर हकीकत यह है की, उन्होंने इस अपील में ‘मदरसे’ का शब्द लिखा था। उन्होंंने युनिव्हर्सिटी की योजना पेश नहीं की थी।
ब्रिटिश संसद के सदस्य ब्लिंट कि एक योजना ‘फॉर युनिव्हर्सिटी ॲट हैदराबाद’ ही युनिव्हर्सिटी के स्थापना कि पहली तहरीक थीं। इसी योजना को भारत के व्हाईसरॉय लार्ड रिपन और हैदराबाद के हुक्मरान मीर महिबूब अली खान और अन्य उच्चपदस्थ अधिकारीयों ने भी मंजूरी दी।
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इस योजना पर विचार विमर्श करने के लिए ‘बाग ए आमा’ (पब्लिक गार्डन) में 23 अप्रेल 1885 को निजाम मीर महिबूब अली खान (Nawab Mahebub Ali Khan) की अध्यक्षता में एक चर्चासत्र का आयोजन किया गया। जिसमें निजाम युनिव्हर्सिटी कि स्थापना का निर्णय लिया गया। मगर इस निर्णय पर कई सालों तक कोई कारवाई नही कि गई।
हैदराबाद संस्थान के शिक्षा मंत्री फखरुल मुल्क बहादूर और शिक्षा विभाग के सचिव अजीज मिर्झा को हैदराबाद में युनिव्हर्सिटी की स्थापना से बडी दिलचस्पी थीं। फखरुल मुल्क ने कई बार अपने विभाग के अधिकारीयों को युनिव्हर्सिटी कि योजना के संदर्भ अपना प्रस्ताव पेश करने कि अपील की। मगर विभाग के सभी अधिकारीयों ने हर बार शिक्षा मंत्री को यह सूचना दी के विश्वविद्यालय कि स्थापना के लिए यह सही वक्त नहीं है।
सर अकबर हैदरी (Sir Akbar Hydari) को सन 1911 में शिक्षा विभाग का सचिव नियुक्त किया गया। जिसके बाद उन्होने युनिव्हर्सिटी की स्थापना कि तरफ ध्यान देना शुरु किया। हैदराबाद में उर्दू माध्यम कि युनिव्हर्सिटी शुरु करने के लिए हैदराबाद एज्युकेशनल कॉन्फरन्स कि तरफ से चलाई गई मुहीम सबसे ज्यादा प्रभावशाली साबित हुई।
कॉन्फरन्स के लोग चाहते थे की, दुनिया के हर ज्ञान, सायन्स, टेक्नॉलॉजी कि शिक्षा उर्दू में दी जाए। इसी मक्सद के तहत युनिव्हर्सिटी के लिए पहला चर्चासत्र 1915 में आयोजित किया गया। जिसकी अध्यक्षता अकबर हैदरी ने कि थी। इस चर्चासत्र में अकबर हैदरी ने हर स्तर पर उर्दू को माध्यम भाषा बनाने कि योजना की घोषणा कर दी।
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सर अकबर हैदरी नें विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए जरुरी निर्णय लेने के बाद एक विस्तारीत स्मरणपत्र तयार किया। जिसे शिक्षा मंत्री फखरुल मुल्क बहादूर नें 22 अप्रेल 1917 को छठे निजाम मीर उस्मान अली खान के सामने पेश किया।
अकबर हैदऱी के स्मरणपत्र में एक ऐसे युनिव्हर्सिटी के स्थापना कि मंजुरी मांगी गई थी, जिसमें उर्दू उच्च शिक्षा कि माध्यम भाषा (official language) रहेगी। इस संस्मरण पत्र के बाद 26 अप्रैल 1917 को निजाम मीर उस्मान अली खान (Mir Osman Ali Khan) नें एक फर्मान (Firman) जारी किया। जिसमें उन्होने हैदऱाबाद में युनिव्हर्सिटी कि स्थापना का हुक्म दिया। और इस विश्वविद्यालय का नाम ‘उस्मानिया युनिव्हर्सिटी, हैदराबाद’ (Osmania University) रखे जाने कि भी घोषणा की गई।
