राजनीति से धर्म को अलग रखने वाला सुलतान यूसुफ आदिलशाह

डे भाई के द्वारा कत्ल का आदेश दिए जाने के बाद यूसुफ आदिलशाह को उसकी माँ ने बचाने के लिए व्यापारीयों के माध्यम से देश से भगाया। किस्मत की मार झेलते हुए यूसुफ विदेश से हिन्दुस्थान पहुंचा। अपने कर्तृत्व से वह ‘बहामनी सल्तनत’ में किर्तीमान हुआ।

बहामनी राजवंश की जडें जब कमजोर होती जा रहीं थी, तो कई सरदारों ने बगावत कर अपने आप को स्वतंत्र घोषित किया। इन सरदारों में यूसुफ आदिलशाह भी था। जिसने बिजापूर में ‘आदिलशाही’ राजवंश कि स्थापना कि और दकन राजनीति के बदलाव की बुनियाद रखी।

यूसुफ आदिलशाह (Yusuf Adil Shah) ने महमूद गवान (Mahmood Gawan) की हत्या के बाद, शिया संप्रदाय पर हो रहे जुल्म के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते हुए बिजापूर में ईसवी 1490 में आदिलशाही हुकमत’ (Adil Shahi dynasty) की बुनियाद रखी। जिसके बाद इस राजवंश के नौ बादशाहों ने बिजापूर (Sultanate of Bijapur) पर राज किया।

ईसवीं 1686 में सिकंदर आदिलशाह के दौर ए हुकुमत में औरंगजेब (Aurangzeb) ने आदिलशाही शासनका खात्मा किया। उत्तरी मुस्लिम हुकमतों की तुलना में दकनी मुस्लिम राजसत्ता काफी सहिष्णु थी। खासतौर से आदिलशाही हुक्मरानों की धार्मिक नीतियाँ, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक योगदान, प्रादेशिक भाषा और किसानों के प्रति उनकी नीतियों कि वजह से इन सुलतानों को काफी जनसमर्थन हासील था।

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दूरदर्शी बादशाह

यूसुफ आदिलशाह ने इस राजसत्ता कि नीतियों को तय किया था। मुहंमद कासीम हिन्दुशाह फरिश्ता (1560-1620) (Muhammad Qasim Firishta) आदिलशाही का विश्वसनीय इतिहासकार माना जाता है, जिसने दकन की मुस्लिम राजसत्ताओं के इतिहास पर गुलशन ए इब्राहिमी’ (Gulshan E Ibrahimi) नामी ग्रंथ लिखा है।

फरिश्ता ने यूसुफ आदिलशाह के व्यक्तित्व और सांस्कृतिक नजरिए का वर्णन किया है। फरिश्ता कहता है, “यूसुफ आदिलशाह बहुत ही अनुभवी और दूरदर्शी बादशाह था।

वह बहादुरी, दिलेरी, सखावत (उदारता), न्याय और विद्या अनुरागी इतना था कि जिसका उदाहरण मुश्किल से मिलेगा। इन व्यक्तिगत गुणों के अलावा सुलेख, आरोह-अवरोह तथा शायरी में बडी निपुणता थी। तम्बूर और उद बजाने में बडा कुशल था और इन कला के पारंगतों का बहुत सन्मान करता था।

यूसुफ को साहित्य में काफी रुची थी। उसने अपने दरबार में देश विदेश के विद्वानों को आश्रय दिया और खुद भी कविताएं लिखता था। इतिहासकार मुमताज जहां बेगम लिखती हैं, “यूसुफ आदिलशाह फारसी का मशहूर शायर था।

फन ए मौसिकी (संगीत) से इसे बेहद दिलचस्पी थी। शायरों की हिम्मत अफजाई और कदरदानी का यूसुफ आदिलशाह को खास शौक था। वह खुद मौसिकी के जलसों में शेर पढा करता था। दूर दराज के विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था। इनको कीमती तोहफे नजर किए जाते थे।

कुछ इतिहासकारों का तर्क है की, यूसुफ आदिलशाह ने ने फारसी कविताओं का एक दिवान लिखा था। उसका दिवान आज उपलब्ध नहीं है, मगर उसकी कुछ कविताओं का समकालीन विद्वानों ने अपने ग्रंथो में उल्लेख किया है।

बिजापूर के स्थानिक संगीतकारों को भी यूसुफ आदिलशाह ने अपने दरबार में स्थान दिया था। जॉन गोल्डस्मिथ ने भी यूसुफ आदिलशाह की अदबी खिदमात को अधोरेखित किया है।

गोल्डस्मिथ फरिश्ता के साथ अन्य किताबों का उल्लेख करते हुए कहते हैं, “यूसुफ आदिलशाह ने अपने शासन काल में ईरान, तुरान, अरब और रुम  जैसे देशों में पत्र भेजकर वहाँ के आलिमों, फाजीलों, गणितज्ज्ञों, कलाकारों आदी विभिन्न क्षेत्र के लोगों को बुलाकर अपने दरबार की शोभा बढाई।

उन कलाकारों को उनकी अपेक्षा से अधिक धन देकर उनकी सहायता की। यही वजह थी की विद्वान बिजापूर के दरबार को छोडकर जाना नहीं चाहते थे।

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शिया पंथप्रसार कि प्रतिज्ञा

मस्जिदों में अपने नाम का खुतबा (प्रवचन) पढवाना मध्यकाल में सत्ता के वैधता कि एक प्रक्रिया थी। आदिलशाही के स्थापना के पूर्व भारत में सुन्नी तरीके से मस्जिद में खुतबा पढा जाता था।

