अपनी बेटी जिनतुन्निसा और येसुबाई के साथ औरंगजेब के कैसे थें रिश्ते?

राठा शाही घराने के जो सद्स्य पेडगाव के बहादूरगड (ता। श्रीगोंदा, जि। अहमदनगर) में लाए गए थे, इनमें येसुबाई, शाहू के अलावा शिवाजी महाराज की एक विधवा सखवार बाई और संभाजी महाराज, राजाराम महाराज कि पत्नीयाँ और कम उम्र की लडकियाँ भी शामील थी। मुगल छावनी में औरगंजेब की बेटी जिनतुन्निसा पहले से ही मौजूद थी।

अब यहां से औरंगजेब, जिनतुन्निसा, येसुबाई और शाहू के प्यार की अजीबो गरीब दास्तां शुरु होती हैं। इन चारों के आपसी रिश्तों की बडी दिलचस्प तस्वीर सामने आती है। और इस मुहब्बत की कहानी में औरंगजेब की शख्सियत अपने दुश्मन शिवाजी महाराज के खानदान के लिए मेहरबान बुजुर्ग और सरपरस्त की हैसियत से सामने आती हैं।

औरंगजेब को सामान्य जनता के सामने शिवाजी और संभाजी महाराज के शत्रू की हैसियत से पेश करने में बहुत ज्यादा जोर दिया गया। औरंगजेब ने अपने दुश्मन के परिवार की वृद्ध और जवान औरतें, बेसहारा बच्चे, नवजवान तथा विधवा औरतों के साथ बरसो तक मानवीय व्यवहार किया। इस बात को सालों तक किसी षडयंत्र के तहत छुपाये रखा गया।

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सन 1689 में शिवाजी महाराज और दुसरे मराठा सरदारों के करीबन 200 लोगों को बहादूरगड उर्फ पेडगाव (जि। अहमदनगर) लाया गया, तो औरंगजेब ने पहला काम यह किया की, येसूबाई के 7 साल के लडके शिवाजी का नाम बदल कर शाहू रख दिया। और यह लडका जिंदगीभर शाहू के नामसे ही जाना गया। आज भी उसे शाहू नामसे ही याद किया जाता हैं।

दकन की सारी फौजी मुहीम के दरम्यान औरंगजेब का खेमा गुलालबारकहलाता था। मराठा शाही परिवार की औरतों का खेमा इसी गुलालबार में लगाने आदेश दिया गया था। येसूबाई के सात साल के लडके को राजे (बादशाह) का किताब दिया गया था। उसे  सात हजारी मनसब भी दी गयी थी।

मराठा परिवार के सदस्यों की रोजमर्रा के जरुरत पुरा करने वस्तुओं के लिए एक बडा सा बाजार लगाया जाता था, जिसे रानी बाजारकहा जाता था। इन सदस्यों की जरुरत को पुरा करने के लिए सोलापूर के करीब अक्कलकोट में जागीर दी गयी थी। इस जागीर की देखरेख के लिए एक मुन्तजीम भी रखा गया था। औरंगजेब ने शाहू की शिक्षा के लिए पांच ब्राम्हण पंडित भी मुगल छावनी में नियुक्ती किए थे।

छावनी में पहले से मौजूद जिनतुन्निसा येसूबाई से उम्र में 15 साल बडी थी, इन दोनों में बहोत जल्द मित्रता हो गई। औरंगजेब भी शाहू को औलाद की तरह प्यार करने लगा। 1689 में बहादूरगड के करीब कोरेगांव की छावनी बंद करने के बाद, मुगल शहंशाह बिजापूर और इसके करीब के इलाके में काफी सालों तक निवास करने के बाद, सोलापूर से करीब ब्रम्हपूरी की छावनी में रहा। वहां भी औरंगजेब, जिनतुन्निसा का येसुबाई और शाहू के साथ यही बर्ताव रहा।

सन 1699 में औंरगजेब नें ब्रम्हपुरी की छावनी छोड दी। मगर सुरक्षा को मद्देनजर रखते हुए औरंगजेब ने अपनी बेटी और दुसरी महिलाओं को ब्रम्हपुरी में अपने वजीर असद खाँ की देखरेख में रखा। ब्रम्हपुरी से रवाना होने के बाद किला विशालगड, सातारा किले के करीब सिंहगड, राजगड वगैराह को फतह किया। इस जीत मुहीम के बाद औरंगजेबने खुशी के मौके पर शाहू को हमाशे इनाम स्वरूप में दिए।

6 जनवरी 1700 को मशहूर मराठा सरदार धनाजी अपनी फौज के साथ ब्रम्हपुरी छावनी से सिर्फ साडे छह मील करीब पहुंचता है। असद खान और बाकी सरदारों ने धनाजी के हमले से छावनी को बचा लिया। औरंगजेब को जब ब्रम्हपुरी असुरक्षित होने का अंदाजा हो गया तो, तब सन 1703 में वहां के सारी औरतों को बहादुरगड भेज दिया गया।

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इसी दौरान औरंगजेब 9 मई 1703 को औरंगजेब पुणे में था, उस समय एक अहम घटना इतिहास के पन्नो में दर्ज हुई। शाहु अब 20 साल का हो गया था, मुगल शासको ने अपने एक बुजुर्ग सरदार हमीदुद्दीन खाँ के जरीए शाहू को मुसलमान होने के लिए कहा, मगर शहंशाह की छावनी में रहने के बावजूद शाहू ने इस्लाम धर्म अपनाने से इन्कार कर दिया।

सेतुमाधव पगडी इस घटना के संबंध में कहते हैं, “अगर शाहू मुसलमान होता, तो महाराष्ट्र पर बडी आफत जाती।इसके बावजूद  मुहीम के दौरान शाहू पर इनामात का सिलसिला जारी रहा, उदाहरण के तौर पर 18 सितंबर 1703 को राजा शाहू को हिरे से बनी खुबसुरत अंगुठी दी गयी। 12 अक्तुबर 1703 को शहंशाह की तरफ से 500 रुपये किमत की एक अंगुठी दी गयी।

17 अगस्त 1703 को बादशाहने 300 मोहरे किमती घोडे देने का हुक्म दिया। 16 अगस्त 1703 को शाहू की जागीर की व्यवस्था संभालने के लिए ख्वाजा संदल को मुकर्रर किया गया। 16 अगस्त 1703 का एक महत्त्वपूर्ण आदेश इतिहास के पन्नो में सुरक्षित हैं, जिसमें बादशाह ने आदेश दिया है, ‘‘हुक्म के मुताबिक राजा शाहू का खेमा अदालत के करीब, बादशाह के जायेकयाम और हमीदुद्दीन खाँ के खेमे के दरम्यान लगाया जाए।’’

इन कुछ घटनाओ के जरीए अंदाजा लगाया जा सकता है की, शाहू और उनकी माँ के साथ औरंगजेब का बर्ताव कैसा रहा होगा। 

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