युनिव्हर्सिटी के स्थापना कि मंजूरी मिलने के बाद अकबर हैदरी ने मुल्क और विदेश के कई शिक्षातज्ज्ञों को इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी देते हुए, उनकी सलाह मांगी। बहुतांश विशेषज्ज्ञोंने उर्दू के जरिए शिक्षा देने कि पहल को मुबारबात दी। रविंद्रनाथ टागौर (Rabindranth Tagore) नें अपने अंग्रेजी खत 9 जनवरी 1918 में लिखा –
‘‘मुझे निहायत खुशी हुई के आपके राज्य में एक ऐसी युनिव्हर्सिटी की स्थापना करने की योजना है, जिसमें उर्दू के जरिए शिक्षा दि जाएगी। यह कहना गैरजरुरी है के, आपकी योजना को मेरी सदिच्छाएं हैं। खासकर जब मैं जानता हूं की यह मिसाल आपके रियासत के बाहर उन लोगों के लिए मार्गदर्शक होगी जो अंधेरे में भटक रहे हैं। आपकी योजना में जिसपर मुझे आपत्ती हो सकती है, वह सिर्फ यह है की, आपकी युनिव्हर्सिटी के बारे में यह कहा गया है के यह युनिव्हर्सिटी अनुभवप्रधान शिक्षाप्रणाली पर आधारित होगी। इसे कई समस्याओं का सामना करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए आपके इरादे मजबूत होने चाहिए। हमारी निष्ठा मजबूत होनी चाहिए, क्योंकी हमारी राह बडी मुश्किल है।’’
-रवींद्रनाथ टागौर
रविंद्रनाथ टागौर का यह खत आज भी आर्काइव्ह्ज में मौजूद है। (और विषेश तौर पर कहे तो विश्वविद्यालय के वेबसाईट पर भी यह संदेश आज भी मौजूद हैं।)
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उस्मानिया युनिव्हर्सिटी के फैसले को अमल में लाने के लिए, उर्दू में किताबें जरुरी थी। इसलिए 3 ऑगस्ट 1917 को एक आवेदन निजाम मीर उस्मानअली खान कि सेवा में भेजा गया। जिसमें लिखा था –
‘‘विश्वविद्यालय के अलग-अलग परिक्षाओं के लिए, अभ्यासक्रम कि किताबें उर्दू में होना जरुरी है। जबतक यह किताबें नहीं होगी तबतक युनिव्हर्सिटी में शिक्षा शुरु होना मुमकीन नहीं।
इस आवेदन में किताबों के अनुवाद और संपादन के लिए एक विभाग की स्थापना और फारसी, अरबी जुबान पर प्रभुत्व रखनेवाले, और अंग्रेजी से उर्दू में बडी खुबी से अनुवाद करनेवाले ज्ञानीयों को सेवा में रखने कि योजना प्रस्तुत कि गयी थी।’’
निजाम मीर उस्मान अली खान नें यह आवेदन पेश होने के दुसरे ही दिन एक फर्मान जारी कर ‘सरिश्ता ए तालीफ व तर्जुमा’ (भाषांतर केंद्र) कि स्थापना और इस विभाग कि बनाई गई योजनाओं को मंजुरी दी। उर्दू माध्यम कि शिक्षा के योजना को कामयाबी तक पहुंचाने में इस ‘भाषांतर विभाग ने बहुत अहम भूमिका अदा की।
इस भाषांतर विभाग में देश के कई विशेषज्ञों, विद्वानों ने अपनी सेवा दी हैं। भाषांतर विभाग कि स्थापना के बाद 1918 में शिक्षा वर्ग शुरु किए गए। युनिव्हर्सिटी कि पहली मॅट्रेक्युलेशन परीक्षा 1921 में हुई।
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पूर्व में आंध्र प्रदेश राज्य के अभिलेखागार प्रमुख के रूप में सेवारत थें। अब वह सेवानिवृत्त होकर हैदराबाद के निजाम संस्थान पर इतिहास में शोधकार्य करते है। वे पर्शियन भाषा के जानकार माने जाते हैं। निजाम मीर उस्मानअली खान पर उनका गहन संशोधन हैं। जिसमें उनकी अबतक 15 से अधिक पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। 15 हजार फारसी दस्तावेजों पर उन्होंने पीएच.डी की हैं।