यूसुफ आदिलशाह वह पहला बादशाह है जिसने भारत में 12 इमामों के नामों का शिया खुतबा पढना शुरु किया। दकन कि राजनीति में शिया गुट का नेतृत्त्व करनेवाले महमूद गवान के हत्या कि यह प्रतिक्रिया थी।

राजवंश कि स्थापना के बाद यूसुफ आदिलशाह ने ईसवी 1505 में मजलिस ए जश्नका आयोजन किया। इस महफील को संबोधित करते हुए उसने कहा, “जीवन के प्रारम्भिक दिनों में मेरा देश निकाला हो गया। मैं बाजार में बिकता फिर रहा था, तो हजरत खिज्र अलैहीस्सलाम ने मुझे ख्वाब में यह ज्योति प्रदान कि थी के खुदाबन्द तआला मुझे दरिद्रता के गढ़्ढ़े से निकालकर शाही तख्त पर बैठायेगा।

हजरत खिजर ने मुझे यह भी शिक्षा दी थी कि मैं सत्ता कि बागडौर लेकर खुदा को विस्मृत न करुँ। सदैव सादात ए करामऔर इस धर्म की दीक्षा लेने वालों का आदर करुँ और शिया संप्रदाय को संसार में फैलाने की जिन्दगी भर कोशिश करता रहूँ।

मैंने इसी स्वप्न के कारण खुदाबन्द तआला से यह प्रतिज्ञा की थी कि बादशाहत के पद पर पहुंचकर 12 इमामों के पवित्र नामों को खुत्बे में सम्मिलीत करुँगा और शिया धर्म को प्रसारित करुँगा।

इस तरह से यूसुफ आदिलशाहने मजलिस ए जश्नमे शिया पंथ कि अधिकृत घोषणा कर दी। मगर शिया हुकुमत के ऐलान के बावजूद यूसुफ ने उसकी अवधारणाओं और सांस्कृतिक निष्ठाओं को सक्ती से अमल में लाने कि कोई कोशिश नहीं की। उसे इस बात का बखुबी अहसास था की, उसके कई सरदार, अमीर और वजीर सुन्नी पंथ के पक्षधर हैं।

यूसुफ आदिलशाह ने अपने सभी जागीरदारों को हुक्म दिया था के जो कोई सुन्नी संप्रदाय से है उसे उसके धर्म का पालन करने में कोई बाधा न पैदा करे। उसे उसकी धार्मिक श्रद्धाओं का पालन करने दे।

एक बार यूसुफ आदिलशाह के खिलाफ महमूद शाह बहमनी, फतेहउल्लाह आमादी और निजाम उल मुल्क आमादी ने एक गठबंधन बनाया। उस गठबंधन को तोडने के लिए यूसुफ आदिलशाह ने शिया पंथ पर अपने पुख्ता इमान (श्रद्धा) के बावजूद सुन्नी संप्रदाय का स्वीकार किया।

उसकी यह रणनीति काफी कामयाब रही। दुश्मनों में फुट पड गई और यूसुफ आदिलशाह पर से संकट टल गया। युद्ध के मैदान से जब वह बिजापूर लौटा तो फिर एक बार उसने शिया पंथ को अपनाने का ऐलान किया।

उसने अपने सरदारों से कहा, “धर्म हर एक का व्यक्तिगत मामला है। जिस व्यक्ति का जैसा रुझान होता है वह वही धर्म स्वीकार करता है। अच्छा यही है कि तुम लोग मुझे मेरे धर्मपर रहने दो और तुम स्वयं उसी धर्म पर चलो जिसमें तुम्हारी आस्था हो। धर्म कि विभिन्नता को राजनीति से मत जोडो।

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सहिष्णु सुलतान

जे.डी.बी. ग्रिबल ने इसी बयान को आधार बनाकर यूसुफ आदिलशाह को सहिष्णु सुलतान कहा है। ग्रिबल लिखते हैं, “यूसुफ दकन का वह सुलतान है, जिसने दकन की राजनीति को नए परिवर्तन के लिए सिद्ध किया।

वह धर्म के मामले इस कदर सहिष्णु था कि उसने अपने परिवार में भी किसी पर अपनी धार्मिक आस्थाओं को लादा नहीं। इसी कारण उसके अपने परिवार के कई सदस्य आखिर तक सुन्नी रहे। इब्राहिम आदिलशाह (Ibrahim Adil Shah) प्रथम और द्वितीय दोनो कि आस्थाएं सुन्नी थी।

इब्राहिम द्वितीय तो अपने परदादा के नक्शे कदम पर चलते हुए बिजापूर के हिन्दुओं का जगद्‌गुरु बन गया। जिसने सरस्वती की आरती और नवरस नामाजैसा अद्वितीय ग्रंथ लिखा।

तकरीबन 20 साल हुकुमत करने के बाद ईसवी 1510 में यूसुफ आदिलशाह का निधन हो गया। यूसुफ के बाद उसका नाबालीग बेटा इस्माईल आदिलशाह (Ismail Adil Shah) सत्ता में आया।

जो उसकी मराठा बेगम पुंजी खातून से पैदा हुआ था। यूसुफ कि इस मराठा पत्नी ने आदिलशाही हुकुमत की बागडौर हाथ में ली। और तकरीबन दस साल तक आदिलशाही शासन कि राजनीति पर उसका प्रभाव था। 

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